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वेब-सिनेमा

चलने के बारे में दो अच्छी फिल्में!

Pramod Singh-

सवालों से घिरे, शर्मिंदिगियों में नहाये, ठहरे हुए जीवन को आदमी (या औरत) कहां, कैसे लेकर जाये? किस मुंह से जाये? मगर जब जाने (और चलने) के सिवा और कोई रास्‍ता ही न बचे, तब? दो फ़ि‍ल्‍में हैं, एक इंग्लिश, दूसरी डैनिश, दोनों इसी साल की हैं, और दोनों ज़ि‍द में ठिलियाये चलने की बाबत है.

एक हार और शर्मिंदगी को चेहरे पर पोस्‍टर की तरह चिपकाये बूढ़ा (सुपर्ब जिम ब्रोडबेंट, हमेशा की तरह) है, दूसरी सतराहे पर भटकी, गुमसुम (हार्डली एंड रेयरली सैक्‍सी) दानिका कर्सिक है, दानिका एक ऐंठें और लगातार तंज करते बाप की संगत में, और हमेशा उससे चार हाथ की दूरी पर चलती हुई, और दूसरा जिम है जो अकेली और घबरायी, शक में नहायी बीवी से भागकर सफ़र पर निकला.. और दोनों क्‍या कमाल हैं, और दोनों, क्‍या कमाल की फ़ि‍ल्‍में हैं. आईएमडीबी की रेटिंग पर मत जाइये, आईएमडीबी की रेटिंग, मैंने पर्सनली दर्जनों बार एक्‍सपीरियेंस किया है, गदहे की लीद है.

Birkenstock का एक सैंडल हाथ (या पैर) चढ़े तो मैं भी चल लेने का मन बनाना, बुनना शुरू करूं. एक सात साल पुरानी याद पर नज़र गई, जिम और दानिका की नज़र करता हूं..

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लजाया बहुत मैं पैदा होने में
अम्मां ने बताया बाबू दूध खतम है
खलास इल्लै फिनिस
पो पो एंड गो
प्राइमरी में मैंने जानवरों की गिनती शुरु की
पेड़ नदारद थे और रेल घर चलकर आती
लड़कियां इशारे करतीं कि हमारे पीछे आओ चिड़ि‍यों का चहचहाना पहचानने लगोगे
भोर में तारों का चलना और चिट्ठि‍यों का जोहानेसबर्ग पहुंचना
मैं घबराकर कहता हाई स्कूल में फेल हो जाऊंगा दीदी
और मैं हाई स्कूल में फेल
हुआ
कालेज में नीम का पेड़ था
और बरगद का अंधेरा
कैंटीन में चमगादड़ बोलते
भागकर साइकल-स्टैंड पहुंचा जा सकता था
हेंमिग्वे के सस्ते अनुवादों के साथ छिपा जा सकता था छतों पर
ग़लती से मैंने फासबिंडर देख ली और भूलकर इलाहाबाद निकल आया
टैगोर टाऊन में जार्ज था
या जार्ज में टैगोर टाऊन
दारागंज के अल्लापुर में जलभराव था
म्योर सेंट्रल से निकलकर सिविल लाईन एक शहर था
और ए. एच. व्हीलर में आईसक्रीम की दुकान
रुपा और श्याम बीड़ी का ठंसा यौवन था, रिक्शे में अंड़सा
पुचकारता कि तुम यहां पढ़ाई कर सकते हो
मगर मैं जोगन से निकले मधुमती के दिलीप कुमार की खोज में निकला था
अमरनाथ झा हास्टल के कमरे में मिले वो रुग्णं नागभूषण के चारु मजुमदार थे
सपनों की खदान सा वैसा कुछ नहीं था
जैसा बंबई गाया गया था
खुदे शहर में माधुरी पैसे के लिए झगड़ रही थी
और अटककर दौड़ती गाड़ि‍यां जगह के लिए
मधुमती खोजता मैं बहुत वर्षों से मोहनजुदड़ो में भटक रहा
पैदा होने में अभी भी लजा रहा था.

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और फिल्म चिंतक प्रमोद सिंह की एफबी वॉल से.

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