चंद्रभूषण-
ढांचे तो तेरहवीं सदी में निपट गए, लेकिन क्या भारत में बुद्ध के धर्म का कुछ असर बचा रह गया? इस अमूर्त सवाल के उतने ही अमूर्त जवाब प्रस्तुत किए जाते हैं। जैसे, सबसे बढ़कर यह कि वैष्णव धर्म ने बुद्ध को अपना नवां या दसवां अवतार ही नहीं घोषित किया, अपनी सोच और ढांचे में ऐसी उदारता धारण की कि बुद्ध का धर्म पूरा का पूरा वैष्णव धर्म में ही समाहित हो गया। इससे ज्यादा तथ्यपरक और स्वीकार्य बात नाथपंथियों और निर्गुण भक्ति के अध्येताओं द्वारा कही जाती है। यह कि जन्मना श्रेष्ठता, जातियों की अभेद्यता और छुआछूत जैसी बुराइयों का निषेध नाथपंथ में भी बौद्ध धर्म जैसा ही था। इन मामलों में नाथपंथ की सख्ती शुरू में वैसी ही थी, जैसे यह बौद्ध धर्म का जारी रूप हो। अंततः, निर्गुण संतों की पृष्ठभूमि और उनके रचनाकर्म में बुद्ध की धारा की निरंतरता देखी जाती है।
इन दावों को बारीकी से जांचा-परखा जाना चाहिए, लेकिन हकीकत को सामने रखते हुए। सबसे पहले तो यह स्वीकार किया जाए कि बौद्ध धर्म भारत में बहुत पहले लुप्त हो चुका एक धर्म है। पिछले सात-आठ दशकों में इसकी वापसी हकीकत में इसकी बर्मी-श्रीलंकाई हीनयानी धारा के प्रतीकात्मक पौधारोपण जैसी ही है। पिछले दिनों लुंबिनी (नेपाल) में एक बहुत प्रतिबद्ध, जानकार और सकर्मक भिक्षु से मेरी बात हो रही थी तो वे यह मानने के लिए ही राजी नहीं थे कि बुद्ध का धर्म छह सौ वर्षों के लिए भारत से बिल्कुल ही गायब हो गया था। जगहों की बात छोड़िए, लोग बुद्ध का नाम तक भूल गए थे। भिक्षु का कहना था कि बर्मा के राजा ने सोलहवीं सदी में वज्रासन का जीर्णोद्धार कराया था। ज्यादातर लोगों की धारणा इस बारे में कमोबेश इतनी ही धुंधली है, सो बहस करना मुझे ठीक नहीं लगा।
दुनिया में कुछ भी स्थायी नहीं होता। हर चीज एक प्रक्रिया में पैदा होती है और फिर बदलते-बदलते इतनी बदल जाती है कि उसका विलोप हो जाता है। यह बुद्ध का ही सिद्धांत है, लिहाजा उनका धर्म भारत से विलुप्त हो गया तो इसमें कोई ऐसी अनोखी बात नहीं है। इस किताब के लिए किए गए अध्ययनों में इसके विलोप के कुछ सामाजिक और ऐतिहासिक कारण खोजे गए हैं। हो सकता है ये बिल्कुल गलत हों और इससे अलग कुछ और ही कारण इसके पीछे हों। यह भी हो सकता है कि कोई कारण ही न हो। जैसे गैस का गुब्बारा पड़े-पड़े पिचक जाता है, वैसे ही बुद्ध का धर्म भी भारत में उम्र बढ़ने के साथ अप्रासंगिक हो गया हो और बस अपने गायब होने का बहाना खोज रहा हो।
सिद्धार्थ गौतम ने ढाई हजार साल पहले दुखों से मुक्ति का रास्ता खोजने के लिए घर छोड़ा था लेकिन जब वे बुद्ध हो गए और इस रूप में 42-43 साल लोगों के बीच बिता लिए तो इस क्रम में कुछ और तरह के दुखों और उलझनों से बाहर निकलने के रास्ते भी खुलते गए। मसलन यह कि इंसान को सिर्फ इंसान की तरह देखा जाए। उसके जन्म या नाम या भाषा के आधार पर उसके लिए खांचे न तय किए जाएं। उसकी सामूहिकता भी होनी चाहिए, लेकिन अच्छा होगा कि इसका स्वरूप वह खुद चुने। जो सामूहिकता पैदाइश के साथ ही उसपर मंढ़ दी गई, वही न चलती रहे।
