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अयोध्या कांड न्याय पर टेलीग्राफ का पहला पन्ना न देखा तो क्या देखा

कोलकाता से प्रकाशित टेलीग्राफ अखबार अपने संपादकीय प्रयोगों के लिए जाना जाता है।

अयोध्या कांड पर अदालती फैसले के बाद इस अखबार ने जिस तरह से पहले पन्ने पर खबर को पेश किया, वह काबिल ए तारीफ है।

विवादित धर्मस्थल को तोड़े जाने के मामले में सभी आरोपियों को बरी किए जाने के बाद हर कोई अपने अपने तरीके से इस फैसले की व्याख्या कर रहा है।

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टेलीग्राफ अखबार ने अपने तरीके से इस खबर को पेश किया है।

इस प्रकरण पर वरिष्ठ पत्रकार दिनेश जुयाल की के टिप्पणी देखें-

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तो बंद कर दो ये अखबार…. बाबरी में सब बरी यकीनन ये बड़ी खबर थी। इस पर कुछ अखबारों ने कई पन्ने भी समर्पित किये हैं। चित भी मेरी पट भी मेरी स्टाइल में काफी कुछ लिख डाला। उत्तर भारत खास कर दिल्ली यूपी के अखबारों में अपनी अपनी टोन भी है।

इंडियन एक्सप्रेस के शीर्षक में एक सरोकार भी दिख रहा है, समय की एक ध्वनि है। साथ में इस प्रकरण को देख चुके जस्टिस लिब्राहन का बयान भी, जो इसे न्याय नहीं मान रहे। टेलीग्राफ ने तो गधे का चित्र छाप कर लिख दिया कि यदि हम अचंभित हैं तो हम ये हैं। यानी गधे।

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यह टिप्पणी जैसा शीर्षक पत्रकारिता के ऐसे तेवर पर सवाल उठाने वाला हो सकता है लेकिन अगर एक अखबार इस तेवर में आ गया है तो ये गोदी मीडिया के बैनर तले आने वाले सभी मीडिया घरानों और उनके सरपरस्तों के लिए अशुभ भी है।

दरअसल आज बात मैं उस खबर की करना चाह रहा हूँ जो मुख्यधारा के मीडिया में खो सी गई। है भी तो धो दी गई। ये बलात्कार पीड़ित दलित लड़की की लाश को पुलिस द्वारा लावारिश की तरह खेत में फूंक देने की है। वो भी आधी रात को। धार्मिक परंपरा के भी खिलाफ। पुलिस के घेरे में जलती चिता, उसकी माँ का आर्तनाद, मीडिया वालों की पुलिस से बहस , दिन भर ये सब सोशल मीडिया पर देखा।

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उस अफसर का क्रूर चेहरा भी सामने आया जो अब भी इसे बलात्कार नहीं मान रहा। जो पुलिस ने किया उस पर कुछ कहने की बजाय अहसान सा जताते हुए मुआवजे की रकम बात रहा है।पुलिस की दंगे की कांस्पीरेसी थ्योरी भी सुनी। निर्भया कांड पर रो चुका ये देश इस नई निर्भया की पीड़ा पर खूब रो चुकने के बाद सरकार की संवेदनहीनता और बेरहमी पर गुस्से से उबल रहा था।

सुबह नवभारत टाइम्स के अलावा दिल्ली और यूपी के प्रमुख अखबारों में इस बर्बरता की खबर को पहले पेज पर जगह तक नहीं मिली। अंदर जगह मिली तो पुलिस और सरकार की अमानवीयता की नहीं उनकी कृपा की खबर थी।

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कोई लिख रहा है कि सरकार ने 25 लाख दे दिए कोई एसआईटी की जांच पर शीर्षक लगाता है। वो सरकार और उसकी पुलिस पर सवाल उठाने की हिम्मत नहीं कर पाते। टाइम्स और उनके हिंदी अखबार के अलावा कोई इसे संपादकीय का विषय भी नहीं समझता। इसके उलट कोलकाता, मुम्बई,और चेन्नई में ये खबर पहले पेज पर जगह पा जाती है।

योगी , मोदी और उनके लोगों से डरे हुए हे मालिको! हे संपादकों! हे क्रांतिकारी पत्रकारों! जब आपकी संवेदना इस कदर मर चुकी है दो बंद करो न ये दुकान। जब खबरों के चयन में भी हाथ कांप रहे हैं तो पकोड़े तलने की नौकरी ढूंढो न यार!

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हाथरस के उन पत्रकारों का शुक्रिया जो मौके पर पुलिस और डीएम से सवाल कर रहे थे, जिन्होंने ईमानदारी से अपनी रिपोर्ट भी भेजी। मुख्य हैडिंग जो भी रहा हो उनमें से कुछ की खबर छपी भी है।

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