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सुख-दुख

कोई ईश्वर नहीं है… इस क्रूर और तटस्थ यूनिवर्स में आप पूरी तरह से अकेले हैं!

सुशोभित-

धर्म और ईश्वर की उत्पत्ति कैसे हुई?

सोचिये, सोचिये। आज फ़ुरसत निकालकर यही काम कीजिये। मालूम कीजिये कि यह सब तमाशा कहाँ से शुरू हुआ। आप अपने आसपास जितनी भी चीज़ें देखते हैं, एक समय वे नहीं थीं। हर गंगा की एक गंगोत्री होती है। हर वस्तु और विचार का एक उद्गम होता है। पता कीजिये यह धर्म और ईश्वर कहाँ से आए?

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आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि जब मनुष्यजाति इस पृथ्वी पर अस्तित्व में आई और उसने आँखें खोलकर अपने आसपास देखा तो उसने जंगलों को पाया, समुद्रों को, पहाड़ों को- लेकिन एक भी मंदिर यहाँ मौजूद नहीं था!

तमाम मंदिर मनुष्यों ने ख़ुद बनाए। तमाम पवित्र किताबें मनुष्यों ने ख़ुद रचीं। तमाम ईश्वर मनुष्यों ने ख़ुद गढ़े। मनुष्य से पहले किसी भी धर्म और किसी भी ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं था। मनुष्य ईश्वर का सृष्टा है, जन्मदाता है।

अगर सच में ही कहीं कोई ईश्वर होगा, तो मनुष्य की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करता होगा कि “हे मनुष्य, तूने मेरी सृष्टि करी!”

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मनुष्य ने ईश्वर को क्यों बनाया? क्योंकि मनुष्य एक सीधी-सी बात कहने में असमर्थ है- “मुझे नहीं पता!”

मनुष्य हज़ार झूठ गढ़ लेगा, लेकिन ये एक बात नहीं कह सकेगा। पर मनुष्य को सच में ही कुछ पता नहीं है। उसे नहीं पता कि जन्म से पहले वह क्या था और मृत्यु के बाद वह क्या होगा। था भी या नहीं, या होगा भी या नहीं? क्या सच में ही कोई आत्मा है, कोई चैतन्य तत्व है? संसार को कौन संचालित कर रहा है? संसार की रचना कैसे हुई और क्यों हुई? मनुष्य के जीवन का क्या प्रयोजन है? कुछ लोग सुख क्यों पाते हैं, वहीं कुछ लोग आजीवन कष्ट क्यों सहते हैं? कुछ स्वस्थ क्यों जन्मते हैं, कुछ विकृत क्यों पैदा होते हैं? कुछ बुद्धिमान तो कुछ मूर्ख क्यों हैं? क्या सच में ही कोई कर्म-सिद्धांत है, जो पाप-पुण्य का हिसाब करता है? अगर हाँ तो यह हिसाब किस बही-खाते में रखा जा रहा है?

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मनुष्य को इनमें से किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं पता है। पर “नहीं पता है”, यह कहने में उसके अहंकार को चोट लगती है। इसलिए वह कहता है कि ईश्वर यह सब करता है। ईश्वर उसके अहंकार की तुष्टि का एक साधन है। ईश्वर के माध्यम से मनुष्य यह कहना चाहता है कि “मुझे सब पता है!”

धर्म और ईश्वर का अहंकार से बड़ा गहरा सम्बंध है। इसीलिए धर्म और ईश्वर युद्ध करवाते हैं, उपद्रव करवाते हैं, हिंसक हैं। “ख़बरदार, जो तुमने हमारे ईश्वर को कुछ कहा, गरदन काट देंगे!”

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जिस भी व्यक्ति में बुद्धि है, वह दिन की रौशनी की तरह साफ़ इस सच को देख सकता है कि धर्म और ईश्वर का सीधा सम्बंध अहंकार से है। मेरा धर्म, मेरी जाति, मेरा समुदाय, मेरा ईश्वर , मेरा पैग़म्बर! यहाँ पूरा ज़ोर ‘मेरे’ पर है। ईश्वर मनुष्य के बेमाप अहंकार का विस्तार है!

