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सुख-दुख

उस मीटिंग में संपादक प्रभात ने पत्रकार धीरज को जातिवाद के नाम पर बेहद जलील किया था

कोई दिन था जब तारीख एक थी. यही वह तारीख है जब अमर उजाला गोरखपुर के संपादक सभी ब्यूरो और डेस्क की मीटिंग लेते हैं. दरअसल, प्रभात स्वयंभू विद्वान हैं. ग्रामीण हिंदी पत्रकारिता में अंग्रेजी बोल लेने वाले शख्स हैं. लेकिन हैं बेहद बदतमीज. मैं भी हूं लेकिन जब तक अगला ऐसा न हो. भोजपुरी में एक कहावत है ‘जिसका दिया न खाइए वह…’. तो उसी उबाऊ और बेहद अपमानजनक मीटिंग में तथाकथित इंटेलेक्चुअल प्रभात ने धीरज को जातिवाद के नाम पर बेहद जलील किया.  अब जब जलील किया तो बेहद क्या.

वेद रत्न शुक्ला

कोई दिन था जब तारीख एक थी. यही वह तारीख है जब अमर उजाला गोरखपुर के संपादक सभी ब्यूरो और डेस्क की मीटिंग लेते हैं. दरअसल, प्रभात स्वयंभू विद्वान हैं. ग्रामीण हिंदी पत्रकारिता में अंग्रेजी बोल लेने वाले शख्स हैं. लेकिन हैं बेहद बदतमीज. मैं भी हूं लेकिन जब तक अगला ऐसा न हो. भोजपुरी में एक कहावत है ‘जिसका दिया न खाइए वह…’. तो उसी उबाऊ और बेहद अपमानजनक मीटिंग में तथाकथित इंटेलेक्चुअल प्रभात ने धीरज को जातिवाद के नाम पर बेहद जलील किया.  अब जब जलील किया तो बेहद क्या.

वेद रत्न शुक्ला

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प्रकरण यह कि प्रभात जो खुद जातिवादी और ब्राह्मण विरोधी हैं, ने महराजगंज जिले के Laxmipur से विधायक मुन्ना सिंह और जेल काट रहे अमर मणि के लड़के अमनमणि की खबरों के बीच पक्षपात का मामला उठाया. धीरज ने तमाम उदाहरण दिए और कहा कि सर, ऐसा हो तो कोई सजा भुगतने को तैयार हूं. बहरहाल, प्रभात को न मानना था न वो माने. मुन्ना सिंह का फोन था प्रभात सिंह को, कोई मजाक था. उन्होंने धीरज को तत्काल फरमा दिया पिथौरागढ़ या ऐसी ही कोई जगह जाने को. अब इसके पीछे एक और वजह है. कुछ लोग और नाराज होंगे लेकिन इससे सच्चाई तो नहीं न दब जाएगी.

दरअसल वहां विनोद राव (स्ट्रिंगर) जाति के ठाकुर तब नंबर दो थे. उनको सेटल settle भी करना था. वो नंबर एक हो गए धीरज के तबादले के बाद. बहरहाल मेरे इस कथन में काल्पनिकता या स्मृति मात्र नहीं. अभयानंद कृष्ण मणि त्रिपाठी की नियुक्ति महराजगंज के लिए हुई लेकिन प्रभात ने उनको नहीं भेजा. अभयानंद जी बीमार थे, पिता जी की जल्द ही मौत हुई थी. उन्होंने हरसंभव विनती की महराजगंज भेजने को लेकिन प्रभात के लिए यह संभव नहीं था जो विनोद राव नंबर दो हो जाते. बाद में कुछ श्रेष्ठ पत्रकार टाइप पुरष्कार भी मिला विनोद को. दरअसल, विनोद राव मेरी इस असलबयानी के बाद मुझे वही समझेंगे जो समझते आए हैं. वो अंग्रेजी के जेंटल और मेरी भाषा में ‘ठीक मनई’ हैं. हां यह जरूर है कि मैं उनको तेल नहीं लगा रहा कि ‘आदमी तो आदमी के काम जरूर आता है’ लेकिन कोई ऐसे ही नाराज हो जाए तो क्या करें.

