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सुख-दुख

मुस्लिम बहुल क्षेत्र में 30 वर्ष रहने के बाद स्वीडन की पूर्व सांसद नलिन पेकगुल इलाका क्यों छोड़ गईं?

अमेरिकी साम्राज्यवाद और इस्लामी फासीवाद- दोनों जनता के दुश्मन हैं…. नलिन पेकगुल स्टाकहोम (स्वीडन) के सबअर्ब हस्बी टेंस्टा वाले मुस्लिम बहुल इलाके में 30 साल रहने के बाद किसी दूसरे शहर में चली गयी हैं. नलिन पेकगुल कुर्दिश मूल की सोशल डेमोक्रेट नेता हैं और सांसद भी रही हैं वर्ष 1994 से 2002 तक. उनके इलाके में प्रवासी मुसलमानों ने सामाजिक स्पेस को लगभग नियंत्रण में ले लिया है. ऐसे में वह खुद को महफूज़ नहीं समझतीं. पेकगुल स्त्री विमर्श में स्वीडन का जाना पहचाना नाम है.

(नलिन पेकगुल)

अमेरिकी साम्राज्यवाद और इस्लामी फासीवाद- दोनों जनता के दुश्मन हैं…. नलिन पेकगुल स्टाकहोम (स्वीडन) के सबअर्ब हस्बी टेंस्टा वाले मुस्लिम बहुल इलाके में 30 साल रहने के बाद किसी दूसरे शहर में चली गयी हैं. नलिन पेकगुल कुर्दिश मूल की सोशल डेमोक्रेट नेता हैं और सांसद भी रही हैं वर्ष 1994 से 2002 तक. उनके इलाके में प्रवासी मुसलमानों ने सामाजिक स्पेस को लगभग नियंत्रण में ले लिया है. ऐसे में वह खुद को महफूज़ नहीं समझतीं. पेकगुल स्त्री विमर्श में स्वीडन का जाना पहचाना नाम है.

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(नलिन पेकगुल)

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कमोबेश यही हालत जर्मनी, फ़्रांस, ब्रिटेन के उन इलाकों की है जहाँ मुसलमानों की आबादी का घनत्व अधिक है. इनका सबसे पहला शिकार मुस्लिम लड़कियाँ होती हैं. माहौल ऐसा बना दिया जाता है कि बुर्का और हिजाब पहनना स्वत: अनिवार्य हो जाता है. पश्चिम में अक्सर प्रगतिशील ताकते इस्लामोफोबिया को ही एजेंडे पर रखती हैं. बात भी सही है. अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में पिछले 25 सालों में हिंसा और विध्वंस का नंगा नाच जिस तरह मध्य पूर्व में हुआ है उसका निशाना मुस्लिम जगत ही है जिसके फलसवरूप इस्लामी आतंकवाद का जन्म हुआ. इसके जन्म और पालन पोषण में अमेरिका की सहायक भूमि को कौन नकार सकता है कम्युनिस्ट होने के नाते पीड़ित के पक्ष में खड़ा होना मानव धर्म है. इसे हम न करेंगे तो कौन करेगा?

1970-80 के दशकों में प्रगतिशील मुसलमानों का एक वैकल्पिक रास्ता मुस्लिम आवाम के पास था. मुल्लाह वाणी के बरअक्स नौजवान मुसलमान जार्ज हब्बाश, लैला खालिद, यासिर अराफात को अपना आदर्श समझता था. तमाम मुस्लिम देशों में कमाल पाशा से लेकर सद्दाम हुसैन, अनवर सादात, कर्नल गद्दाफी अपना असर रखते थे. भारत पाक में प्रगतिशील शायरों और लेखकों के बड़े बड़े कद इस बात के सबूत हैं कि उनके समाज में उनकी कद्र थी. 1991 में सोवियत संघ के टूट जाने के बाद इस वैकल्पिक चिंतन धारा को पहला झटका लगा, इस विचार शून्यता को सबसे पहले पहल लेकर भरने की कोशिश इस्लामी ताकतों ने की, इरान की इस्लामी क्रांति ने इसे ठोस वैचारिक आधार दिया, दूसरी तरफ अफगानिस्तान में मुजाहीदीन संघर्ष सुन्नी विकल्प दे रहा था. 9/11 की घटना के आते आते मुसलमान आवाम के सामने से वाम विकल्प लगभग सिरे से गायब हो गया, जो संघर्ष वाली ताकते थी, विकल्पहीनता के कारण उग्र इस्लामी भंवर में समा गयी और दूसरी तरफ इस समुह की प्रगतिशील ताकते पस्त होकर निष्क्रिय हो गयी.