इसके अलावा, ईश्वर भय की उत्पत्ति है। डर ईश्वर का पिता है। बादल गरजते थे, बिजली कड़कती थी, जंगलों में आग की लपटें उठती थीं, भूकम्प आते थे- मनुष्य भय से थर-थर काँपता था। उसने पूछा, यह सब कौन करवाता है? फिर स्वयं ही इसका उत्तर दिया कि यह सब ईश्वर कर रहा है। क्योंकि प्रश्नों के साथ जीवित रहने की क्षमता मनुष्य में नहीं है। उसे उत्तर चाहिए। फिर चाहे कितने ही थर्ड क्लास उत्तर हों, घटिया समाधान हों, सस्ते उपाय हों- पर प्रश्नों के साथ वह जी नहीं सकता।

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तो मनुष्य ने उत्तर दिया, यह सब ईश्वर करता है। फिर पूछा गया कि हम क्या करें, जो ईश्वर यह सब नहीं करे? मनुष्य की बुद्धि से उत्तर आया, जो करने से हमें अच्छा लगता है, वही हम अगर ईश्वर के लिए करें तो ईश्वर भी प्रसन्न होगा। कैसे प्रसन्न होगा? ईश्वर के अहंकार को सहलाओ, उसकी पूजा करो, उसको पशुओं की बलि दो, उसके सामने भोग लगाओ, शीश नवाओ। मनुष्य ने सोचा कि अगर कोई मेरे सामने शीश नवाए तो मुझे कितना अच्छा लगेगा? तब तो यह ईश्वर को भी अच्छा लगना चाहिए (ईश्वर की यह एंथ्रोपोमोर्फ़ीक कल्पना देखते हैं!)। उसने ईश्वर के सामने शीश नवाया और कहा, अब मेरा ध्यान रखना, बेटे की नौकरी लगवा देना, बेटी की शादी करवा देना, घर में धन-सम्पदा भर देना, सबको सुखी-नीरोगी रखना।

ईश्वर का यही सब काम-धंधा है- शादियाँ करवाना, नौकरियाँ लगवाना, धन-दौलत देना, सुख-समृद्धि देना। जिस दिन ईश्वर यह नौकरी करने से इनकार कर देगा, मनुष्य उसको कूड़े के ढेर में फेंक देगा!

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तमाम धर्मों की एक ही रट है- फलाँ चीज़ें करो, फलाँ फल मिलेगा। मनोकामना सिद्ध होगी। पुण्य मिलेगा। दूसरी दुनिया में ये सब सुख प्राप्त होंगे। अगर आप इन विचारों की उत्पत्ति की पड़ताल करें तो पाएँगे कि इनके पीछे किसी न किसी शातिर इंसान का दिमाग़ काम कर रहा है, जो जानता है कि मनुष्य लालच के सामने बेबस है। ईश्वर मनुष्य के शातिर दिमाग़ की उपज है।

तो ईश्वर का जन्म अहंकार से हुआ, भय से हुआ और लोभ से हुआ- इतनी नकारात्मक वृत्तियों से जो वस्तु पैदा हुई, वह शुभ कैसे हो सकती है?

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और मनुष्य ने ईश्वर को बनाया- संगठन के लिए। एकता के लिए। मनुष्यजाति विभिन्नताओं से भरी है और कोई दो लोग किसी बात पर एकमत नहीं हो सकते। इसके लिए एक बड़ी कल्पना की ज़रूरत थी। लौकिक नहीं पारलौकिक कल्पना। अगर मैं कहूँ कि मेरी बात मानो तो कोई नहीं मानेगा। अगर मैं कहूँ कि यह ईश्वर का निर्देश है, तो सब मान बैठेंगे। ईश्वर के संदेशवाहक आए, जिन्होंने ईश्वर के काल्पनिक निर्देशों को किताबों में दर्ज़ किया। राजा ईश्वर का स्वघोषित प्रतिनिधि बन गया। यह अकारण नहीं है कि आज भी राजा-लोग ईश्वर का हवाला देते हैं, मंदिर वग़ैरा बनवाते हैं, धार्मिक क्रियाएँ करते हैं। क्योंकि ईश्वर लोगों को जोड़ता है और राजनीति में लोगों को जोड़ने का मतलब है- बहुमत से चुनावी जीत!

