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सुख-दुख

…लेकिन बुद्ध ने यह आग्रह अस्वीकार कर दिया!

चंद्र भूषण-

बुद्ध के सारे संवाद मौखिक ही रहे, लिखावट में एक भी नहीं। यूं कहें कि सिर्फ बोली और सुनी हुई बात ही उनके लिए भाषा थी। लिखित, स्थिर, ठोस दस्तावेज नहीं, श्रोताओं द्वारा अलग-अलग तरीके से ग्रहण की जा सकने वाली, स्पष्ट लेकिन तरल अर्थ वाली एक चीज। उनके समय की ऋषि परंपरा के अनुरूप इसे छांदस (संस्कृत की पूर्वज काव्य भाषा) में ढालकर स्थिर करने का प्रस्ताव उनके शिष्यों ने रखा था लेकिन बुद्ध ने यह आग्रह अस्वीकार कर दिया।

इसके पीछे उनका दृढ़ मत था कि छांदस या ‘देववाणी’ अपनी अवधारणा में ही एक निराधार बात है। किसी चीज को ऊपर से उतरी हुई मानकर उसे कोई अपनी मुक्ति का साधन तो नहीं बना सकता। अलबत्ता काव्य-रचना में अज्ञात प्रेरणा से ही किसी बड़ी बात का उतरना काव्यशास्त्र की एक पुरानी प्रस्थापना है, जो अबतक चली आ रही है। ‘आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख्याल में, ‘ग़ालिब’, सरीर-ए-खामा नवा-ए-सरोश है।’ (अदृश्य से ये विषय ख्याल में उतरते हैं। कलम की सरसराहट फरिश्तों की आवाज है- मिर्ज़ा ग़ालिब)

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शुरुआती बुधिज्म में साहित्य की अनुपस्थिति का एक कारण भी बुद्ध के इस रवैये को ही बताया जाता है। हालांकि जातक कथाएं जल्द ही भारतीय किस्सागोई की पहचान बनीं।

बुद्ध की मान्यता थी कि भाषा व्यवहार (वोहार या बोहार) से उपजी हुई और निरंतर बदलती रहने वाली चीज है। इसका उपयोग रोजमर्रा की बातचीत से आगे जाने में कैसे किया जाए? ‘सुभाषित’ यानी ‘अच्छी बात’ क्या है, इस पर बुद्ध की एक गहरी राय है, जिसपर हम यहां चर्चा करेंगे। ऐसी बातों को चमत्कार की तरह कंठस्थ कर लेने के बजाय समझदारी में उतारा जाए और इस क्रम में ही उन्हें आगे ले जाया जाए, यह दृष्टि भी ‘सुभाषित सुत्त’ में दिखाई देती है।

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बुद्ध के वचनों को छंदबद्ध और अंततः लिखित रूप में स्थिरता उनकी मृत्यु के बाद ही दी जा सकी। पालि भाषा के श्लोकों जैसी शक्ल लोगों ने इन्हें याद रखने के लिए दी। स्वयं बुद्ध ने अपनी बातें पद्य रूप में कही हों, ऐसा जिक्र कहीं नहीं मिलता। जो स्रोत इनके बताए गए हैं, उनमें कोई भिक्षु है, कोई रानी, कोई सुअर पालने वाला तो कोई यक्षिणी।

बुद्ध की भाषा केवल मौखिक थी, इतना तय है लेकिन यह पालि ही थी, यह मानने का भी कोई पुख्ता आधार नहीं है। घूमना-फिरना ज्यादातर कासी, कोसल और मगध जनपदों में था, जहां की नगरीय भाषा बुद्ध के समय में कोसली और मागधी प्राकृत बताई जाती है। लेकिन उनके संवाद नगरों तक सीमित नहीं थे। वे गांव-शहर हर जगह घूमते थे।

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वर्षावास के तीन-चार महीने छोड़कर तथागत बुद्ध कभी एक जगह रुकते नहीं थे। काफी समय निर्जन जगहों में भी बिताते थे। अपने जीवन के लिए आम जनता पर निर्भर थे, किसी राजा या सेठ पर नहीं। जाहिर है, इतने बड़े दायरे के संवाद के लिए उनका शब्द भंडार बहुत बड़ा रहा होगा और बोलने के कई लहज़ों के प्रति वे सहज रहे होंगे।

