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सुख-दुख

अलविदा अज्ञात जी, आप तो अशोक थे लेकिन हम अब भारी शोक में हैं

(स्व. अशोक अज्ञात जी)

कभी माफ़ मत कीजिएगा अशोक अज्ञात जी, मेरे इस अपराध के लिए … हमारे विद्यार्थी जीवन के मित्र अशोक अज्ञात कल नहीं रहे। यह ख़बर अभी जब सुनी तो धक् से रह गया । सुन कर इस ख़बर पर सहसा विश्वास नहीं हुआ । लेकिन विश्वास करने न करने से किसी के जीवन और मृत्यु की डोर भला कहां रुकती है। कहां थमती है भला ? अशोक अज्ञात के जीवन की डोर भी नहीं रुकी , न उन का जीवन । अशोक अज्ञात हमारे बहुत ही आत्मीय मित्र थे । विद्यार्थी जीवन के मित्र । हम लोग कविताएं लिखते थे। एक दूसरे को सुनते-सुनाते हुए हम लोग अकसर अपनी सांझ साझा किया करते थे उन दिनों।

(स्व. अशोक अज्ञात जी)

कभी माफ़ मत कीजिएगा अशोक अज्ञात जी, मेरे इस अपराध के लिए … हमारे विद्यार्थी जीवन के मित्र अशोक अज्ञात कल नहीं रहे। यह ख़बर अभी जब सुनी तो धक् से रह गया । सुन कर इस ख़बर पर सहसा विश्वास नहीं हुआ । लेकिन विश्वास करने न करने से किसी के जीवन और मृत्यु की डोर भला कहां रुकती है। कहां थमती है भला ? अशोक अज्ञात के जीवन की डोर भी नहीं रुकी , न उन का जीवन । अशोक अज्ञात हमारे बहुत ही आत्मीय मित्र थे । विद्यार्थी जीवन के मित्र । हम लोग कविताएं लिखते थे। एक दूसरे को सुनते-सुनाते हुए हम लोग अकसर अपनी सांझ साझा किया करते थे उन दिनों।

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गोरखपुर की सड़कें , गलियां पैदल धांगते-बतियाते घूमते रहते थे। क्रांति के फूल खिलाते , खिलखिलाते रहते थे। वह हमारी मस्ती और फाकाकशी के भी दिन थे । हमारी आन-बान-शान और स्वाभिमान से जीने के दिन थे । ज़रा-ज़रा सी बात पर हम लोग किसी भी ख़्वाब या किसी भी प्रलोभन को क्षण भर में लात मार देने में अपनी शान समझते थे । इसी गुरुर में जीते और मरते थे । अठारह-बीस बरस की उम्र में हम लोग दुनिया बदलने निकले थे । दुनिया तो खैर क्या बदली, हम लोग ही बदलते गए , हारते और टूटते गए । लेकिन यह तो बाद की बात है । अब की बात है । पर उस समय , उस दौर की बात और थी । और अशोक अज्ञात तो अशोक ही थे। अशोक मतलब बिना शोक के। कुछ भी बन बिगड़ जाए उन को बहुत फर्क नहीं पड़ता था । अज्ञात का गुरुर उन्हें शुरु ही से और सर्वदा ही रहा।

हम लोग विद्यार्थी ज़रुर थे पर साहित्य में स्थानीय राजनीति की ज़मीन को तोड़ने के लिए जागृति नाम से एक संगठन भी बनाया था । जिस का मुख्य काम उन दिनों कवि गोष्ठियां आयोजित करना था । अशोक अज्ञात उन दिनों संकेत नाम से एक अनियतकालीन पत्रिका भी निकालते थे । और कि उस में वह किसी की सलाह या दखल नहीं लेते थे । वह उन का व्यक्तिगत शौक और नशा था । पान खाते-चबाते वह एक से एक गंभीर बात कर लेते थे । वह जल्दी किसी विवाद में नहीं पड़ते थे लेकिन चुप भी नहीं रहते थे। स्वार्थ उन में नहीं था , भावुकता लेकिन बहुत थी । उन के एक मामा जिन्हें हम लोग ओझा जी कहते थे, हम लोगों को पढ़ने के लिए अकसर सोवियत साहित्य उपलब्ध करवाते रहते थे।

