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वेब-सिनेमा

कोई भी समझदार स्त्री अपने जीवन में ऐसा ‘अल्फा मर्द’ नहीं चाहेगी!

दिनेश श्रीनेत-

Spoiler alert : पोस्ट यह मानकर लिखी गई है कि आपने यह फ़िल्म देख ली है और हम फ़िल्म से जुड़े तमाम प्रतीकों और संदर्भों पर बात करना चाहते हैं. इसलिए यहां से आगे अपने रिस्क पर ही पढ़ें.

रणविजय सिंह (रणवीर कपूर) अपने पिता और अपनी फैमिली से इतना ऑब्सेस्ड है कि वह उनके लिए कुछ भी कर सकता है. अपनी पत्नी पर बंदूक तान सकता है, 100 लोगों को कुल्हाड़ी से – गोलियों से उड़ा सकता है या फिर अपने सगे बहनोई को खत्म कर सकता है और तो और हारे हुए दुश्मन का बेदर्दी से गला भी रेत सकता है. फ़िल्म इसी धरातल पर अपने नायक को जस्टिफाई करती है. लेकिन क्या फ़िल्म खत्म होने के बाद सिनेमाहॉल से निकलने वाला कोई भी पिता सोचेगा कि मेरी भी संतान ‘एनीमल’ फ़िल्म के नायक जैसी हो?

यहीं पर यह फ़िल्म मात खा जाती है. करीब साढ़े तीन घंटे की यह फ़िल्म (‘शोले’ और ‘मुगल-ए-आज़म’ जितनी) एक चकाचौंध से भरे शॉपिंग मॉल की तरह है, जो चमत्कृत तो करता है मगर आपके भीतर कुछ जोड़ता नहीं है. शायद कोई भी समझदार स्त्री अपने जीवन में ऐसा ‘अल्फा मर्द’ नहीं चाहेगी जो उसकी हिफ़ाजत तो करे मगर उसके अस्तित्व को पूरी तरह से ख़त्म कर दे. लेखक-निर्देशक संदीप रेड्डी वांगा अपने इस किरदार के लिए अल्फा मेल की एक थ्योरी भी गढ़ते हैं, जो उतनी ही सतही है जितनी यूट्यूब पर ‘जान लो लड़कियों के ये सात सीक्रेट’ वाली वीडियो.

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नायक खुद नायिका को समझाता है कि ‘अल्फ़ा मेल’ बहादुर होता है, शिकार करता है, औरत की हिफ़ाजत करता है. वो बताता है कि अल्फ़ा मेल के मुकाबले में जो कमजोर पुरुष होते हैं, वो ईर्ष्या करते हैं और सिर्फ बातें करते हैं, वादे करते हैं और पोएट्री लिखते हैं. इस ‘प्रिमिटिव थ्योरी’ से पढ़ी-लिखी लड़की प्रभावित हो जाती है और बाकी के ढाई घंटे वह नायक के पीछे-पीछे घूमती है, उसके बच्चे पालती है और गाहे-बगाहे थप्पड़ खाने की सिचुएशन तक पहुँच जाती है.

वांगा की इस बचकानी ‘अल्फ़ा मेल’ की थ्योरी का असर जबरदस्त है. सोशल मीडिया पर यह ‘टॉक्सिक मैस्क्युलिनिटी’ वर्सेज़ ‘अल्फा मेल’ की बहस में बदल गई है. जिसमें पुरुष भी शामिल हैं और स्त्रियां भी. इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ना चाहिए कि दुनिया की तमाम स्त्रियों को पुरुष के भीतर क्या खूबियां चाहिए, क्योंकि पुरुषों का जन्म स्त्रियों की बनाई कसौटी या उनकी पसंद पर खरा उतरने के लिए नहीं हुआ है, ठीक उसी तरह जैसे स्त्रियों का जन्म पुरुषों की बनाई कसौटी पर खरा उतरने के लिए नहीं है. उनके जीवन में इससे अहम चीजें हैं, और यदि ये भी अहम है तो सिर्फ जीवन की 10 महत्वपूर्ण बातों में से एक है, सबसे महत्वपूर्ण बात नहीं.