हां, सम्राट अशोक की राजभाषा जरूर पालि थी और फिलहाल उपलब्ध बुद्ध वचनों को आधिकारिक रूप से लिखित शक्ल अशोक की देखरेख में ही दी गई। लिहाजा त्रिपिटक की भाषा पर इसके प्रभाव की अनदेखी नहीं की जा सकती। अशोक और बुद्ध में दस पीढ़ियों का फर्क है। यानी बुद्ध की भाषा यदि पालि रही भी हो तो यह ठीक-ठीक वही नहीं हो सकती, जो शिलालेखों में अंकित अशोक के राज्यादेशों में हमें दिखती है।

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अशोक के अस्तित्व और महत्व को लेकर भी बौद्धों में मतभेद देखा जाता है। श्रीलंका और बर्मा (म्यांमार) के थेरवादी अशोक को बौद्ध धर्म की धुरी मानते हैं जबकि बाकी देशों के बौद्ध इस बारे में अलग से कुछ नहीं कहते। राजाओं की लंबी सूची में वहां अशोक भी एक नाम है, जिससे जुड़ी बौद्ध संगीति में कुछ पंथ शामिल नहीं हुए थे, और जो शामिल हुए, उनमें भी कुछ विपरीत विचारों के कारण संगीति के बाद उसके दायरे से बाहर हो गए थे।

बहरहाल, व्यवहार से उपजी भाषा में उच्चतर मूल्यों के सृजन को लेकर बुद्ध की दृष्टि क्या थी, इसपर आने से पहले हमें ‘धर्म’ के विषय में उनकी राय जान लेनी चाहिए। कारण यह कि ‘सुभासित सुत्त’ में धर्म का संदर्भ आता है और इससे कुछ गलतफहमी की गुंजाइश बन सकती है। बुद्ध के यहां धर्म शब्द आम तौर पर ‘प्रवृत्ति’ के अर्थ में ही आता है। जिस अर्थ में अभी हम विज्ञान की पढ़ाई में वस्तुओं का ‘गुण-धर्म’ समझते हैं। इसके अलावा कभी-कभी यह ‘रिलीजन’ वाले अर्थ में भी आता है, लेकिन धर्म का खाका वहां भी मनुष्य की एक श्रेष्ठतर प्रवृत्ति जैसा ही उभरता है।

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सुभाषित सूत्र

सुभासित सुत्त ‘सुत्तनिपात’ नाम की पुस्तक में मिलता है, जो त्रिपिटक के दूसरे पिटारे ‘सुत्त पिटक’ के पांच निकायों में एक, खुद्दक निकाय का हिस्सा मानी जाती है। पालि में यह सूत्र चार श्लोकों में मौजूद है। ये अलग-अलग श्रोताओं के सामने अलग-अलग समयों में कहे गए बुद्ध वचनों का पद्य रूप हैं लेकिन पहले श्लोक की धारणा इनमें साझा है।

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सुभासितं उत्तम माहु संतो।
धम्मं भणेनाधम्मं तं दुतीयं।
पियं भणेनापियं तं ततीयं।
सच्चं भणेनालीकं तं चतुत्य।।

सुभाषित, यानी अच्छी बात सबसे पहले वह है, जिससे शांति मिलती हो। दूसरे, उसमें धर्म कहा गया हो, अधर्म नहीं। तीसरे, उसमें प्रिय लगने वाला तत्व होना चाहिए, अप्रिय लगने वाला नहीं। और चौथे, वह बात सच्ची होनी चाहिए, झूठी नहीं।

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श्रीलंका के बौद्ध चिंतक और भाषाशास्त्र तथा जनसंचार के विशेषज्ञ प्रो. विमल दिसानायके अपने निबंध ‘द आइडिया ऑफ वर्बल कम्युनिकेशन इन अर्ली बुधिज्म’ में इस सुत्त की दूसरी पंक्ति में आए ‘धर्म’ और ‘अधर्म’ की व्याख्या ‘पूरी बात’ और ‘अधूरी बात’ के रूप में करते हैं। यानी कोई व्यक्ति अगर अच्छी बात कहना चाहे तो उससे प्रभावित होने वाले सभी पक्षों की समझ उसे होनी चाहिए। इसके बिना एकतरफा बात कहना अधर्म है।

