गिरिजेश कुमार-
चमकीला आज सुबह देखी थी. दिन गुज़र गया लेकिन दिल दिमाग़ वहीं अटका है. इतनी सुंदर फ़िल्म कोई कैसे बना सकता है जिसमें आप तय ही ना कर पाएँ कि किस पहलू को ज़्यादा प्यार किया जाए! अमर सिंह चमकीला की कहानी, कहानी की प्रासंगिकता, कहानी को सुनाने का अंदाज़, दिलजीत दोसांझ-परिणीति का अभिनय, इरशाद कामिल के शब्द, ए आर रहमान के सुर, लोकेशंस, सिनेमेटोग्राफ़ी, ओपनिंग, क्लोज़िंग…हर चीज़ में एक ख़ास क़िस्म की purity है जो मोह लेती है..
जब भी हिन्दी सिनेमा से ऊब होने लगती है, निर्देशकों से भरोसा उठने लगता है Imtiaz Ali एक फ़िल्म लेकर आ जाते हैं
जीतू राजोरिया-
Netflix पर रिलीज हुई “अमर सिंह चमकीला” एक जमाने में चमकीला मशहूर और महंगे सिंगर रहे हैं, ये फिल्म अमर सिंह चमकीला की जीवनी पर आधारित हैं। गरीब वंचित रविदासिया कौम में जन्में यह सितारे को जातिवादियों का शिकार होना पड़ा और उन्हें स्टेज पर बेरहमी से मार दिया।
अमर सिंह चमकीला इतनी चमक चुके थे कि उनके सामने बाकी गायक फीके पड़ चूके थे।
बताया गया है कि इस फिल्म में बड़ी ही इमानदारी से जातिवाद की समस्या को दिखाया गया है कल 14 अप्रैल है बाबासाहेब अंबेडकर की जयंती है और सुपर संडे भी कल यह फिल्म जरूर देखूंगा और आप भी देखिए।
दिनेश श्रीनेत-
‘अमर सिंह चमकीला’ इतनी साधारण फ़िल्म है कि उस पर कुछ लिखने का मन नहीं हो रहा था, लेकिन कुछ बातें जो मन में चल रही हैं, उनको बेतरतीब तरीके से ही रख देता हूँ. इम्यिताज़ अली हमारी सोसाइटी के कुछ चर्चित डिस्कोर्स को उठाते हैं और उसका एक पॉपुलर वर्जन बना देते हैं. बहुत बार वे क्रिएटिव तौर पर सफल होते हैं और बात असर कर जाती है, बहुत बार किसी अर्थवत्ता के लिहाज से खोखली फिल्में बनकर रह जाती है. ‘अमर सिंह चमकीला’ बहुत घिसे-पिटे तरीके से एक ऐसे गायक को जस्टिफाई करती है, जिसने सोसाइटी के अंडरग्राउंड में चलने वाले लोकाचार को उठाया और उसे बाजार में बेचकर पैसे कमाए.
यह चलन सिर्फ पंजाब नहीं है, बल्कि उत्तर प्रदेश, हरियाणा समेत पूरे उत्तर भारत की आंचलिक बोलियों में मौजूद है. फिल्म में किसी उत्सव की तरह लड़कियों को उसके गानों पर नाचते-गाते तो दिखाया है, मगर रोजमर्रा में आटो-बसों पर इस तरह के गीत कैसे अप्रत्यक्ष रूप से छेड़खानी को बढ़ावा देते होंगे इस पर फ़िल्म चुप हो जाती है. इस आधार पर भोजपुरी में अश्लील गानों को भी जस्टिफाई किया जाना चाहिए, क्योंकि इनके यूट्यूब पर लाखों व्यूज़ हैं और ये पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के हर गली-नुक्कड़ पर बजते हैं. इसे जस्टिफाई करने का मतलब जो लीक से हटकर काम कर रहा है, उसे हतोत्साहित करना भी है. कोई अचरज नहीं कि आने वाले दिनों में निरहुआ, पवन सिंह और खेसारी लाल यादव की बायोपिक भी सामने आए.
फ़िल्म की इसलिए भी तारीफ़ नहीं होनी चाहिए कि इसका नायक एक अति-साधारण व्यक्ति है. किसी किरदार में ग्रे-शेड होना अलग बात है और नायकत्व का न होना बिल्कुल अलग बात. अगर इस किरदार भीतर कोई नायक नहीं है. लोगों की उसके गीतों में दिलचस्पी हो सकती है, उसके जीवन में नहीं. अगर चमकीला को गोली नहीं लगी होती तो शायद उसके जीवन में इम्तियाज़ अली को भी दिलचस्पी न होती. यह साधारण नायक भी ऐसा है कि उसे सिर्फ इस बात से मतलब है कि गाने के एवज में पैसे आ रहे हैं. इस तर्क को सिरे से ख़ारिज किया जाना चाहिए कि सोसाइटी ऐसा चाहती है, इसलिए हम ऐसा रचते हैं. इस आधार पर इम्तियाज अली को एक फ़िल्म कांति शाह पर भी बनानी चाहिए.
