अरुण नैथानी-
अतुलनीय अतुल जी, सदा अहसासों मे…. एक चौथाई सदी बीतने को है, लेकिन हर दिसंबर आते ही अतुल जी याद आ जाते हैं। उनके आदेश पर अपना शहर रुड़की छोड़कर मेरठ चला आया था अमर उजाला का हिस्सा बनने के लिये। नवंबर 1992 में जब मैं उनसे मिला तो मैंने घर छोड़ने में असमर्थता जाहिर की थी। कहा था पिताजी चमोली में प्रधानाचार्य का दायित्व निभा रहे हैं बड़ा भाई विदेश में है, मुझे पारिवारिक दायित्व निभाने हैं। उन्होंने प्यार से झिड़का था तुम एक साल पहले भी यही कह गए थे मैं अपना शहर नहीं छोड़ना चाहता। पत्रकारिता में आगे बढ़ना है तो शहर तो छोड़ना पड़ेगा।
मैं हतप्रभ था कि क्षेत्र के प्रतिष्ठ समाचार पत्र के मालिक, जो रोज हजारों लोगों से मिलते है उसकी याददाश्त कितनी गजब है कि मुझ जैसे साधारण पत्रकार का मिलना उन्हें याद था। हालांकि, मुझे उन्हें पहचानने में दिक्कत हुई क्योंकि तब शायद किसी परिवारिक क्षति के कारण उन्होंने केश उतरवाए हुए थे। मैं उनसे मिलकर निरुत्तर था मगर वहीं अपना घर व शहर छोड़ने की टीस मन में थी।
उन दिनों पत्रकारिता के आदर्श पुरुषों का जज्बा मन में था। पत्रकारिता के शिखर पुरुष विष्णुराव पराडकर, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी आदि तथा इलाहाबाद से प्रकाशित स्वराज के पत्रकारिता के आदर्श उत्साहित करते थे। तब तक दिल्ली से 1985 में दयानंद अनंत जी के संपादन में प्रकाशित पर्वतीय टाइम्स, सीमांत वार्ता, दून दर्पण, के बाद पांच साल रुड़की से विश्वमानव के स्टाफर के तौर पर काम कर चुका था। हजारों लेख प्रकाशित हो चुके थे। यहां तक कि अमर उजाला के संपादकीय पेज और रविवारीय में छप चुका था। हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, जनसत्ता, साप्ताहिक हिंदुस्तान,पंजाब केसरी के संपादकीय पेज पर छप चुका था, मनोहर कहानी में भी एक कहानी छपी थी। आकाशवाणी का नियमित वार्ताएं नजीबाबाद से प्रसारित होती थी। लेकिन अब एक पत्रकारिता की नयी ट्रेनिंग लेनी थी। उन दिनों अमर उजाला में दो साल की ट्रेनिंग होती थी। वेतन लगभग उस वेतन का आधा था जो मैं विश्वमानव में समाचार,लेख व फोटो आदि के जरिये प्राप्त करता था। बहरहाल घर,शहर, विश्वमानव छोड़ने के बावजूद एक सुख था कि एक बड़े बैनर से जुड़ने का मौका मिल रहा था। विश्वमानव के कई मित्रों के पत्र उत्साहित कर रहे थे, जो इसे बड़ी सफलता मान रहे थे। तब के समाचार संपादक एस.पी. सिंह का पत्र मेरे पास आज भी है जिसमें उन्होंने इसे बड़ी सफलता बताया तथा साथ ही लिखा कि सफलता के बाद मुझे भूल न जाना।