तमेव भासं भासेय्य ययत्तानं न तापये।
परे च न विहिंसेय्य सा वे वाचा सुभासिता।।

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बात वही बोलनी चाहिए जिसे बोलते हुए न स्वयं को पीड़ा हो, न किसी और को दुख पहुंचे। यही सुभाषित वाक्य है।

पियवाचमेव भासेय्य या वाचा पतिनन्दिता।
यं आनादाय पापानि परेसं भासते पियं।।

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वही प्रिय वाक्य बोलना चाहिए जो आनंददायक हो। दूसरे के लिये प्रिय बोलकर स्वयं पाप का भागी होना ठीक नहीं।

सच्चं मे अमता वाचा एस धम्मो सनत्तनो।
सच्चे अत्थे च धम्मे च पाहु सन्तो पतिहितो।।

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मेरी वाणी सदा सत्य हो, इससे सत्य, अर्थ, धर्म और शांति की प्रतिष्ठा होती हो, यही सनातन धर्म (श्रेष्ठ परंपरा) है।

सुभाषित-जय सूत्र

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अंत में थोड़ी चर्चा ‘सुभासित-जय सुत्त’ की भी जरूरी है, जिससे भाषा और धर्म का, यूं कहें कि सुभाषित और धर्म का रिश्ता थोड़ा और स्पष्ट हो सकता है। यह सूत्र ‘सुत्त पिटक’ के ही तीसरे हिस्से ‘संयुत्त निकाय’ में आता है। यहां इसे श्रीलंका के बौद्ध आचार्य थानिस्सारो भिक्खु के अंग्रेजी अनुवाद के हिंदीकरण के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है-

एक बार तथागत श्रावस्ती के जेतवन में अनाथपिंडक महाविहार में थे। वहां उन्होंने भिक्षुओं को संबोधित किया-
‘भिक्षुओं, एक बार अतीत में देव और असुर युद्ध में जाने को तैयार थे। तभी असुर राज वेपचित्ति ने देवराज सक्क से कहा- ‘चलो, लड़ाई का फैसला सुभाषित के जरिये करते हैं।’

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‘हां वेपचित्ति, सुभाषित से ही जीत सुनिश्चित की जाए।’

‘तो फिर देवों और असुरों ने निर्णायकों का एक दल गठित किया, (यह सोचकर कि) ये लोग ही तय करेंगे कि किसने अच्छे से अपनी बात कही है और किसने खराब ढंग से।’

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‘फिर असुर राज वेपचित्ति ने देवराज सक्क से कहा- ‘एक श्लोक कहो देवराज!’

‘यह सुनकर देवराज सक्क ने असुर राज वेपचित्ति से कहा- ‘लेकिन आप यहां वरिष्ठ हैं वेपचित्ति, पहले आप ही एक श्लोक कहें।’

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‘इसपर वेपचित्ति ने यह श्लोक कहा-

‘मूर्खों पर अंकुश न रखा जाए तो वे और भड़क उठते हैं
जाग्रत व्यक्ति इसीलिए मूर्ख को सख्ती से दबाकर रखता है।’

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‘वेपचित्ति के इस श्लोक पर असुरों ने तालियां बजाईं लेकिन देव चुप रहे। फिर वेपचित्ति ने सक्क से कहा- ‘अब एक श्लोक कहो देवराज!’

‘ऐसा कहा जाने पर सक्क ने यह श्लोक सुनाया-

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‘मेरे विचार से मूर्ख के लिए अकेला अंकुश यह है
कि अगले को उत्तेजित जान
सचेत रूप से आप शांत हो जाएं।’

‘सक्क ने यह श्लोक कहा तो देवों ने तालियां बजाईं लेकिन असुर चुप हो गए। इसलिए सक्क ने वेपचित्ति से कहा- ‘अब एक और श्लोक कहें वेपचित्ति!’