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अशोक अज्ञात का गांव टांड़ा हमारे गांव बैदौली से थोड़ी दूरी पर ही था । वह बाहुबली और कई बार काबीना मंत्री रहे हरिशंकर तिवारी के ख़ास पट्टीदार थे । लेकिन तमाम मुश्किलों और निर्धनता के बावजूद कभी भी उन से कोई मदद नहीं मांगी । न ही उन के हुजूर में गए । बचपन में ही उन के पिता नहीं रहे थे । उन की मां ने ही उन्हें पाला-पोसा और पढ़ाया-लिखाया । टीन एज तक आते-आते अज्ञात जी ने परिवार की ज़िम्मेदारियां उठा लीं । उन्हीं दिनों अपनी एक बहन की शादी उस कच्ची उम्र में तय की थी । मैं भी गया था तब उन की बहन की शादी में उन के गांव। संयोग से विद्यार्थी जीवन में कुछ समय मैं गोरखपुर के रायगंज मुहल्ले में भी रहा था । वहां अज्ञात जी हमारे पड़ोसी रहे थे । अपनी बड़ी बहन के साथ रहते थे । वह हमारी कविताओं के , हमारे संघर्ष और हमारी उड़ान के दिन थे । पत्रकारपुरम , राप्ती नगर , गोरखपुर में भी वह मेरे पड़ोसी रहे थे । इस नाते जब भी गोरखपुर जाता था तो नियमित मुलाकात होती थी उन से । वह जब कभी लखनऊ आते तब भी हमसे मिलते ज़रुर थे । हमारे कथा साहित्य के वह अनन्य पाठक थे । खोज कर , मांग कर जैसे भी हो वह पढ़ते ज़रुर थे । न सिर्फ़ पढ़ते थे बल्कि पात्रों और कथाओं पर विस्तार से चर्चा भी करते थे । प्रश्न करते थे । किसिम किसिम के सवाल होते उन के पास । कई बार वह फ़ोन कर के बात करते । मिलने का इंतज़ार नहीं कर पाते थे।

मेरी कहानी मैत्रेयी की मुश्किलें और उपन्यास वे जो हारे हुए उन को बहुत प्रिय थे । इस लिए भी कि वह ख़ुद हारे हुए थे और कि इस उपन्यास के बहुत से चरित्र उन के जाने और पहचाने हुए लोग थे । हरिशंकर तिवारी भी इस उपन्यास में खल पात्र के रुप में उपस्थित थे इस लिए भी वह इसे बहुत पसंद करते थे । इतना ही नहीं , यह उपन्यास भी उन्हों ने उन तक पहुंचवा दिया यह कह कर कि आप अपने को चाहे जितना सफल मानिए , नायक मानिए लेकिन देखिए समय और साहित्य आप को किस तरह दर्ज कर रहा है । यह बात उन्हों ने मुझे फ़ोन कर बताई । मैं ने चिंतित हो कर कहा , यह क्या किया आप ने ? वह बोले , घबराईए नहीं आप । वह लोग बहुत बेशर्म और घाघ लोग हैं । उन को इन सब चीजों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता । और सचमुच अशोक अज्ञात ने सही ही कहा था । उन या उन जैसों को कोई फ़र्क नहीं पड़ा था । फ़र्क तो छोड़िए , नोटिस भी नहीं ली उन या उन जैसे लोगों ने । लेकिन मैं चिंतित इस लिए हुआ था क्यों कि एक बार एक ख़बर के सिलसिले में महीनों धमकी आदि झेलना पड़ा था , इन्हीं तिवारी जी के चमचों से । अज्ञात जी बोले थे , ख़बर की बात और है।

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अशोक अज्ञात अपनी कविताओं में जो चुभन बोते थे , अपने जीवन में भी वह चुभन महसूस करते रहे । निरंतर । इतना कि बाद के दिनों में वह सिर्फ़ पाठक बन कर रह गए । रचना छूट गई। उन के जीवन में आर्थिक संघर्ष इतना ज़्यादा था कि बाक़ी सारे संघर्ष और रचनात्मकता खेत हो गई थी । आज अख़बार की नौकरी ने उन्हें निचोड़ लिया था । पांच हज़ार , सात हज़ार या दस हज़ार रुपए की नौकरी में आज अख़बार की नौकरी में आज की तारीख में किसी स्वाभिमानी व्यक्ति और उस के परिवार का बसर कैसे होता रहा होगा , समझा जा सकता है । गोरखपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष भी रहे हैं वह । आज अख़बार में वह संपादक भी रहे कुछ समय तक । लेकिन संपादक और प्रेस क्लब के अध्यक्ष हो कर भी अज्ञात ही रहे । क्षुद्र समझौते कभी नहीं किए । दलाली आदि उन से कोसों दूर भागती थी । भूखे रह लेना वह जानते थे लेकिन हाथ पसारना नहीं । अशोक तो वह खैर थे ही । अशोक मतलब बिना शोक के । लेकिन अशोक अज्ञात भी हो जाए तो मुश्किल हो जाती है । अज्ञात नाम तो उन्हों ने कविता लिखने के लिए ख़ुद रखा था । पर क्या पता था कि अज्ञात नाम से कविता लिखने वाला , संकेत नाम की पत्रिका निकालने वाला यह व्यक्ति इतना भी अज्ञात हो जाएगा कि कैंसर की बीमारी का इलाज भी अपने पिछड़े गांव में करते हुए अपने गांव में ही आंख मूंद लेगा ! अपनी जन्म-भूमि में ही प्राण छोड़ेगा । और कि इस बीमारी की सूचना भी हम जैसों मित्रों को देने की ज़रुरत नहीं समझेगा।