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इसके बाद अभयानंद ने लंबी छुट्टी के बाद इस्तीफा दे मारा. ठीक किया नहीं तो मां की ममता और रीढ़ की बीमारी उन्हें भी धीरज की तरह… स्वयं धीरज और कुछ अन्य लोगों ने बताया कि प्रभात ने उनकी नौकरी तो नहीं लेने की कोशिश की लेकिन कहीं दूर ट्रांसफर का उपक्रम किया. प्रभात सफल नहीं हुए. शीर्ष प्रबंधन ने उनको गोरखपुर की ही खाली पड़ी बस्ती यूनिट में तबादला कर दिया. अब किस्सा यहां भी है लेकिन प्रभात के किस्से इतने कि मसि सूख जाए… कागद कितना कारा करें.

अब बस्ती में धीरज काम संभाल लिए. कुछ समय बीता और हर बार की तरह मनहूस एक तारीख आई. धीरज फिर जलील किए गए. इस माह तुमने क्या खास किया, छुट्टी पर रहोगे तो ब्यूरो की खबरें छूट जाएंगी लिखकर दो, तुम्हारे फोटोग्राफर ने लेंस क्यों नहीं खरीदा आदि पर. प्रभात को कौन बताए कि पिता के इलाज के लिए धीरज जब छुट्टी पर होते थे तो ब्यूरो क्या अपनी खबर भी नहीं रख पाते होंगे. मिस्टर प्रभात आपकी तरह हर व्यक्ति ‘महामानव’ नहीं होता. इसी मीटिंग के बाद ऑफिस से बाहर धीरज और मैंने साथ चाय पी. लौटते समय उन्होंने अपने पिता की बीमारी का जिक्र किया और रुआंसे हो गए. फिर बोले कि मैंने रिक्वेस्ट किया कि मुझे गोरखपुर रख लिया जाए आसानी होगी. यह कहकर धीरज रो दिए. धीरज अब आपके पिता जी रो रहे हैं और हम सब.

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लेखक वेद रत्न शुक्ला अमर उजाला, गोरखपुर में कार्यरत रहे हैं और आंतरिक राजनीति से त्रस्त होकर इस्तीफा दे दिया.

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0 Comments

  1. कोको

    June 27, 2015 at 8:33 am

    बेटा
    नमन

    एक बार बाबा ने लिख दिया हकीकत तो छनछना गए. दम हो तो वेद बाबा के फेसबुक वाल पर अपनी वर्जीनल I’d से यही कमेंट लिख दो. तुम्हारे घर आकर जबाव दे दिया जाएगा.
    वेद तो दारूबाज हैं. जरा अपने पापा परभात से पूछना कुशीनगर में मैने ही उसे और उसे विकलांग दोस्त को पथिक निवास में एक कैरट बीयर उपलब्ध कराया था. सुबह तक दोनों पूरा ढकोल गए थे. आज तक उसका पैसा नहीं दिए. बीयर की बोतल में गंगाजल नहीं होता हैं. अब इस लिहाज से आपके चंपादक महोदय को दारूबाज नहीं तो और क्या हैं.
    रहीं बात पंडितों के संरछण देने की तो धरमेंदर सिंह से भी बीत कर लो जिन्हें मान्वेंदर सिंह ( चंपादक की मौसी के लड़के) ने अपनी बिरादरी के खाचे में फिट करने की नाकाम कोशिश की थी. जिसमें परभात भी शामिल थे.
    लगभग 26 पंडित जी लोग इनके आने के बाद शहीद हो गए वो सभी कामचोर रहे होंगे क्यों तथाकथित नमन बाबू. दरअसल आपके चंपादक हद दर्जे के बदतमीज हैं.

  2. badthwal

    June 26, 2015 at 5:48 pm

    कानपूर देहरादून के संपादको का ट्रांसफर करने की बजाय प्रभात सिंह को ट्रांसफर नहीं टर्मिनेट कर देना चाहिए. lekin ये हो नहीं सकता. उदय कुमार सिन्हा जो ऊपर हाथ रखे हुए है. उन्ही के इशारो पर प्रभात लोगो को प्रताड़ित करता है.