बहरहाल, अतुल जी के आदेश पर मेरठ पहुंच तो गया लेकिन स्थितियां बड़ी विकट थी। यह रुड़की के जैसा साफ सथुरा नहीं था। रुड़की को भारत का वेनिस कहा जाता है, जिसे गंगा नहर बीच से विभाजित करती है। कर्नल कोटले की विरासत, एशिया का पहला इंजीनियरिंग कालेज, भूकप इंजीनियरिंग का एशिया का सबसे बड़ा केंद्र, राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान,केंद्रीय भवन अनुसंधान और गजनी युद्ध में गौरवशाली इतिहास रचने वाली सेना बंगाल इंजीनियर। जो इस शहर को आधुनिक व विकसित स्वरूप देती थे। उसका अनुराग व मित्रों का वह प्रेम मुझे पत्थरों के शहर चंडीगढ़ में आज भी अखरता है। वहीं व्यवहार के हिसाब से भी मेरठ के लोगों में एक विशिष्ट किस्म की आक्रमकता सी थी।
मेरठ पहुंचना एक दूसरे मायनों में भयावह था। मेरठ पहुंचने के कुछ ही दिन के बाद भारत के सामाजिक व राजनीतिक इतिहास को बदलने वाला घटना क्रम सामने आया। अयोध्या में विवादित ढांचे का ध्वंस हुआ और मेरठ में असमान्य स्थिति के कारण कर्फ्यू लग गया। मेरे लिये बड़ा संकट यह था कि मुझे खाना बनाना नहीं आता था। कानपुर से आए एक सहयोगी राजेंद्र पाण्डे के साथ पहली-पहली बार खिचड़ी बनाने की कोशिश की तो वह जल गई। इस तरह मैगी व रस चाय के भरोसे दिन कटने लगे।
वैसे मेरठ में गहरा ध्रुवीकरण था, अमर उजाला के पास जिस इलाके में रहता था, वहां कर्फ्यू के बावजूद भीतर गतिविधियां चलती रहती थी।
बहरहाल, अतुल जी की उपस्थिति संबल देती थी। उन्हें हम लोग भाई साहब कहते थे। यह भाई साहब हमारी जुबान में कुछ इस तरह चढ़ा कि दूसरे समाचार पत्रों में गया तो संपादक को भाई साहब ही कहता था। कई मायनों में अतुल जी विशिष्ट थे। भले ही वे एक बड़े अखबार के मालिक थे, लेकिन उनमें संपादकीय दृष्टि गहन थी। संपादकीय चर्चाओं में वे सजग व सतर्क रहते हैं। वे बहुत छोटी-छोटी चीजों को लेकर सचेतन रहते थे। उन्हें व्यक्ति की पहचान थी। वे जब भी मुझे मिले मेरठ आने के लिये कहा करते थे। इस बीच में बरेली अमर उजाला में वैकंसी निकली तो मैं उन दिनों अखबार में दखल रखने वाले वीरेंद्र डंगवाल जी के पास गया। सोचा था साहित्यकार हैं, हमारे उत्तराखंड के भाई बिरादर हैं, शायद बेरोजगारी काल में मदद करेंगे।
हमारे एक कॉमन रिश्तेदार की सिफारिश भी लगाई। वे इंटरव्यू बोर्ड में थे, लेकिन कवि हृदय न पसीजा। अतुल जी मिले और तुरंत ज्वाइन करने को कहा।
अतुल जी का खास गुण था कि सभी साथियों के सुख-दुख में शामिल होते थे। शायद वर्ष 1987 था, अतुल जी ने मेरठ की यूनिट खड़ी की थी। वे नयी टीम लेकर आए थे, उनके साथ ही गेस्टहाउस में रहते थे। हर व्यक्ति के व्यक्तित्व व परिवार को वे जानते थे। शुरुआती दौर में वे साथियों के पारिवारिक कार्यक्रम में भाग लेते थे। दुख में साथ खड़े होते थे। मुझे ध्यान है कि जब एक सड़क दुर्घटना में प्रिय नौनिहाल जी का निधन हुआ तो ब्रजघाट में ने न केवल अंतिम यात्रा में शामिल हुए बल्कि नौनिहाल जी की अर्थी को कंधा भी दिया।