जिस दिन ईश्वर चुनाव जिताना छोड़ देगा, नेता लोग उसको घूरे पर रख देंगे!

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एवोल्यूशन के सिद्धांत से ईश्वरप्रेमी-राजनीति का झगड़ा भी इसीलिए है कि एवोल्यूशन कहती है जैविकी का क्रमिक विकास हुआ है, मनुष्यों को किसी ने रचा नहीं है। नियम है, पर नियंता नहीं है। एवोल्यूशन ईश्वर को निरस्त करती है। यही कारण है कि सत्ता में बैठे हुए ईश्वर के चाटुकार एवोल्यूशन का चैप्टर स्कूल की किताबों से हटा देते हैं। बिलकुल स्वाभाविक है। अपने अस्तित्व पर ख़तरा उत्पन्न करने वाली बातों को कौन प्रश्रय दे?

यह सत्ता, अहंकार, डर और लालच का घालमेल- जिससे ईश्वर की उत्पत्ति हुई- इसको आप पवित्र कहते हैं?

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मनुष्यजाति सत्य के साक्षात् से एक त्रासदी दूर है। एक महाविपदा आएगी और यह ईश्वर हवा की तरह विलीन हो जाएगा। दो साल पहले महामारी आई थी, तब सबसे पहले धर्म और ईश्वर छुट्‌टी पर चले गए थे। आपको क्या लगता है, पूजा-पाठ करने वालों की जान तब ईश्वर ने बचा ली थी?

एक न एक दिन मनुष्यजाति दिन की रौशनी की तरह इस सत्य का साक्षात् करेगी कि धर्म और ईश्वर ह्यूमन-कंस्ट्रक्ट हैं। मानव-निर्मित संरचनाएँ हैं। और विपदा में ईश्वर आपकी मदद करेगा, यह ख़ुशफ़हमी वैसी ही है, जैसी नमक के पुतले को लेकर समुद्र में कूद जाना और यह उम्मीद करना कि वह आपको डूबने से बचा लेगा।

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कोई ईश्वर नहीं है! कोई आपकी रक्षा नहीं करेगा! इस क्रूर और तटस्थ यूनिवर्स में आप पूरी तरह से अकेले हैं!

अगर आपमें इस सच का सामना करने की हिम्मत नहीं है तो भजन कीजिये और नमाज़ पढ़िए। धर्म की अफ़ीम काम की चीज़ है। यह ब्लडप्रेशर को नियंत्रित रखती है। अलबत्ता वह काम तो कोई गोली-दवाई भी कर देगी, उसके लिए ईश्वर की क्या ज़रूरत?

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अध्यात्म की मूल स्थापना यह है कि मनुष्य के भीतर एक ऐसा चैतन्य तत्व होता है, जिसकी कोई मृत्यु नहीं होती। वह तत्व देह की मृत्यु के उपरान्त भी अपनी यात्रा जारी रखता है। इस तरह से अनेक जन्म होते रहते हैं। अगर आपमें उस चैतन्य का बोध उत्पन्न हो जाए- जो कि अपने विचारों, भावनाओं, कल्पनाओं, इच्छाओं और अहंकार से स्वयं का तादात्म्य तोड़ लेने से होता है- तो आप स्थितप्रज्ञ हो जावेंगे। यह अध्यात्म का थ्योरिटिकल फ्रैमवर्क है। इसकी मुझे निजी अनुभूति नहीं है, पर पुस्तकों में जो पढ़ा वह बता रहा हूँ। धर्म के पूजा-पाठ, व्रत-त्योहार, ईश्वर-अवतार से लाख गुना आगे की विकसित बात है यह।