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जवाब में वेपचित्ति ने यह श्लोक कहा-

‘इस सहनशीलता में मुझे एक गलती लगती है वासव
मूर्ख जब सोचता है कि
‘वह तो मेरे भय से बर्दाश्त कर रहा है’
तो वह जड़बुद्धि आपको और दबाता है,
जैसे भागते हुए को सांड़।’

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‘वेपचित्ति ने यह श्लोक कहा तो असुरों ने तालियां बजाईं और देव खामोश रहे। तब वेपचित्ति ने सक्क से कहा- ‘एक श्लोक कहें देवराज!’

‘ऐसा कहा गया तो सक्क ने यह पद्य सुनाया-

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‘अगर वह सोचता है कि –
‘वह मेरे डर से बर्दाश्त कर रहा है’
तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता
व्यक्ति की अपनी अच्छाई ही सबसे अच्छी बात है
धैर्य से अच्छी कोई और चीज खोजी नहीं जा सकी है

जो शक्तिशाली है वह कमजोर के प्रति सहनशील होता है
यही सबसे बड़ा धैर्य है,
जिसे कमजोर को हर हाल में बर्दाश्त करना होता है

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मूर्ख की शक्ति तो कोई शक्ति नहीं होती
जो शक्तिशाली है
वह धर्म की रक्षा करता है और धर्म उसकी रक्षा करता है

किसी क्रुद्ध व्यक्ति पर आपके भड़क उठने से
चीजें बद से बदतर होती जाती हैं
जो व्यक्ति किसी क्रुद्ध व्यक्ति पर नहीं भड़कता
वह ऐसे युद्ध भी जीत लेता है,
जिन्हें जीतना कठिन होता है

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दूसरे व्यक्ति को उत्तेजित जानकर भी
आप सचेत रूप से शांत रहते हैं
तो अपना और उसका, दोनों का भला करते हैं

इस तरह अपना और उसका,
दोनों का इलाज आप करते हैं
तो जो लोग आपको मूर्ख मानते हैं
वे धर्म के बारे में कुछ नहीं जानते।’

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‘सक्क ने यह श्लोक कहा तो देव तालियां बजाने लगे और असुर चुप हो गए। फिर देवों और असुरों, दोनों द्वारा निर्धारित निर्णायक दल ने कहा-

‘असुर राज वेपचित्ति द्वारा कहे गए श्लोक तलवारों और हथियारों के दायरे में आते हैं और वाद-विवाद, झगड़ों और अशांति की ओर ले जाते हैं। जबकि सक्क द्वारा कहे हए श्लोक तलवारों और हथियारों के दायरे से बाहर जाते हैं और वाद-विवाद, झगड़ों और अशांति का कारण नहीं बनते। सुभाषितों के द्वारा विजय देवराज सक्क के हिस्से जाती है।’

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‘और भिक्षुओं, इस प्रकार अच्छी बातों के आधार पर विजयश्री ने देवराज सक्क का वरण किया।’

इस किस्से में सक्क (शक्र) और वासव देवराज इंद्र के पहले से सुने हुए नाम हैं। असुर राज वेपचित्ति का नाम पहले कभी सुनने में नहीं आया और इस पालि शब्द का संस्कृत रूप क्या होगा, यह समझना भी कठिन है।

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असल बात यह है कि देवासुर संग्राम की सुपरिचित कथाओं में छल-छद्म के माध्यम से देवताओं को चतुर और असुरों को उबल पड़ने वाला बताया जाता रहा है। लेकिन उनके बीच इस तरह की बहस का कोई जिक्र कभी नहीं सुना। ‘सुभासित-जय सुत्त’ में भी देवराज और असुर राज अपने सुपरिचित चरित्र से ज्यादा दूर नहीं जाते, लेकिन एक स्तर की समझदारी दोनों में दिखती है। सबसे बड़ी बात है, दोनों का एक निर्णायक मंडल पर राजी होना और उसके फैसले को स्वीकार करना।

सुभाषित यानी अच्छी बात के मूल में धर्म होना चाहिए। धर्म यानी अशांति और विनाश के बजाय शांति और निर्माण का, कल्याण का रास्ता अपनाना। यह रास्ता कठिन है। मूर्ख सिद्ध होने का खतरा हर कदम से जुड़ा है, फिर भी।

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