बहरहाल, वे हर व्यक्ति के छोटे-छोटे व्यक्ति को सुनते थे। वे रिपोर्टरों को खासा सम्मान देते थे। शायद अमर उजाला की यह ताकत इसलिए थी कि किसी रिपोर्टर के साथ वे अन्याय नहीं होने देते थे। यह हकीकत है कि जिस भी समाचार पत्र में डेस्क निरंकुश व ताकतवर होती है, उस अखबार का विस्तार नहीं हो पाता। जब भी कोई रिपोर्टर अपनी शिकायत लेकर उनके पास आता था तो वह अतुल जी के सामने सीट पर बैठा होता था और डेस्क का व्यक्ति कटघरे में खड़ा रहता था। यही वजह थी कि अमर उजाला की मेरठ यूनिट तब सबसे कामयाब यूनिटों में शामिल थी। पंजाब, हिमाचल, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और नोयडा यूनिट में उन्हीं के संपादकत्व में मिले संस्कारों वाली टीम ने कामयाबी की नई इबारत लिखी।
उन दिनों अमर उजाला विस्तार के प्रयास में था। मेरी आदत थी कि मैं अतुल जी हर नये साल पर शुभकामना कार्ड भेजता था। एक बार मैंने एक सीट पर बैठे एक ऐसे शेर वाला कार्ड दिया, जिसमें लिखा था आई.एम रियली नंबर वन। मैंने उस ग्रीटिंग कार्ड का संपादन किया और अमर उजाला की यूनिटों के प्रकाशन के क्रम को उकेरकर दिल्ली शीर्ष पर लिखा कि शेर अब दिल्ली की तरफ बढ़ेगा। उसे देखकर अतुल खुशी से अपने कुर्सी से उठकर मुस्कराए थे।
मैं अकसर अतुल जी विभिन्न योजनाओं व विचारों से अवगत कराता था। समय-समय पर सुझाव को वे सुनते व देखते थे। हालांकि, उस समय न्यूज रूप में खासी घुटन थी और दुर्घटना से पत्रकारिता में आए कुंठित लोगों की भी कमी नहीं थी। जब वे तंग करते तो कभी आंसू छलक आते थे। दरअसल, पत्रकारिता के विश्वविद्यालय में प्राध्यापक छात्रों को पत्रकारिता के जो सब्ज-बाग दिखाते हैं, व्यावहारिक पत्रकारिता से उसका कोई सरोकार नहीं होता। संस्थागत रूप से अर्थशास्त्र में एम.ए करने, राजनीति शास्त्र में आनर्स करने, एम इतिहास व शिक्षा स्नातक की डिग्री पाने तथा पत्रकारिता पीजी डिप्लोमा करने के बाद डेस्क के लोग भाषा की अशुद्धियां दर्शाते थे। डेस्क पर तंग करने की खबर भी अतुल जी तक पहुंची तो उन्होंने आगरा घराने के समाचार संपादक को बुलाकर कहा, ‘अरुण संवेनशील है, हैंडल विद केयर।‘
एक बार उत्तराखंड आंदोलन के दौरान हुए रामपुर तिराहे के वीभत्स कांड के एक साल पूरे होने पर जब मैंने एक पेज का प्रारूप बनाकार उन्हें सौंपा। उन्हें कांड की बरसी पर एक विशेष पेज निकालने का सुझाव प्रारूप बनाकर दिया तो वे बहुत खुश हुए। दुर्भाग्य से वह ड्राफ्ट उन्होंने कानपुर घराने के समाचार संपादक को दे दिया। वो यह देखकर आग बबूला हो गया। मैं तब पत्रकारिता की संकीर्णताओं से वाकिफ न था। उसने न केवल धमकाया कि क्यों अतुल जी के पास चले गए बल्कि मेरे प्रमोशन को नुकसान पहुंचाकर निचला ग्रेड दिला दिया। उसके बाद मैं दुखी होकर फीचर में चला गया। फिर भी उस समाचार संपादक का मन नहीं भरा। उत्पीड़न करने के लिये उसने फिर न्यूज रूम में लाने की कोशिश की।
लेकिन तब तक धर्मयुग में आदरणीय धर्मवीर भारती जी के सहयोगी रहे, गुड़िया के संपादक व स्वतंत्र भारत आदि के फीचर संपादक रहे आदरणीय योगेंद्र कुमार लल्ला जी फीचर संपादक होकर आ चुके थे। जब वो समाचार संपादक मुझे वापस लेने की दलील के साथ आया तो लल्ला ने जी हड़काया- ‘ये गड़बड़ मत करो’ अतुल जी का बडप्पन देखिए जब बाद में प्रमोशन होने पर उन्हें धन्यवाद करने गया तो उन्होंने कहा- ‘धन्यवाद नहीं एक गलती को सुधारा गया है।’
