Siddharth Vimal : ज़मानत मिल जाने का मतलब यह नहीं होता कि अभियुक्त आरोप से बरी हो गया। इसका मतलब सिर्फ़ और सिर्फ़ इतना ही होता है कि जबतक मुक़दमे का फ़ैसला नहीं हो जाता, आरोपी को क़ानून के दायरे में रहते हुए अनुशासन पूर्वक रहना है। उसे अपने प्रतिपक्ष और समाज के लिए ख़तरा नहीं बनना है। यदि अदालत को लगता है कि प्रतिपक्ष और सामाजिक हित की सुरक्षा आरोपी को न्यायिक हिरासत में रख कर ही सम्भव है, तो आरोपी को ज़मानत नहीं मिलती। ज़मानत सशर्त ही होती है। जेल से निकलते ही अर्नब ने जिस क़िस्म से उन्मादी रोड शो किया उससे ज़मानत की शर्तों के खुल्लमखुल्ला उल्लंघन के साथ ही जस्टिस सिस्टम की बुनियादी अवधारणा पर ही सवाल खड़े होने लगते हैं। अभी अर्नब फिर से टीवी स्क्रीन के ज़रिए करोड़ों नागरिकों से रूबरू होंगे। किस रूप रंग में प्रस्तुत होंगे, अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
Anurag Dwary : हर न्यायधीश अपनी टिप्पणी में बहुत कुछ कहते हैं, कई बार तो फैसले से विपरीत भी … कल जस्टिस चंद्रचूड़ ने एक बात कही कि अगर आप चैनल पसंद नहीं करते तो ना देखें, भाई लोगों ने इसके लिये आसमान सिर पर उठा लिया है … तीन पन्नों के फैसले में कहीं इसका ज़िक्र नहीं है … ना ही ये मामला महाराष्ट्र सरकार पर अर्णब की टिप्पणी के संदर्भ में बहस थी … ये टीप तो उनकी एंकरिंग की शैली, भाषा पर थी … जब मामला ही इससे संबंधित नहीं तो अंतरिम राहत इससे संबंधित कैसे हो सकती है … लेकिन लेफ्ट-राइट के भाई लोगों को तथ्यों से क्या मतलब … वो अपनी धुन पर कदमताल करते रहेंगे …
Vijay Shanker Singh : व्यक्तिगत स्वतंत्रता और वरवर राव का मुकदमा. जब अर्णब गोस्वामी को सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत प्राप्त अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए, जमानत दी तो एक पुराना मामला याद आया। यह मामला है तेलुगू के कवि और मानवाधिकार कार्यकर्ता वरवर राव का। वरवर राव भी अपने मुक़दमे में जमानत के लिये सुप्रीम कोर्ट गए थे, और उन्हें वहां से निराश लौटना पड़ा। तब उन्हें माननीय न्यायालय से यह सुभाषित सुनने को नही मिला कि जब राज्य किसी नागरिक के निजी स्वतंत्रता पर प्रहार करेगा तो हम चुप नही बैठेंगे। इसके विपरीत उन्हें एक न्यायिक आदेश मिला कि वे निचली अदालतों में जाकर जमानत के लिये दरख्वास्त दें।
पहले अर्णब गोस्वामी के मुकदमे की बात पढ़े। उनकी अंतरिम जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “अगर राज्य सरकारें व्यक्तियों को टारगेट करती हैं, तो उन्हें पता होना चाहिए कि नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए शीर्ष अदालत है। हमारा लोकतंत्र असाधारण रूप से लचीला है, महाराष्ट्र सरकार को इस सब (अर्नब के टीवी पर ताने) को नजरअंदाज करना चाहिए।”
सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह भी कहा, ” यदि हम एक संवैधानिक न्यायालय के रूप में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा नहीं करेंगे, तो कौन करेगा?… अगर कोई राज्य किसी व्यक्ति को जानबूझकर टारगेट करता है, तो एक मजबूत संदेश देने की आवश्यकता है।”
अर्णब गोस्वामी केस में, सुप्रीम कोर्ट ने निजी स्वतंत्रता के सिद्धांत को प्राथमिकता दी। यह एक अच्छा दृष्टिकोण है और इसे सभी के लिये समान रूप से लागू किया जाना चाहिए। राज्य को किसी भी नागरिक को प्रताड़ित करने का अधिकार नही है। पर यह चिंता सेलेक्टिव नही होनी चाहिए।