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मान लेते हैं कि संसार की 80 प्रतिशत (सोशल कंडीशनिंग के चलते कमजोर, भावनात्मक रूप से अपरिपक्व, असुरक्षित) स्त्रियों को एनीमल जैसा पुरुष चाहिए तो क्या सारा समाज उसी दिशा में चल पड़ेगा? या वह सिर्फ 15-20 प्रतिशत उन समझदार स्त्रियों के हिसाब से अपने गुणों को विकसित करेगा? जिन्हें शारीरिक सुरक्षा नहीं चाहिए, भावनात्मक सुरक्षा भी नहीं चाहिए. उन्हें पुरुष के रूप में पार्टनर चाहिए, संवाद के लिए, यौन संबंधों के लिए और जीवन साथ बिताने के लिए. उन्हें किसी ‘हिंसक नर’ के पीछे छिपकर खड़े होने में सुख नहीं मिलता है. हमें यह याद रखना चाहिए कि बहुमत कभी भी गुणवत्ता की कसौटियां नहीं तय करता है.

बहरहाल आगे चलकर नायक इतना ज्यादा ‘अल्फ़ा’ हो जाता है कि पिता-पुत्र की असमहतियों और रिश्तों की जटिलताओं की बुनियाद पर खड़ी हो रही फ़िल्म अंत में खून में डूबी नृत्य कर रही होती है. आइए इसके दूसरे नैरेटिव पर विचार करते हैं. यह फ़िल्म हिंसा को इसलिए जायज ठहराती है क्योंकि नायक अपने परिवार और खानदान की परंपराओं की हिफ़ाजत करता है. यह राजनीतिक रूप से इस धारणा को मजबूत करती है कि पारंपरिक हितों की रक्षा करने के लिए, पहले से बने साम्राज्य की हिफ़ाजत करने के लिए हिंसा जायज है.

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बैकड्रॉप में ‘स्वास्तिक स्टील्स’ के लोगो के साथ रणविजय का जोशीला भाषण उन छवियों की याद दिलाता है, जहां हिटलर अपने विशालकाय नाजी प्रतीक के तले भाषण दे रहा होता है. फ़िल्म में और एक दिलचस्प जस्टिफिकेशन जहां नायक कहता है कि उनका (नाज़ियों का) स्वास्तिक तिरछा है, हमारा सीधा है. भारतीय राजनीति के इतिहास को टटोलें तो यह स्पष्टीकरण भी बहुत कुछ कहता है. स्वास्तिक स्टील्स एक प्रतीक है, जिस पर घर के ही कुछ लोग (भीतरी तत्व) कब्जा करना चाहते हैं, नायक पहले उन्हें मौत के घाट उतार देता है, फिर वह उन ‘बाहरी ताकतों’ से निपटता है, जो स्वास्तिक स्टील्स के लिए खतरा हैं.

रणविजय सिंह का गुस्सा किसी क्रांति मे नहीं बदलता, क्योंकि उसकी हिंसा का कोई सामाजिक पक्ष नहीं है. क्रांतिनायक बहुत अलग होते हैं, वे व्यक्तियों को एक प्रतीक मानते हैं और वे कुछ व्यक्तियों के खिलाफ नहीं बल्कि पूरे सिस्टम के खिलाफ लड़ते हैं. क्रांतिकारी सबसे पहले मूल्यों का निर्माण करता है, क्योंकि उसे पता होता है कि उसके फॉलोअर बनेंगे और उनके लिए उसे मूल्य स्थापित करने ही होंगे. एक निहलिस्ट का नकारवाद भी हजार गुना बेहतर है क्योंकि उसकी अराजकता का भी एक मानवीय पक्ष है, एक तर्कसंगत मूल्य है, न कि व्यक्तिगत सनक.