अतुल जी की संपादकीय दृष्टि गहरी थी और फीचर के प्रति उनका लगाव खास था। उन दिनों डॉ. राधेश्याम शुक्ल से संपादकीय पेज देखते थे। उनका मैं सदा ऋणी रहूंगा कि अमर उजाला में आने से पहले और बाद में उन्होंने संपादकीय पेज पर मेरे सैकड़ों लेख छापे। अतुल जी को फीचर के पन्नों से खास लगाव था। एक समृद्ध फीचर विभाग था। फीचर के उस्ताद नरेंद्र निर्मल ,जो फिल्म पत्रकारिता के दिग्गज होने के साथ एक बहुत अच्छे इंसान भी थे। उन्हें फीचर की गहरी समझ थी। अमर उजाला से जाने के बाद उन्होंने जागरण व हरि भूमि में फीचर संपादक की मिसाल कायम की। उस टीम में जिंदादिल, दिंगबर, बेबाक और बहुत आत्मीय हरिशंकर जोशी का सानिध्य मिला। उन्होंने रविवारीय मैगजीन में दर्जनों कवर स्टोरी और सैकड़ों फीचर छापकर मेरी घुटन को दूर किया। उन्होंने मुझे खुले रूप में मैगजीन, व्यंग्य व साहित्य पेज के संपादन की पूरी आजादी दी। पुस्तक समीक्षाएं लिखने को दी। साहित्यकारों के साक्षात्कार करने का मौका दिया।
आर्ट डायरेक्ट सुशील राणा बेबाक व प्रेमिल व्यवहार याद आता है। उसके बाद भी अतुल जी लगातार फीचर पेजों में बदलाव करते रहे। उन्होंने उस दौर में नरेंद्र निर्मल जी को लगातार मुंबई भेजा ताकि विशिष्ट फिल्मी स्टोरी की जा सकें। मुझे याद है कि तब के तमाम दिग्गज फिल्मी सितारे मनोरंजन में छपने को आतुर रहते थे और माधुरी दीक्षित आदि तमाम सितारे निर्मल जी के साथ हॉट लाइन पर रहते थे। लेकिन निर्मल जी ने फिल्मी पीआरओ को कभी घास नहीं डाली।
लल्ला जी के साथ काम करने मे बड़ा आनन्द आया । कभी लगा नहीं कि हम इतने बड़े संपादक के साथ काम कर रहे हैं। बेहद पिता तुल्य और बेहद आत्मीय। धीर भी, गंभीर भी। तमाम दिग्गज साहित्यकार हमारे फीचर सेक्शन में आते थे। कमलेश्वर जी उनके खास मित्रों में थे। कभी कमलेश्वर जी, अरविंद कुमार जी, सेरा यात्री जी आदि की लंबी सूची है। उन दिनों प्रसिद्ध व्यंग्यकार रवींद्रनाथ त्यागी का इंटरव्यू करने उन्होंने मुझे 1997 में देहरादून भेजा। त्यागी जी बहुत खुश थे। बेबाकी में बहुत खुश हुए तो बहुत कुछ कह गये। मैंने साक्षात्कार टेप किया था और जस का तस छाप दिया।
कमलेश्वर और राजेंद्र यादव विवाद पर उनकी बेबाक टिप्पणी थी जो जस की तस छप गई। बाद में त्यागी जी ने लल्ला जी को खत लिखा – ‘अरुण ने टेप के जरिये संगीन शरारतें की हैं।’ लेकिन लल्ला जी ने मुझे कुछ नहीं कहा। एक दिन सफाई के दौरान वह पत्र मेरी नजर में आया। मैंने सोचा कि जिस बात पर मेरे बाद केआगरा-कानपुर घराने के संपादक मैमो दे देते थे, उस बात को लल्ला जी ने किस धीर-गंभीरता के साथ नजरअंदाज कर दिया। वे अपने सहयोगी को हमेशा संबल देते थे।