जब ईश्वर है ही नहीं तो किस बात की मूर्ति, किस बात का कर्मकाण्ड और किस बात का त्योहार? यह तो झूठ का पुलिंदा हो गया ना। पहले ईश्वर तो हो, उसके बाद धर्म की रचना हो। अगर सच में ही ईश्वर होता तो क्या आज संसार में इतना पाप हो रहा होता? मेरी बड़ी कामना है कि एक सर्वशक्तिमान ईश्वर आकाश में बैठा हो और मनुष्यों को नियंत्रित करे। पापी को तुरंत दण्ड मिले। माँसभक्षी को तुरंत सज़ा मिले। सभी प्राणियों को समान अस्मिता से जीने की आज़ादी हो। अपराधी को पुरस्कार और नेक को दु:ख न मिले। ईश्वर यह सब देखे, हिसाब रखे, एक अच्छे प्रशासक की तरह व्यवस्था बनाकर रखे। पर अफ़सोस कि कोई ईश्वर नहीं है, काश कि ईश्वर होता। तो आज सभी प्राणी अनाथ नहीं होते, कोई परमपिता होता देखने वाला।

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मुझे बिलकुल नहीं पता किसी के साथ अच्छा किसी के साथ बुरा क्यों होता है। मैंने यहाँ नीचतम लोगों को सुख भोगते और नेक लोगों को कुचले जाते देखा है। कर्म-सिद्धांत में मुझे विश्वास नहीं, क्योंकि उसका प्रमाण मेरे पास नहीं। कर्म-सिद्धांत के अभाव में ईश्वरीय व्यवस्था का तर्क अराजक हो जाता है। इसके बावजूद इंसान को तो नेक कार्य ही करने चाहिए। ईश्वर के कहने पर नेक काम किया तो क्या ख़ाक नेक काम हुआ। स्वर्ग के लोभ और नर्क से डर से नेक बने तो क्या ख़ाक नेक बने।

मनुष्य की बुद्धि इतनी कुंद है और उसने धर्म और अध्यात्म का घालमेल कर दिया है। उसे यही नहीं पता कि दोनों में ज़मीन आसमान का भेद है। इसलिए ईश्वर पर प्रहार करने पर मनुष्य चेतना, ऊर्जा, अंतर्यात्रा, आयामों आदि की बात करने लगते हैं, जो कि अध्यात्म के अंग हैं। जबकि धर्म के अंग हैं मूर्ति, मंदिर, पंडित-पुरोहित, कर्मकाण्ड, व्रत-नियम, पर्व-त्योहार और संगठन। धर्म एक संगठित सत्ता है और इसीलिए राजनीति के काम की है और इसीलिए हिंसक है। जबकि अध्यात्म का संगठन से कोई लेना-देना नहीं, वह वैयक्तिक यात्रा है। गौतम बुद्ध से बड़ा आध्यात्मिक शिक्षक कौन हुआ? और गौतम बुद्ध ने ईश्वर से इनकार किया। उन्होंने कर्मकाण्डों पर प्रहार किया और वैदिक धर्म पर प्रश्न उठाए। इसके बाद उन्होंने अपने धम्म की स्थापना की, जिसमें कोई मूर्ति नहीं थी, कोई पूजा नहीं थी, केवल ध्यान था, आत्मप्रकाश था और निर्वाण था। जो भी धर्म को अध्यात्म समझकर भ्रमित होता है, उसकी दुविधा का निवारण करना भी एक धर्म का काम है।