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इस नायक की सारी लड़ाई तो बहुत निजी स्तर की है. उसे अपनी कंपनी बचानी है. उसे अपने पिता की जान की परवाह करनी है. लिहाजा पटकथा के स्तर पर यह बहुत ही निजी लड़ाई वाली फ़िल्म हो जाती है. ऐसी फ़िल्में चमत्कृत तो करती हैं मगर दर्शक उनसे जुड़ नहीं पाता है. गौर करें तो इस फ़िल्म की कहानी फिरोज़ ख़ान की 1992 में आई फ़िल्म ‘य़ल्गार’ से बहुत मिलती-जुलती है. उसका नायक संजय दत्त भी अपने पिता कबीर बेदी से ‘पैरेंटल वैलिडेशन’ चाहता था, पर वहां संजय दत्त के किरदार को बैलेंस करने के लिए उसके भाई बने फिरोज़ खान का रोल भी लिखा गया था.

गौर करें तो इन सबके पीछे ‘द गॉडफादर’ के विटो कोरलियोन और उसके बेटे माइकल कोरलियोन की परछाइयां भी हैं. ‘पैरेंटल वैलिडेशन’ पर तो ‘क़ला’ और ‘पिनोकियो’ जैसी फ़िल्में भी बनी हैं मगर उनमें गहराई ज्यादा है. जैसा कि बहुत लोगों को लगा, यह फ़िल्म बलवीर सिंह (अनिल कपूर) के किरदार तक को जस्टिफाई नहीं कर पाती है. बाप-बेटे के रिश्ते को जबरन तनाव भरा बनाने की कोशिश दिखती है. फ़िल्म बहुत हद तक ‘कबीर सिंह’ जैसी भी लगती है, या कहें तो उसका सीक्वेल अगर ‘कबीर सिंह’ के विवाह के बाद की कहानी कही जाती तो कुछ ऐसी ही होती. यह निर्देशक संदीप रेड्डी के लिए खतरा भी है, यानी उनके पास कुछ नया कहने को नहीं होगा अपनी तीसरी फ़िल्म में वह दर्शकों के धैर्य की परीक्षा ले रहे होंगे.

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फ़िल्म में इतने अधिक अविश्वसनीय दृश्य हैं कि 80 के दशक वाली या फिर रोहित शेट्टी की फ़िल्में ज्यादा वास्तविक लगने लगती हैं. संदीप वांगा एक ऐसी दुनिया रचते हैं, जहां पर कोई पुलिस नहीं है, कोई कानून या अदालत नहीं और कोई राजनीतिक व्यवस्था नहीं है. इसका नायक जो चाहे करता है, कोई पूछने वाला नहीं है. एक इंडस्ट्रियलिस्ट का बेटा एके 47 लेकर कॉलेज चला जाता है, गोलियां चलाता है और दुनिया को इसकी भनक तक नहीं लगती. वह टीवी पर खुलेआम अपने पिता के हमलावर की हत्या करने की चेतावनी देता है मगर कोई मीडिया उस परिवार से सवाल नहीं पूछती. एक होटल में जमकर गोलियां चलती हैं, लाशों के ढेर लग जाते हैं और कहीं कोई हलचल होती नहीं दिखती.

ऐसा लगता है ‘अल्फा मेल’ सचमुच किसी आधुनिक कबीले में पहुँच गया है. जब नायक कोरियन फ़िल्म ‘ओल्डब्वाय’ की शैली में कुल्हाड़ी से लड़ रहा होता है तो उसके हट्टे-कट्टे साथी हाथ में मशीनगनें लेकर गाना गाने लगते हैं, यही क्लाइमेक्स में भी होता है. उसूल के पक्के ये साथी अपने लीडर को मरने की हद तक पिटता देखते हैं मगर गोली नहीं चलाते.