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युद्ध की मार झेलता हुआ मुसलमानों का यही तबका 2000 के दशक के बाद यूरोप और अमेरिका में हिजरत कर गया जिसके पास साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ने का वैकल्पिक हथियार सिर्फ और सिर्फ इस्लाम बचा था. सऊदी धन की निर्बाध आपूर्ति से यूरोप और अमेरिका में मस्जिदों का नेट वर्क इन्हें अपनी गिरफ्त में लेने के लिए तैयार हुआ जिसमे सुन्नी जुझारू तबको को समाहित किया दूसरी तरफ इरानी इस्लामी क्रांति में जान पड़ जाने ने शिया मुसलमानों को एक दूसरा प्लेटफार्म मुहैय्या करा दिया. इन ऐतिहासिक परिस्थितियों में समाज का सबसे पीड़ित तबका प्रगतिशील ताकतों के साथ खड़ा न होकर खुद प्रतिक्रियावादी फासीवादी ताकतों का इंधन बन गया . यूरोप से पांच हजार मुसलमान नौजवानों का सीरिया में जाकर आइसिस का समर्थन करना इसका सबसे बड़ा सबूत है.

ऐसा कदापि नहीं कि यूरोप अमेरिका में बसे मुसलमान समुदाय में प्रगतिशील तबके की लौ बुझ गयी हो, ठीक इसी दौर में आप देखें की मुसलमानों में महिला विमर्श और इस्लाम के औरत विरोधी स्वरूप पर इन्ही इलाकों से मजबूत स्वर फूटे हैं, आयान हिसरी, इरशाद मंजी, तस्लीमा नसरीन, नलिन पेकगुल जैसे सशक्त हस्ताक्षर इसी युग की उपज है, वक्त की विडंबना यह है कि इन प्रगतिशील महिला कार्यकर्ताओं लेखिकाओं को कभी किसी वाम शक्ति का समर्थन नहीं मिला. तसलीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे की हुकूमत रहते हुए वहां से निष्कासन झेलना पड़ता है, बांग्लादेश और पाकिस्तान में प्रगतिशील लेखको राजनीतिज्ञों की हत्याओं का प्रश्न वाम एजेंडे पर आ ही नहीं पाता है और न कोई मजबूत विरोध सड़क पर देखने को मिलता है .

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खासकर पश्चिम के वाम जगत में इस प्रश्न को लेकर एक बुनियादी वैचारिक त्रुटी यह है कि वह धर्म की आज़ादी के सवाल पर नकाब के समर्थन में सड़क पर उतर जाते है और यह भूल जाते हैं कि इस्लाम सिर्फ एक धर्म नहीं एक मुकम्मिल राजनीति भी है. धर्म की आजादी उन्हें पश्चिम में बसे हिज्बोल्लाह, हमास जैसी इस्लामी राजनीतिक ताकतों के साथ खड़ा कर देती है और उनकी नासमझी धर्म का अधिकार और फासीवादी इस्लामी राजनीति में फर्क नहीं देखती.