वरवर राव का किस्सा, अर्णब गोस्वामी के मुकदमे से पहले का है। लेकिन राव से अर्णब तक, कानून तो नही बदला पर उनकी व्याख्या औऱ प्राथमिकताएं बदल गई या अदालत का दृष्टिकोण बदल गया, यह विचारणीय है। पर अदालतों के फैसले बदलते रहते हैं, और नयी नजीरें स्थापित होती हैं और पुरानी विस्थापित होती जाती है। पहले जो सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, वह आज बदल गया है और आज सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के उत्पीड़न के खिलाफ, हम भारत के लोगों की निजी स्वतंत्रता की रक्षा करने का जो संकल्प दुहराया है वह एक शुभ संकेत है। वरवर राव की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट को यह निर्देश दिया था कि, वह वरवर राव के स्वास्थ्य को देखते हुए मेडिकल आधार पर जमानत के लिये विचार करे। लेकिन खुद जमानत नही दी थी।
उस समय वरवर राव के मुकदमे की सुनवाई जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस विनीत शरण और जस्टिस रविन्द्र भट की पीठ ने की थी। याचिका, उनकी पत्नी हेमलता के द्वारा दायर की गयी थी। याचिका में कहा गया था कि, निरन्तर जेल में रहने और उनके साथ अमानवीय तथा क्रूरतापूर्ण व्यवहार होने के काऱण, उनकी हालत बहुत खराब हो गयी है और वे बीमार हैं। याचिका में यह प्रार्थना की गयी थी कि उनके स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हें मेडिकल आधार पर अस्थायी जमानत दे दी जाय।
बरवर राव के मुकदमे में वकील थी, सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ एडवोकेट इन्दिरा जयसिंह। उन्होंने याचिकाकर्ता हेमलता की तरफ से कहा कि,
“राव को उनके खराब हो रहे स्वास्थ्य के आधार पर जमानत न देना, नागरिक के स्वस्थ रहने के अधिकार का उल्लंघन है। संविधान न केवल जीवन का अधिकार देता है, बल्कि वह सम्मान औऱ स्वास्थ्य पूर्वक जीने का भी अधिकार देता है। इस प्रकार याचिकाकर्ता सम्मान और स्वस्थ होकर जीने के अधिकार से भी वंचित रखा जा रहा है।”
इतने भारी भरकम शब्दो की दलील को न भी समझें तो यह समझ लें कि वरवर राव बीमार हैं और उन्हें इलाज चाहिये।
मुंबई की जेल में जब वरवर राव कैद थे तभी उनकी तबीयत, जुलाई में अधिक बिगड़ने पर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उन्हें कोरोना का संक्रमण हो गया था। उनकी उम्र, कोरोना संक्रमण, और अन्य व्याधियों को देखते हुए, नानावटी अस्पताल के चिकित्सको ने चेक अप कर के, माह जुलाई के अंत मे, यह सलाह दी थी कि उन्हें और गहन चिकित्सकीय देखरेख की ज़रूरत है। यह सारे तथ्य, राव के एडवोकेट, इंदिरा जयसिंह द्वारा सुप्रीम कोर्ट में रखे गए थे।
राव, जब सेंट जॉर्ज अस्पताल में भर्ती थे, जो कोरोना अस्पताल था, तब अस्पताल में ही अचानक गिर पड़े और उनके सिर में चोट आ गयी। जब इस मामले की मेडिकल जांच हाईकोर्ट के आदेश पर नानावटी अस्पताल से करायी गयी तो, नानावटी अस्पताल ने 30 जुलाई की रिपोर्ट में यह कहा कि, कोरोना संक्रमण ने उनके स्नायु तंत्र को प्रभावित कर दिया है। तभी अस्पताल ने गहन देखरेख की आवश्यकता अदालत को बताई थी।
लेकिन, अस्पताल की इस गंभीर रिपोर्ट के बाद भी 28 अगस्त को उन्हें सिर्फ इसलिए, तलोजा जेल वापस भेज दिया गया ताकि कहीं मेडिकल आधार पर उनकी जमानत अदालत से न हो जाय। यह बात इंदिरा जयसिंह द्वारा सुप्रीम कोर्ट में कही गयी। अस्पताल से पुनः उन्हें जेल भेजा जा रहा है, यह बात वरवर राव के परिवार के लोगो को भी नहीं बताई गयी। इंदिरा जयसिंह ने यहां तक कहा कि ” वह किसी की अभिरक्षा में हुयी मृत्यु के लिये जिम्मेदार नहीं होना चाहती, इसलिए अगर जमानत नहीं, तो कम से कम यही आदेश अदालत जारी कर दे कि, जब तक बॉम्बे हाईकोर्ट उनकी जमानत अर्जी पर कोई फैसला नहीं कर देता है, उन्हें बेहतर चिकित्सा के लिये नानावटी अस्पताल में भर्ती करा दिया जाय।”
अब सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा जयसिंह की दलीलो पर जो कहा, उसे पढिये औऱ अर्णब गोस्वामी के मामले में 11 नवम्बर 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने जो व्यवस्था दी, उसे भी देखिए तो लगेगा कि क्या यह सुप्रीम कोर्ट की निजी आज़ादी के मसले पर किसी चिंता का परिणाम है या कोई अन्य कारण है।