अशोक अज्ञात फ़ेसबुक पर भी उपस्थित रहे हैं । और इस दौर में जब लोग अपनी फुंसी , खांसी , बुखार की भी सूचना परोस कर भी अपनी आत्म मुग्धता में फ़ोटो डाल-डाल कर धन्य-धन्य होते रहते हैं , वहीं हमारे अशोक अज्ञात ने अपने कैंसर की भनक भी नहीं होने दी किसी को । आप उन के अशोक और अज्ञात होने का अंदाज़ा इस एक बात से भी लगा सकते हैं । अब हम भी अपने को सिर्फ़ और सिर्फ़ कोस ही सकते हैं कि एक अभिन्न आत्मीय और स्वाभिमानी मित्र को क्यों इस तरह निर्वासित हो कर अज्ञात मृत्यु के कुएं में धकेल दिया । क्यों नहीं , खोज ख़बर रखी । माथा ठनका तो तभी था जब कुछ समय पहले गोरखपुर जाने पर उन के घर गया तो पता चला कि वह तो अपना घर बेच कर कहीं और जा चुके हैं । उन का फ़ोन मिलाया । फ़ोन बंद मिला । दूसरे पड़ोसी गिरिजेश राय ने बताया कि वह कर्ज में डूब गए थे , मकान की किश्तें बहुत हो गई थीं, पारिवारिक जिम्मेदारियां भी थीं सो घर बेचना ही रास्ता रह गया था।

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अब तो गिरिजेश राय भी नहीं रहे । फिर बाद में भी कई बार फोन किया , कभी फ़ोन नहीं मिला उन का । न ही कोई मित्र उन का बदला हुआ उन का कोई दूसरा नंबर दे पाया । फिर मैं भी अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों में उलझ गया । अज्ञात जी की खोज-ख़बर लेना बिसर गया । ख़बर मिली भी तो यह शोक भरी ख़बर। जाने गोरखपुर के पत्रकार लोग गोरखपुर से कोई सत्तर किलोमीटर दूर उन के गांव टांड़ा भी पहुंचे होंगे या नहीं , मैं नहीं जानता। यह ज़रुर जानता हूं अज्ञात जी के इस तरह अज्ञात चले जाने में एक अपराधी मैं भी हूं। कभी माफ़ मत कीजिएगा अज्ञात जी , मेरे इस अपराध के लिए । इस लिए कि मैं कभी इस अपने अक्षम्य अपराध के लिए ख़ुद को माफ़ करने वाला नहीं हूं। अलविदा अज्ञात जी। आप तो अशोक थे लेकिन हम अब भारी शोक में हैं, अशोक नहीं हैं। दल्लों भड़ुओं के इस दौर में , कुत्ता और चूहा दौड़ में इस तरह बेनाम और बेपता मौत ही हम सब की अब तकदीर है। करें भी तो क्या करें अशोक अज्ञात जी । ख़ुद्दारी की खता की भी आख़िर कुछ तो सज़ा भी होती ही है।

मुश्किल यह भी है कि जैसे उन के पिता उन्हें भंवर में छोड़ कर चले गए थे , वैसे ही अज्ञात जी भी अपने बच्चों को भंवर में ही छोड़ कर गए हैं। दो बेटे हैं, बेरोजगार हैं। एक बेटी है, विवाह बाकी है। पत्नी भी बीमार रहती हैं। उनका इलाज भी वह नहीं करवा पाते थे। मुश्किलें और भी बहुत हैं। ईश्वर उन के परिवार को उन के विछोह की शक्ति दे और उन की आत्मा को शांति। एक अभागा मित्र और कर भी क्या सकता है भला?

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लेखक दयानंद पांडेय लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं.

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