आज नकाब की वकालत धार्मिक स्वतन्त्रता के नाम पर करने वाले कल टोरोंटो की सडकों पर लंदन जैसा प्रदर्शन ‘शरिया लागू करो’ नहीं करेंगे इस नतीजे पर पहुंचना राजनीतिक आत्महत्या होगी. दो वर्ष पूर्व कनाडा के ओंटेरियो प्रान्त में सैक्स शिक्षा को नए स्वरूप में राज्य सरकार द्वारा लागू करने पर दक्षिणी एशियाई समाज के कुछ तत्वों द्वारा बेहद तीव्र विरोध का सामना हुआ. कनेडियन कम्युनिस्ट पार्टी ने सैक्स शिक्षा का समर्थन किया था और उसके नेताओं को अपने समुदायों में इस प्रश्न को लेकर बेहद प्रतिक्रियावादी विरोध को झेलना पड़ा था. ये वही तबका है जो नकाब और पगड़ी का समर्थक है, यह वही तबका है जो भारतीय जातिवादी विचार को अपने जीवन में सात समंदर पार भी अमल में लाता है, यह वही तबका है जो अपने परिवारों में प्रेम विवाह के विरोध में आनर किलिंग तक कर देता है.

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कम्युनिस्टों के एक युवा उत्साही तबके को एक गलत फहमी और है, नकाब के पक्ष में, गाजा पर हमले के विरोध में, इसराइल के विरोध जैसे भावनात्मक प्रश्नों पर प्रदर्शन, विचार गोष्ठियां आयोजित करके उमड़ी भीड़ को वह अपनी ताकत समझ लेता है. यह बुनियादी गलती है जो उन्हें वर्ग संघर्ष के रास्ते से भटकाव की तरफ ले जाती है. कम्युनिस्टों की असल ताकत वह हैं जो बुनियादी प्रश्नों पर सड़कों पर संघर्ष में उतरते हैं. बिजली घरों के निजीकरण, कनाडा पोस्ट के निजीकरण, पूर्व हार्पर सरकार के जनविरोधी बिलों पर उसके संघर्षों में जो ताकत उसके पास थी वही उसकी असल ताकत है. नकाब, फलस्तीन, इस्लामोफोबिया जैसे भावनात्मक मुद्दों पर आने वाले चेहरे हमारे उन कार्यक्रमों, धरना, प्रदर्शनों से गायब रहते हैं जब हम सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध मोर्चा संभालते हैं. इस्लामोफोबिया के विरोध में आयोजनकर्ता लैला खालिद, जार्ज हब्बाश, कुर्दिश शहीद महिला आसिया रमजान अंतार, हिकमत , महमूद दरवेश, फैज़ अहमद फैज़ की फोटो भी हाथ में उठायें तब उन्हें अहसास होगा कि वह किन ताकतों के साथ खड़े हैं.

ये अजब इत्तेफाक है कि आज जब स्वीडन से नलिन पेकगुल की यह झकझोर देने वाली खबर आयी कि वह कथित मुस्लिम बहुल इलाके में तीस वर्ष रहने के बाद इलाका छोड़ा रही है. ठीक इसी समय कम्युनिस्ट पार्टी आफ कनाडा के नेतृत्व में टोरोंटों में इस्लामोफोबिया के विरोध में एक प्रदर्शन आयोजित किया जा रहा है और इन पक्तियों का लेखक ठीक इसी समय यह आलेख लिख कर अपना विरोध साम्राज्यवाद और इस्लामी ताकतों के विरुद्ध दर्ज कर रहा है. इस नाजुक दौर में मुझे यह कहने, सोचने और लिखने में कोई आपत्ति नहीं कि अमेरिकी साम्राज्यवाद का विरोध भी उतना ही जरूरी है जितना फासीवादी इस्लामी राजनीति का, क्योकि मूलत: दोनों मानव विरोधी हैं.

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भारतीय मूल के शमशाद एल्ही शम्स इन दिनों कनाडा में पदस्थ हैं और अपने बेबाक-प्रगतिशील विचारों को मुखरता के साथ सोशल मीडिया पर दर्ज कराने के लिए चर्चित हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है. शमशाद का लिखा ये भी पढ़ सकते हैं…

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