  3. naman

    June 27, 2015 at 7:16 am

    वेदरतन शुक्ल तुम डेस्क पर थे। तभी दारु व भांग खाकर बैठते थे। तुम्हारे इन्हीं कारणों से तुमको हटाया गया। तुम इस्तीफा नहीं दिए थे। एक बार तुम दारु पीकर भड़ास व फेसबुक पर लिख दिए। तुम्हारे जैसे दारुबाज को ये बताना उचित नहीं समझता। लेकिन बता रहा हूं। जहां तक प्रभात सिंह जी का बिरादरी की बात है। वे काम के भूखे हैं न कि बिरादरीवाद की। अगर बिरादरीवाद निभाते तो टीपी शाही जैसे सीनियर पत्रकार जो अमर उजाला के लांचिग के समय से हैं। आज तक सब एडीटर ही हैं। अरुण चंद को संपादक का खास माना जाता है। तीन साल से जूनियर सब एडिटर हैं। यही हाल विनोद राव का है। वे भी तीन साल से रिटेनर हैं। धमेंन्द्र सिंह व विनय सिंह जो ठाकुर थे। वे प्रभात सिंह के वजह से अखबार छोड़े। दूसरा पहलू है। जितने भी संपादकीय से जुड़े हैं। सभी ब्राहमण हैं। न्यूज एडिटर मृगांक पांडेय इन्हें मुरादाबाद से प्रभात ङ्क्षसह ही लाए। यदि ब्राह़मण विरोधी होते तो नहीं लाते। जितने भी व्यूरो प्रभारी हैं। सभी ब्राह़मण। देवरिया से रजनीश त्रिपाठी, कुशीनगर से ज्ञानप्रकाश गिरी, सिद्धार्थनगर से परमात्मा शुक्ला, संतकबीरनगर से शोभित पांडेय, बस्ती से धीरज पांडेय जी थे ही। इसके अलावा डेस्क पर रामरतन तिवारी, हरिशंकर त्रिपाठी, राकेश पांडेय, शरद पांडेय समेत आधा दर्जन लोग ब्राह़मण हैं। अब कमीने तुम बताओ कि वह जातिवाद करते हैं। लोगों को बताना जरुरी है कि तुम बहुत बड़े दारुबाज हो। दारु पीकर लिखते हो।

    नमन

  4. sujeet

    June 27, 2015 at 8:40 am

    Ajay Chaturvedi मित्रों ये है अमर उजाला गोरखपुर. यहाँ जान की भी कीमत नहीं. एक खुदगर्ज संपादक है जिसे मातहतोम नही सिंह बिरादरी से मतलब होता है. दोहरा जीवव जीता है.अनुज मित्र धीरज की जान यूं ही नही गई. अरे कोई संताप कैसे और कितने दिन झेल पाएगा. दुर्घटना तो लाजमी हैमैं समझ सकता हूँ कैसे धीरज जी रहा होगा. मैने भी झेला है. सौभाग्य या दुर्भाग्य मैं जिंदा हूँ. यह भी उसे पच नहीं रहा होगा .बात सिर्फ उस संपादक की नहीं. पूरा ग्रुप वैसा ही है. संस्थापक भी ऐसी कल्पना नहीं किये होंगे. मित्रों मैं अगर अमर उजाला न छोडता तो किसू दिन पंखे से झूलती मेरी लाश मिलती. मैने माँ की खतिर तबादला मांगा तोसमूह संपादक का जवाब था घर में प्रिंटिंग प्रेस खोल दें. सोच सकते हैं क्या गुजरी हेगी.मित्रों ये संस्थान अब जातिवादियों चाटुकारों का रह गयी है. समझ नहीं आता मालिकान की कान पर जूं क्यों नहीं रेंगती. वे तो ऐसे न थे.मित्रों साल बीत गया अगर धीरज का प्रसंग न आता तो मैं चुप ही रहता पर अनुज का इस तरह जाना विचलित कर गया. माफी उस परिवार से जिसने जवां पति अबोध कीछाया कैंसर पीडित पिता से कि मैंने हार क्यों मानी. कल्पना कर सकते हैं कि एक कैंसर पीडित पिता ने जवां बेटे की अर्थी कैसे उठाई होगी 5 साल के बेटे ने चिता को आग कैसे लगाई होगी.मित्रों मैं अब कुछ लिखने काबिल नहीं. प्रणाम. ईश्वर धीरज की आत्मा को शांति दें
    (अजय चतुर्वेदी के फेसबुक वाल से)