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यह बाल की खाल भी हमारे यहाँ बहुत चलती है। धर्म कहें या पंथ कहें? धर्म कहें या सम्प्रदाय कहें? हिन्दू धर्म है या जीवनशैली है? सिंधु के पार रहने वाले सभी हिंदू हैं? मैं आपसे कहता हूँ, जब किसी परचे में रिलीजन का कॉलम होता है तो उसमें हम क्या लिखते हैं? वहाँ पर रिलीजन के बजाय सेक्ट या कम्युनिटी क्यों नहीं लिखा होता है आदि इत्यादि। युद्ध धर्म के लिए होता है या सम्प्रदाय के लिए? ख़तरे में धर्म आता है या सम्प्रदाय? पहले हम जनता को राज़ी कर लें कि धर्म और सम्प्रदाय में भेद करना सीखें। मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह है कि जो भी व्यक्ति इस तरह की बात करता है कि पंथ और धर्म और सम्प्रदाय में भेद है, वह मूल बुराई से ध्यान भटकाने की कोशिश करता है और वह है ऑर्गेनाइज़्ड रिलीजन- जो कि हिन्दू धर्म नहीं है, पर लगातार बनाया जा रहा है अब्राहमिकों से संघर्ष करने के लिए। भारत में रहना है तो राम-राम कहना होगा- ये ऑर्गेनाइज़्ड रिलीजन की भाषा है, यही धर्म भी है, यही सम्प्रदाय भी है, यही पंथ भी है। बस यह अध्यात्म नहीं है। अब कृपया यह न कहें कि धर्म तो स्वभाव होता है, जो हम धारण करते हैं वह धर्म होता है आदि इत्यादि। कोई भी यह बातें सोचता नहीं है। धर्म को जनता एक आइडेंटिटी के रूप में लेती है और हिंदू एक आइडेंटिटी है। मैं उसी की बात कर रहा हूँ।

पूरी सृष्टि हरगिज़ व्यवस्थित नहीं चल रही है। घोर अराजकता है। ग्रहों के अपनी धुरी पर घूमने से होने वाले दिन-रात, सर्दी-गर्मी को ही व्यवस्था नहीं कहते। व्यवस्था एक नैतिक अनुक्रम भी है। इसके स्तर पर संसार में शून्य व्यवस्था है। कोई नियंत्रण नहीं है। पापी को पूरी छूट है। पुण्यात्मा कष्ट सहता है। जानवरों को फ़ैक्टरियों में पैदा करके मारा जा रहा है जो कि मौजूदा समय की सबसे बड़ी त्रासदी है। अगर कोई यह सब कर रहा है तो या तो वह राक्षस है और अगर ईश्वर है तो बहुत ही घटिया मैनेजर है, उसको सस्पेंड कर देना चाहिए।

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नाम दे दिया गया है, चित्र बना दिया गया है, मंदिर उठ खड़ा हुआ है, किताब लिख दी गई है- अब आप लाख कहते रहें कि कुछ तो होगा, उन्होंने मान लिया है कि क्या है। न केवल माना है, उस मान्यता के आधार पर हिंसा कर रहे हैं। अगर पूरी दुनिया के लोग इस बात पर एकमत हो जाएँ कि ब्रह्मांड को कोई तो शक्ति चला रही है पर वो क्या है ये हमको पता नहीं और जब तक पता नहीं चलेगा तब तक धर्म स्थगित, तो मैं संघर्षविराम की घोषणा कर दूँगा। पर धर्मालुजन और ऐसी बुद्धिमत्ता की बात कह दे? सम्भव ही नहीं।

ईश्वर में आस्था तो तभी रखी जाएगी ना, जब ईश्वर होगा। मुझे आस्था रखने से आपत्ति नहीं है, बशर्ते ईश्वर हो। मुझे वृक्षों से प्रेम है, गायों से प्रेम है, सात्विक भोजन से प्रेम है, सुथरे वस्त्रों से प्रेम है। मेरे हृदय में बहुत सारा प्रेम और बहुत सारी आस्था है। पर मैं शून्य में आस्था नहीं रख सकता। मुझे ईश्वर का रूप दिखाओ, तब मैं आस्था करूँगा। दूसरे, धर्म एक संस्था है, जो लोगों को संगठित करती है। उसमें राजनीति है, सत्ता है, क्रूरता है, विचारहीनता है, उसमें आडम्बर है। वह बुराई का अड्‌डा है और ईश्वर उसके केंद्र में बैठा हुआ है। मैं जानना चाहता हूँ कौन है यह ईश्वर? कैसा है, कहाँ है और क्या है? इसको जाने बिना मैं मानूँगा नहीं। लोग क्या मानते हैं, इसका महत्व नहीं है। आज से पांच सौ साल पहले सब लोग मानते थे कि पृथ्वी चपटी है और सूर्य हमारा चक्कर लगाता है। ऐसे ही लोग मानते हैं कि ईश्वर है। लोगों के मानने से क्या होता है। यह तो बहुत कमज़ोर मनोबल का परिचायक होगा कि हम कहें अतीत में इतने लोग मानते थे तो हम भी मान लें। अतीत में इतने लोगों ने भोजन किया था, क्या उससे हमारा पेट भी भर गया है?