जस्टिस यूयू ललित ने कहा कि इस मुकदमे के तीन पहलू हैं,
-प्रथम, सक्षम न्यायालय ने इस मामले में संज्ञान ले लिया है और अभियुक्त न्यायिक अभिरक्षा में जेल में है, अतः यह गिरफ्तारी अवैध गिरफ्तारी नहीं है।
-द्वितीय, जमानत की अर्जी विचार के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट में लंबित है।
-अंतिम, राव की जमानत पर विचार करते हुए हाईकोर्ट, उन्हें मुक़दमे के गुण दोष के आधार पर जमानत देता है या उनके स्वास्थ्य के आधार पर, यह क्षेत्राधिकार फिलहाल हाईकोर्ट का है।
अतः ” हम यह मामला कैसे सुन सकते हैं ? यानी सुप्रीम कोर्ट के दखल देने का कोई न्यायिक अधिकार नही है।
इसी बीच, पीठ के एक जज जस्टिस विनीत सरण ने यह वरवर राव को इलाज के लिये नानावटी अस्पताल भेजे जाने की एक वैकल्पिक राहत पर विचार किया तो जस्टिस यूयू ललित ने कहा, ” इस सम्बंध में भी हाईकोर्ट द्वारा ही विचार करना उपयुक्त होगा।”
इसी बीच एनआईए की तरफ से, भीमा कोरेगांव केस की तरफ से अदालत में उपस्थित, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि, ” किसी भी कैदी की सुरक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेदारी राज्य की है। यदि इस मामले में ऐसा कोई विशेष आदेश होता है तो इससे अन्य कैदी भी इसी प्रकार की राहत के लिये सुप्रीम कोर्ट की तरफ आएंगे। यह जिम्मेदारी हाईकोर्ट, जहां वरवर राव की जमानत की अर्जी लंबित है, पर ही छोड़ा जाना चाहिए। मेडिकल आधार को भी हाईकोर्ट देख सकती है।
जस्टिस भट्ट ने तुषार मेहता से कहा कि,” यदि हर कैदी को यदि वह बीमार है तो, बीमारी के इलाज के लिये अस्पताल भेजा जाना चाहिए। कोई भी व्यक्ति बीमारी से जेल में मरना नही चाहेगा। स्वास्थ्य सर्वोपरि है।”
पीठ ने इस पर भी चिंता जताई कि हाईकोर्ट ने इस मुकदमे की सुनवाई करने में देर कर दी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस स्तर पर कोई भी दखल देने से इनकार भी कर दिया। सुप्रीम कोर्ट का मानना था कि हाईकोर्ट के समक्ष इस मामले में कई बिंदु हैं और वह इन पर विचार कर रही है तो सुप्रीम कोर्ट का फिलहाल दखल देना उचित नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट को यह निर्देश दिया कि, किसी विशेषज्ञता प्राप्त अस्पताल में वरवर राव के इलाज के लिये एक सप्ताह के अंदर विचार कर अपना फैसला दे।
वरवर राव पर भीमा कोरेगांव मामले में एलगार परिषद के एक समारोह में भड़काऊ भाषण देने का आरोप है और उन्हें इसी आरोप में, 31 दिसंबर 2017 को यूएपीए की धारा के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया था, और अब तक वे जेल में हैं। क्या व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार संविधान ने बरवर राव को नही है ?
वरवर राव एक तेलुगु कवि और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। वे अपनी कविताओं के चलते जाने जाते हैं। राव ने 1957 में लेखन की शुरूआत की थी। शुरूआती लेखन से ही राव कविताएं लिखते रहे हैं। उन्हें तेलुगू साहित्य का एक प्रमुख मार्क्सवादी आलोचक भी माना जाता है। राव दशकों तक इस विषय पर तमाम छात्रों को पढ़ाते रहे हैं। वे पाँच दशकों से तेलुगु के एक बेहतरीन वक्ता और लेखक रहे हैं, चार दशकों तक तेलुगु के शिक्षक रहे हैं और अपनी तीक्ष्ण स्मृति के लिए जाने जाते हैं।
साल 1986 के रामनगर साजिश कांड सहित कई अलग-अलग मामलों में 1975 और 1986 के बीच उन्हें कई बार गिरफ्तार और फिर रिहा किया गया। उसके बाद 2003 में उन्हें रामनगर साजिश कांड में बरी किया गया और 2005 में फिर जेल भेज दिया गया। उनके ऊपर माओवादियों से कथित तौर पर संबंध होने के भी आरोप लगते रहे हैं। राव, वीरासम (क्रांतिकारी लेखक संगठन) के संस्थापक सदस्य भी रहे हैं।