इसके लिए ‘बुद्ध, धर्म और संघ’ की शरण में जाने का त्रिरत्न बुद्ध के जीवन काल में ही खोज लिया गया था, जिसकी समझ समय बीतने के साथ बदलती गई। इस बारे में कितना कुछ कहा जा चुका है, लेकिन एक सामान्य व्यक्ति को तीनों शब्दों का सबसे छोटा अर्थ ग्रहण करना हो तो बुद्ध का अर्थ वह एक पूज्य व्यक्ति से ज्यादा उनसे जुड़ी अंतःप्रेरणा का ले सकता है। धर्म शब्द को प्रायः कर्मकांडों से जोड़ा जाता है, लेकिन बुद्ध के यहां इसका नैतिक अर्थ ज्यादा है। सच बोलना, भलाई के काम करना, लालच में न पड़ना, चोरी न करना वगैरह। और संघ ही वह सामूहिकता है, जिसके साथ एक बौद्ध को अपनी जाति वगैरह पीछे छोड़कर बुद्ध और धर्म के लिए जुड़ना होता है।
नेपाल में एक बौद्ध राजनेता ने मुझे बताया, और बिल्कुल सही बताया कि ‘बौद्ध तो लोग तात्कालिक कारणों से भी बन जाते हैं, लेकिन कोई कितने समय तक बौद्ध रह पाएगा, यह इसपर निर्भर करता है कि वह किसी संघ के साथ जुड़कर कुछ करता है या नहीं। संघ की सामूहिकता के बिना पुराने ढांचे बहुत जल्दी उसको खुद में समेट लेंगे।’
परिनिर्वाण सूत्र में बुद्ध ने अपने सबसे निकटस्थ व्यक्ति आनंद से अपने अंतिम वचन की तरह कहा- ‘अत्तदीपा विहरथ, अत्तसरणा, अनञ्ञसरणा; धम्म-दीपा विहरथ, धम्म-सरणा, अनञ्ञसरणा।’ अपना दीपक बनकर विहार करो, अपनी ही शरण लो, किसी और की शरण में न जाओ; धर्म के दीपक की रोशनी में विहार करो, धर्म की शरण लो, किसी और की शरण में न जाओ। अभी लोगों को लगता है, ‘बुद्धम शरणम गच्छामि, धम्मम शरणम गच्छामि, संघम शरणम गच्छामि’ एक पुराना टोटका भर है। तार्किक व्यक्तिवाद यूरोप ही नहीं, पूरी दुनिया की धरोहर है। यहीं से आधुनिकता की शुरुआत होती है। फिर धर्म और संघ का जिक्र किए बिना भी बुद्ध के विचार से क्यों नहीं जुड़ा जा सकता? या फिर इतना विचार भी किस लिए? खुद ही अपना दीपक बनकर दुनिया में क्यों नहीं विचरा जा सकता?
चिंतकों की बहुत लंबी कतार भारत में सुदूर अतीत से लेकर वर्तमान तक मौजूद है, लेकिन लोगों की नियति का ज्यादातर हिस्सा, उनका शादी-ब्याह, रोजी-रोजगार, उठना-बैठना आज भी इस देश में उनके जन्म से ही निर्धारित होता है और आधुनिक से आधुनिक व्यक्ति को भी इसमें कुछ बुरा नहीं लगता। और तो और, पूरा जीवन अमेरिका या यूरोप में गुजारकर, कदम-कदम पर मानवाधिकारों के लिए लड़ाई लड़कर आगे बढ़े लोग भी न केवल अपने जातिगत संस्कारों में मगन रहते हैं, बल्कि इतनी अद्भुत व्यवस्था के लिए ‘भारतीय सभ्यता’ के आभारी रहते हैं!
भारत में बौद्ध धर्म के विलोप को लेकर खोजबीन करने का मकसद किसी में अपराधबोध जगाना या किसी को दोषी ठहराना नहीं, अपनी सभ्यता के डीएनए में मौजूद एक छोटे से आत्मघाती हिस्से पर मार्कर रखना है। जैसे मानसिक बीमारी में लोग दवा खाना भूल जाते हैं, या डॉक्टर के बताए समय पर सचेत ढंग से सारी दवाएं निकालते हैं, फिर उठाकर कहीं फेंक आते हैं, वैसे ही हमारी प्रवृत्ति अपनी सबसे बड़ी सामाजिक बीमारी से नजर फेर लेने की है।
गौर से देखें तो भारत से बौद्ध धर्म की विदाई के बाद और अंग्रेजी राज की स्थापना से पहले नाथपंथ, सूफिज्म और भक्ति का जो आध्यात्मिक आलोड़न हमारे समाज में दिखाई देता है, जिससे होता हुआ आधुनिक भारत का जन मानस बनता है और बीसवीं सदी के मध्य में स्वतंत्रता, देश विभाजन और लोकतंत्र एक साथ आते हैं, उसमें कोई बड़ा झोल है। आध्यात्मिक मुक्ति का एजेंडा इहलौकिक मुक्ति को किनारे ठेल रहा है, पर हम इसे देख भी नहीं रहे।
(सद्यः प्रकाश्य पुस्तक के उपसंहार वाले हिस्से का एक अंश)