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यानी ईश्वर की कल्पना इसलिए की गई ताकि लोग खुश रहें? फीलगुड है ईश्वर? या चूंकि सभी लोग बुद्धिमान नहीं हैं इसलिए उनको ईश्वर दे दिया जाता है? क्या यही धर्म का प्रयोजन है? कितने लोग इस बात को खुलकर कहेंगे आस्तिकों के सामने, जो आप यहां दबे छुपे कह रहे हैं। कम्युनिस्टों ने लोगों को मारा, उससे ज़्यादा ईश्वर को मानने वालों ने मारा। न मैं कम्यूनिस्ट हूं न ईश्वर को मानता हूं। आप मेरी बात कीजिए। दूसरों पर मत जाइए। मैं ईश्वर को नहीं मानकर भी अहिंसक, नैतिक, सत्यभाषी ओर ईमानदार हूं, जबकि कई ईश्वर को मानने वाले घोर नीच, क्रूर, हिंसक और झूठे हैं। इसका समाधान कीजिए। ईश्वर शब्द का मैंने अपने लेखन में कई जगह इस्तेमाल किया है। रूपक है, अलंकार है, फिगर ऑफ़ स्पीच है। इससे ज़्यादा उसकी उपयोगिता नहीं

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3 Comments

3 Comments

  1. आसिफ़ खान

    May 12, 2023 at 2:48 pm

    कतई तौर से अनपढ़ आदमी का लिखा हुआ लेख है जिसने हिंदी भाषा और शब्द सीख लिए हैं लेकिन न तो उन किताबों को कभी पढ़ा जो ईश्वर की किताबें होने का करती हैं और उन व्यक्तियों को जाना जो ईश्वर के दूत होने का दावा करते हैं.. जब दुनिया में मौजूद सभी धर्मों का अध्ययन नही कर लिया जाता तब तक ईश्वर से इंकार नहीं किया जा सकता, कोई व्यक्ति किसी एक धार्मिक व्यवस्था से निराश हो कर समूचे संसार के धर्मों और ईश्वर को नकार दे तो वो ऐसा ही है जैसे जोलो का मोबाइल फेंक कर कहे कि फोन बेकार होते हैं.. उसे सैमसंग, आईफोन, नोकिया, एलजी और रेडमी के फोन भी देखने होंगे और कुछ दिन इस्तेमाल करने होंगे..

  2. Santram Ramkumar Dohare

    May 12, 2023 at 9:03 pm

    Internally truth with human nature, Very Very true. Regards

  3. Atul vinayak Verma

    May 13, 2023 at 11:14 am

    बहुत बढ़िया लेखनी सुंदर रचना
    पर मैं एक बात अवश्य कहूंगा कि जिस प्रकार ईश्वर नहीं होने के कुछ तर्क़ है तो ईश्वर होने पर भी हजारों ग्रंथों में उनकी प्रमाणिकता को सिद्ध किया गया है बात सिर्फ इतनी है कि घी निकालने के लिए दही को मथना पड़ता है मगर हमारे पास न तो समय है और न ही आवश्यकता। हमें तो प्रमाण चाहिए वो भी कोई और करके दे हमने तो आरोप लगा दिया कि वो ऐसा है अब आप सफाई देते रहे। आज लेखन प्रिय लोगों का भी यही हाल है चाहे जिस पर कुछ भी लिख दो पढ़ा तो जाएगा ही और नकारात्मक ज्यादा पसंद किया जाता है। उससे काफी लोगो को दिमागी खुराक मिलती है निन्दा रस का सेवन करते है। खैर जिस प्रकार वृक्ष सभी को फल देते हैं चाहे कोई पत्थर मारे या खाद पानी देकर सेवा करें। ऐसे ही ईश्वर आपकी लेखनी और परिपक्व करें ऐसी मेरी ईश्वर से प्रार्थना है क्योंकि उनके लिए सब बराबर हैं।
    धन्यवाद।

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