  5. वेद

    June 27, 2015 at 1:55 pm

    मिस्टर प्रभात मेरी जैसी कम उम्र में आप मीडिया मुग़ल रूपर्ट मर्डोक की कंपनी में काम नहीं कर पाये । भांग तो मैं खाता नहीं चंद घंटे दारू के नशे में ज़रूर रह ल हूं लेकिन आपने तो अंहकार के नशे में ज़िंदगी ही गुज़ार दी। रही बात मेरे इस्तीफे की तो उसकी छायाप्रति मैं कल घर पहुंचते ही सार्वजनिक कर दूंगा।अगली किश्त के लिए तैयार रहिएगा…

  6. अमित सिंह बरेली

    June 28, 2015 at 6:08 am

    संपादक होने के भ्रम में जो खुद के खुदा होने का गुमान पाले बैठे हैं, उनके
    डियर वेद रतन
    परभात के भ्रम को तोड़ना जरूरी है। इसे बताना जरूरी है कि तुम दरअसल दो कौड़ी के कैमरामैन हो. इससे ज्यादा कुछ नहीं.
    इतना तो जानता हूं कि कुछ न कुछ तो होकर रहेगा… जो कुछ भी हो, खामोश रहने से बेहतर है, अपनी बात दमदारी से कहना. कम से कम वो चेहरे तो बेनकाब होंगे जो आदर्श का खाल ओढ़कर और शब्दों का जाल बुनकर अपनी काली करतूतों को छुपाए फिर रहे है। वो सब कहिए पूरे तफसील और सिलसिले से…. जो छुपाया जा रहा है, सामने लाइए वेद जी। फिलहाल मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा……

  7. Arvind singh

    June 28, 2015 at 7:09 am

    वेद भाई आपने यूपी बोर्ड की हिंदी की किताब में वो कहानी पढी होगी रीढ की हड्डी प्रभात भी उसी कैटेगरी से विलांग करता है| हम लोगों के यहां एक कहावत प्रचलित है एक तो करेला ऊपर से नीम sqq इसमें करेला प्रभात सिंह तो था ही मृगांक नीम की शक्ल में आया और पूरी यूनिट को बर्बाद कर दिया इन दोनों ने कसम खा रखी है गोरखपुर यूनीट को बंद करा के मानेंगे

