अमृतकाल की टीवी पत्रकारिता का घिनौना चेहरा

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Ajay Bhattacharya-

अगर न्यूज लांड्री की खबर सही है तो देश में अमृतकाल की पत्रकारिता का इससे घिनौना चेहरा देखने को शायद पहले कभी नहीं मिला होगा। इसे आप तिहाड़ी पत्रकारिता के विकास के रूप में भी देख सकते हैं। मामला अडानी के चैनल से जुड़ा है। चैनल के संपादक ने राहुल गाँधी की 31 अगस्त को मुंबई में हुई प्रेस कांफ्रेंस में गड़बड़ी की सुपारी ली और अपने मुंबई ब्यूरो चीफ को हुक्म दिया कि राहुल गांधी की प्रेस कांफ्रेंस में हंगामा करे।

ब्यूरो चीफ ने प्रेस कांफ्रेंस में हाजिरी तो लगाई लेकिन हंगामा नहीं किया क्योंकि उसे मालूम था हंगामेबाजी पत्रकारिता का अंग नहीं है। अब उस ब्यूरो चीफ ने इस्तीफ़ा भी दे दिया है। पत्रकारिता के पेशे में जिनकी भी रीढ़ बची है वे ऐसा ही कर रहे हैं जैसा इस ब्यूरो चीफ ने किया। सवाल यह है कि क्या कोई चैनल सिर्फ इसलिए राहुल गाँधी की प्रेस कांफ्रेंस में हंगामा कराना चाहता था कि उस प्रेस कांफ्रेंस में उसके मालिक अडानी की पोलपट्टी खुलने वाली थी ? याद करें जब अडानी ने उस चैनल पर कब्जा किया तब एक इंटरव्यू में कहा था कि चैनल की प्रसारण और कार्यनीति में कोई बदलाव नहीं होगा। यह सिर्फ कहने भर के लिए था। जो बदलाव हुआ उसमे सुपारी पत्रकारिता की झलक दिखती है और उसका संपादक पत्रकार की बजाय सुपारीबाज नजर आता है। सुपारीबाज पत्रकारिता में वास्तविक पत्रकार टिक ही नहीं सकता। वास्तविक पत्रकार किसी की प्रेस कांफ्रेंस में विघ्न नहीं डालेगा।

इससे पहले भी मुंबई के एक बेहतरीन पत्रकार ने एक चैनल को छोड़ दिया। महाराष्ट्र, गोवा और गुजरात के प्रभारी संपादक इस पत्रकार ने भी गोदी मीडिया का अंग बनने से परहेज किया। मैंने उससे चैनल छोड़ने का कारण जानना चाहा तो पता चला कि चैनल के आकाओं को खबरों से ज्यादा उन मसालेदार मसलों को उछालने में रुचि थी जिनमें हिंदू-मुस्लिम का तड़का हो। अलग ढंग की सुपारी पत्रकारिता के इस दौर में सरोकारी पत्रकारिता निशाने पर है। आज जो सुपारीबाज जितनी बढ़िया दलाली कर सकता है वही पत्रकार (?) बन सकता है।

सुपारी पत्रकारिता का वितण्डवाद यह है कि जब इनके कुकर्मों पर कोई कार्रवाई होती है तब उन्हें पत्रकारिता/अभिव्यक्ति की आजादी याद आती है। लेकिन जब कन्नन जैसे पत्रकार धर्म के नाम पर आतंकवादी बताकर जेल में ठूंस दिए जाते हैं तब सुपारीबाजों के मुंह से एक शब्द नहीं निकलता। तिहाड़ी पत्रकार के खिलाफ कर्नाटक में मुकदमा दर्ज होते ही झूठ की पाठशाला के प्राचार्य सहित गोदी मीडिया को प्रेस की स्वतंत्रता खतरे में नजर आने लगी है। मगर नौ साल से दिल्ली में तख्तानशीं से कभी इस बारे में नहीं पूछा कि हुजूर एक तो प्रेस कांफ्रेंस कर लो!

बहरहाल पत्रकारीय सरोकार न तब खत्म हुए जब देश ने आपातकाल झेला और न अब खत्म होंगे जब सारा अमला पत्रकारिता से मुजरा करवाने पर आमादा है और बिना रीढ़ वाले मुजरा करने को ही पत्रकारिता मानने में अपना अहोभाग्य समझने लगे हों तब सुपारीबाज संपादक के आदेश को न मानकर इस्तीफ़ा देने वाला वह युवा पत्रकार सरोकारी पत्रकारिता की बची खुची उम्मीद को कायम रखने का सपना बोता है। चैनल का पश्चिम भारत वह संपादक भी इसी सरोकारी पत्रकारिता को जीवन्तता प्रदान करता है। एक बात सबको ध्यान में रखना चाहिए कि अंधेरे को एक जुगनू से भी डर लगता है। रीढ़ वाले पत्रकार तो दीपक हैं जिनकी रौशनी अंधी आँखों को भी चुभती है। नेत्रहीनता ही अंधकार नहीं होता, विवेकहीनता भी अंधकार ही है। विवेक तिरोहित कर किसी नेता की सिफारिश पर ब्यूरोचीफ बनना उपलब्धि नहीं, पट्टाधारी पत्रकार बनने की अनुज्ञप्ति है।

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One comment on “अमृतकाल की टीवी पत्रकारिता का घिनौना चेहरा”

  • संतोष देव गिरि says:

    सटीक टिप्पणी सर,

    वर्तमान पत्रकारिता का कटु सत्य यही है, आज जन सरोकारी पत्रकारिता से दूर हट चरण वंदन वाली पत्रकारिता को ज्यादा तवज्जो दिया जा रहा है

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