अतुल का एक बड़ा गुण था कि वे अपने सहयोगियों की मेधा को कुंठित नहीं करते थे। अमर उजाला ज्वाइन करने के दौरान मेरे तमाम लेख नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, जनसत्ता, साप्ताहिक हिंदुस्तान, संडे मेल, पंजाब केसरी आदि में छपते रहे थे। यहां तक कि अमर उजाला के प्रतिद्वंद्वी दैनिक जागरण में वे लेख भी छपते रहे जो मैंने अमर उजाला ज्वाइन करने से पहले भेजे थे। यहां तक कि एक बार एक कमाल हुआ कि वर्ष 1997 के आसपास अमर उजाला के रविवारीय में बाल श्रम पर छपी पूरे पेज की कवर स्टोरी जस की तस जागरण झांसी में छप गई। फिर मुझे सफाई देने अतुल जी के कमरे में जाना पड़ा। उन्होंने सहजता से कहा कि ये लोग कभी-कभी ऐसा करते हैं।
मैं अतुल जी का इस बात के लिये सदा सम्मान करता हूं कि उन्होंने एक पत्रकार की मौलिक प्रतिभा को सदा प्रोत्साहित किया। उन्हें व्यक्ति के बारे में इतनी गहरी समझ थी कि मेरे प्रिय मित्र और मेरे सहपाठी मुकेश अग्रवाल को उन्होंने अपनी विशिष्ट टीम में शामिल किया। भगवानपुर जैसी छोटी जगह में रिपोर्टर का दायित्व देख रहे एक बेहद ईमानदार व मेहनती मुकेश को उन्होंने अपना दाहिना हाथ बनाया। एक बार ऐसा समय आया कि पिछली सदी में अतुल जी ने प्रिय मुकेश की तनख्वाह दस हजार के करीब बढ़ाने की बात कही तो मुकेश ने कहा मुझे जो मिल रहा है, वह बहुत है। मुकेश के संपन्न व संस्कारित परिवार के सदस्य थे। बाद में मुकेश ने अमर उजाला छोड़ दिया और राष्ट्रीय सहारा में जीएम हो गये। उस दिन मेरी खुशी का पारावर न रहा जब प्रिटं लाइन में मुकेश का नाम छपने लगा। ऐसे आदर्श मित्र पर मुझे सदा नाज रहा है।
अतुल जी ने मुझे बड़े दायित्व भी दिये। मुझे याद है उन्होंने वर्ष 1998 में गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर के पत्रकारिता विभाग के दो पेपर सेट करने को दिये और उसके बाद पूरे विश्वविद्यालय की कापी जांचने भी दी। तमाम दिग्गजों के बीच मुझे यह दायित्व मिलना मुझे उत्साह से भर गया। उन्होंने मुझे एक संदिग्ध रिपोर्टर की जांच करने के लिये नगीना जाने का मौका दिया। वहीं जब पंजाब में अमर उजाला लांच किया तो सर्वे का संपादन करने वाली टीम में मैं शामिल था।
वर्ष 2000 में मैंने अमर उजाला तब छोड़ा जब फीचर विभाग को दिल्ली भेजने की तैयार थी। उन्होंने मुझे कई बार कहा कि क्यों ट्रिब्यून जा रहे हो। मैं तुम्हारी पत्नी की नौकरी लगवा देता हूं ,जिसने बीएड किया है। बाद में कहा कि चंडीगढ़ जाने का मन है तो अमर उजाला चंडीगढ़ ज्वाइन कर लो। बाद में यहां तक कहा कि कोठी पर आना बात करेंगे। वे बहुत कम लोगों को अपने घर बुलाते थे।
शायद यह 2005 था जब अतुल जी ने मुझे फिर मेरठ बुलाया। उन्होंने मुझे शिमला में ब्यूरो चीफ होने का प्रस्ताव दिया। मैं मेरठ गया भी लेकिन तब तक स्थितियां बदल रही थी। निर्णय न ले पाया। आज अतुल जी हमारे बीच में नहीं है। उनके नये साल के पत्र मुझे उनकी याद दिलाते रहते हैं। उनकी स्नेह और बड़े भाई जैसे संपादक की स्मृतियां सदा साथ रहती हैं। उनकी याद सालों साल सालती रहेगी। पुण्य स्मरण।