  8. Arvind singh

    June 28, 2015 at 7:19 am

    वो जातिवादी नहीं साला दोगला है।

  9. Navin

    June 28, 2015 at 7:29 am

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  10. Navin

    June 28, 2015 at 7:41 am

    धीरज हमें छोड़कर चले गए, अच्छा नहीं हुआ। इसका गम तो हर किसी को है। लेकिन मौत पर ब्राह्मणवाद विरोधी हायतौबा मचाने वाले वे कुत्सित मानसिकता के लोग हैं, जिनकी जिंदगी ब्राह्मणवाद मंे पली बढ़ी है। इनमें से अधिकतर पत्रकारिता में ब्राह्मणवाद के जरिए दाखिल हुए। नौकरी काम कम और इसके नाम पर चलाने की कोषिष वाले ये लोग हैं, जो दूसरी जाति के संपादक को पचा नहीं पाते। हिंदी पत्रकारिता में तो ब्राह्मणवाद पूरी तरह से हावी रहा है। दूसरी जाति के लोगों का इसमंें प्रवेष तो बमुष्किल मिल पाता है। यूपी की पत्रकारिता तो ऐसे ब्राह्मणवादियों के कारनानों से भरी पड़ी है। गोरखपुर में नंबर एक अखबार में तो ब्राह्मण के अलावा कोई दूसरा संपादक तो हो ही नहीं सकता। यहां एक संपादक की जब तूती बोलती थी, तो अखबार में दूसरी जाति के लोगों को नौकरी नहीं मिलती थी। कुछ उंगलियों पर गिने जाने वाले लोग मुष्किल से आ सके। लखनउ में भी यही हाल रहा। कहा जाता है कि ब्राह्मण लंगड़ा हो या कम पढ़ा लिखा, ऐसे ब्राह्मण संपादक उसे नौकरी दे देते थेे लेकिन दूसरी जाति को नहीं। एक वायका याद आ रहा है। पंजाब में अमर उजाला की एक यूनिट खुल रही थी। वहां के संपादक पूर्वांचल के ही एक ब्राह्मण बनाए गए थे। उन्होंने सिर्फ ब्राह्मणों को वहां पर नौकरी दी। जब उन पर इस तरह के आरोप लगे तो कुछ गैर ब्राह्मण लड़के खोजने लगे। एक व्यक्ति से ऐसे सब एडिटर की मांग की। तब उन्होेंने जवाब दिया, जब नीचे पदों पर अन्य जातियों को मौका देंगे, तब तो दूसरी जाति के सब एडिटर मिलेंगे। अमर उजाला के उस एडिषन का हाल क्या हुआ। ब्राह्मणों की फौज ने वहां ऐसे कारनामे किए कि अखबार चल नहीं सका। संपादक वहां से हटाए गए। ऐसी कहानियां हर एडिषन में मिल जाएगी। दरअसल इस समय जो ब्राह्मणवाद के नाम धीरज को प्रताड़ित करने का डंका पीट रहे हैं, दरअसल में वे बर्दाष्त नहीं कर पा रहे हैं, अन्य जाति के संपादक को। मजबूरी में हैं। भोजपुरी में ब्राह्मणों को लेकर एक कहावत है, बनल रहे तो सोटा, नहीं तो लोटा। प्रभात के बारे में ब्राह्मण विरोधी होने का आरोप जो लोग लगा रहे हैं, वे काम से ज्यादा ऐसी बातों में विष्वास करते हैं। मृगांक क्या कम ब्राह्मणवादी हैं, बस भोजपुरी की इस कहावत की तरह समय के मारे हैं। नहीं तो एडिटोरियल में अंदर ही अंदर ब्राह्मणवाद को प्रश्रय तो दे ही रहे हैं। पर खुलकर नहीं आ रहे। मौका मिला नहीं तो रंग बदलते देर नहीं लगेगी। इस जाति की फितरत ही ऐसी होती है।

  11. bed ratna shukla

    June 28, 2015 at 11:03 pm

    ब्राह्मणवाद जैसी कोई बात मैं कर नहीं रहा. मैं तो परभात के कारनामों को बता रहा हूं. दरअसल वह ब्राह्मण विरोधी हैं साथ ही चापलूसी पसंद हैं. चापलूसी में असफल व्यक्ति चाहे वह किसी जाति का हो को वह पसंद नहीं करते. यह स्थापित तथ्य है. बामुलाहिजा गौर फरमाएम कि वह आदमी बेकार हैं. दो कौड़ी के.

  12. Aman gambhir

    June 29, 2015 at 4:49 am

    ये फोटो ग्राफर प्रभात बरेली में भी ग़दर काटा था। गोरखपुर के पत्रकारों के बारे में बहुत सुना था कि वो अन्याय बर्दाश्त नहीं करते। लेकिन प्रभात के बिना पिटे इतने दिन राज कर लेना यह साबित करता है कि पूर्वांचल वालों का खून पानी हो चुका है। मित्रों जब नौकरी छोड़ने की नौबत आ ही जाए तो साले के केबिन में घुसकर तबियत से धुनों।

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