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इस अविश्वसनीय कहानी के जरिए दर्शकों को बांधे रखने के जो उपाय किए गए हैं, वहां निर्देशक का कौशल जरूर झलकता है. पहला, हर दृश्य को बेहद ‘इंटेस’ बनाना, यानी हर सीन में एक ड्रामा क्रिएट करना और उसे स्थापित करने के लिए काफी गहराई तक जाना, चाहे पात्रों की वेशभूषा हो, सेट डिजाइन हो (फ़िल्म में वीएफएक्स की बजाय सचमुच की एक विशाल मशीनगन बनाई गई).

किरदारों के बीच का तनाव हो या फिर उस दृश्य को बेहतर बनाने के लिए सहायक तत्वों का इस्तेमाल. जैसे एआर रहमान की धुनों का या फिर ‘सारी दुनिया जला देंगे’ गीत की धुन को पारंपरिक विवाह गीत ‘बागे विच आया करो’ की तर्ज पर बनाना या फिर बिना किसी तर्क के बॉबी देओल की एंट्री पर फारसी गीत ‘जमाल जमालू’ का इस्तेमाल. हर दृश्य में तनाव क्रिएट करना. निर्देशक क्वेंटिन तारंतोनी की तरह हिंसा के दृश्यों में एस्थेटिक्स के स्तर पर जाकर अतिरंजना कर देना या फिर डार्क ह्ययूर और विडंबनापूर्ण स्थितियां दिखाना.

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फ़िल्म जहां जहां प्रॉब्लमेटिक है, उस पर काफी चर्चा पहले ही हो चुकी है. मैं कुछ और बातों की तरफ ध्यान दिलाना चाहता हूँ. पहला यह एक खतरनाक पॉलिटिकल नैरिटव स्थापित करती है, जो अपने परंपरागत अस्तित्व और पैर्टियार्कल विरासत को बनाए रखने के लिए हिंसा को जायज ठहराती है. यज्ञ के भव्य दृश्य, खलनायकों का इस्लामिक पृष्ठभूमि का होना, चर्च के पादरी से नायक की पटरी न खाना भी कहीं न कहीं एक सोचे-समझे नैरेटिव को स्थापित करते लगते हैं. फिल्म यह भी संदेश देती है कि सोसाइटी में ज्यादा हिंसा करने वालों की जरूरत है, तभी हालात कंट्रोल में रहेंगे.

दूसरे, यह एक मनोविकृत नायक को मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत करती है. अगर एक मिनट के लिए फ़िल्म के सारे धमाकेदार साउंड इफेक्ट्स को म्यूट कर दें, सारी तकनीकी कलाबाजी को हटा दें तो यह नायक बहुत कमजोर दिखता है. कई बार हम वही देखते हैं जो हमें दिखाया जाता है. एक ‘रिवर्स क्रिटिकल थिंकिंग’ के जरिए इस नायक की व्याख्या अभी बाकी है. वहां पर बहुत कुछ और है जो खुलेगा. एक जगह वह बिना किसी संदर्भ के अपने घर के बाहर नंगा घूमता नज़र आता है. यह नायक सेक्स के प्रति भी बहुत बीमार मानसिकता से ग्रस्त है. ऐसे कई दृश्य दिखाए गए हैं (शायद नायक में ‘एनीमल’ को स्थापित करने के लिए), जिसमें वह सेक्स के प्रति एब्नार्मलिटी की हद तक ऑब्सेस्ड नज़र आता है.

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इतनी लंबी फ़िल्म अंत तक आते आते अपनी अतिशय हिंसा के कारण सिरदर्द पैदा कर देती है. इसके बावजूद ‘एनीमल’ सफल इसलिए है कि वह दर्शकों को एक नया ड्रग देकर उत्तेजित करती है, हिंसा किसी नशे की तरह काम करती है. हिंसा भी हमारा मनोरंजन करती है. हिंसा और सेक्स मनुष्य की आदिम चेतना में दबा हुआ है. इसका कैसे भी इस्तेमाल किया जा सकता है. लेकिन कलाएं हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने का काम करती हैं, हमें आदिम युग में ले जाने का नहीं…

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