मैं यह नहीं कह रहा कि सिनेमा-कहानी में ऐसे विषय और किरदार नहीं आएं. मगर जब आप किसी जटिल सामजिकता वाले विषय को छूते हैं तो उसे बहुत सतही तरीके से प्रस्तुत नहीं कर सकते. शायद 7-8 साल पहले मैंने एक लंबी डॉक्यूमेंट्री देखी थी, जो मुंबई में बसी इंडस्ट्री से रू-ब-रू कराती है, जहां भोजपुरी के अश्लील गीतों के कैसेट-सीडी तैयार होते थे. बी और सी ग्रेड फिल्में हमेशा से लोकप्रिय संस्कृति के अध्येताओं के लिए दिलचस्पी का विषय रही हैं, मगर इम्तियाज़ अली के पास शायद इतनी पड़ताल का या गहराई में जाने का वक्त नहीं था. हत्या के ट्विस्ट के अलावा फ़िल्म में कोई कहानी नहीं थी, लिहाजा इसे देखते हुए ऐसा लगता है जैसे कोई लंबा म्यूज़िक वीडियो देख रहे हैं.
नायक के भीतर बहुत ज्यादा अंतर्द्वंद्व नहीं है. वह कोई स्टैंड नहीं लेता. जब जान पर बनती है तो धार्मिक गाने गाना शुरू कर देता है. जब पब्लिक की डीमांड आती है तो फिर से अश्लील बोल वाले गाने शुरू हो जाते हैं. इसी ऊहापोह में वह मारा जाता है. तात्कालिक पंजाब की सामाजिक राजानीतिक परिस्थितियों की कोई झलक नहीं मिलती है. सिख अलगाववादियों को बहुत चलताऊ तरीके से दिखा दिया गया है. जबकि कहानी में इन प्रसंगो की भी बड़ी भूमिका थी.
इतना ही नहीं चमकीला की मौत के पीछे की वजहों पर भी फ़िल्म खामोश रहती है. इस हत्या की गुत्थी भले न सुलझी हो मगर इसमें शुरू से एक ऐंगल ऑनर किलिंग का भी रहा है, शक था कि इसके पीछे अमरजीत कौर के परिवार वालों का हाथ हो सकता है, क्योंकि चमकीला दलित था और अमरजीत जट सिख थी. चमकीला को दलित होने की वजह से किस तरह का संघर्ष करना पड़ा होगा, सिर्फ एक सीन छोड़कर पूरी फिल्म इस विषय को भी नहीं छूती है. जबकि यदि एक ही समाज में मनोरंजन के जरिए दो अलग-अलग समाजों की पड़ताल होती तो यह एक बहुत बड़ी फिल्म बन जाती.
इसके बाद जो बचता है उसमें इम्तियाज़ की दिलचस्पी पंजाबी के बोल म्यूजिक वीडियो की तरह स्क्रीन पर दिखाने में ज्यादा थी. तारंतोनी की किल बिल की तरह बार-बार फिल्म में एनीमेशन और कॉमिक्स की तरह फ्रेम का इस्तेमाल किया गया है. इतनी तकनीकी चमक-दमक 1977 से 1988 यानी करीब 11 साल के दौर के ‘फील’ को सामने नहीं लाती है. इम्तियाज शायद अपना बेहतर देने के बाद अपने दौर के बाकी निर्देशकों की तरह दुहराव का शिकार हो चुके हैं. ‘अमर सिंह चमकीला’ सिनेमाई तौर पर और विचार के तौर पर भी एक कमजोर फ़िल्म है. थोड़े सेंसेशन से भले कुछ समय के लिए चर्चा बटोर ली जाए, ऐसी फिल्में लंबे समय तक याद नहीं रखी जाती हैं.
ललित शर्मा-
आज इम्तियाज अली निर्देशित फिल्म “अमर सिंह चमकीला” रिलीज होगी। दिलजीत ने फिल्म में चमकीला का किरदार निभाया है। परिणीती चोपड़ा ने चमकीला की दूसरी पत्नी “अमरजोत कौर” का किरदार निभाया है।
कुछ वर्ष पूर्व तक भारतीय सिनेमा खासकर हिंदी सिनेमा में सिख किरदार को केवल मजाक और मसखरे के तौर पर दिखाया जाता था। शायद ही कोई दर्शक हो जो किसी पगड़ी धारी सिख को फिल्म के मुख्य किरदार में पसंद करता हो। और शायद यही वजह रही की कोई सिख अभिनेता हिंदी फिल्मों में गंभीर या यूं कहें की मुख्य किरदार में आया नहीं। वह खुद में हौसला न कर पाते होंगे, की न जाने दर्शक पसंद करेंगे की नहीं।
पर समय बदला, राष्ट्र ने धर्म, जाती, रंग के आधार पर, पहनावे के आधार पर फर्क करना कम किया। हर फील्ड में। तो बॉलीवुड पीछे कैसे रहता। इसमें भी सिख किरदार मुख्य होने लगे। पर अभी तक कोई अन्य अभिनेता सिख गेटप लेकर ही आया। पर इस मिथ को तोड़ा आकर दिलजीत ने… वो बकायदा सिख थे और सिख के रोल ही निभाए, और बेहद पसंद किए गए। करीना कपूर, अक्षय कुमार सरीखे अभिनेताओं के साथ उन्होंने स्क्रीन शेयर की।
आज बॉलीवुड के दिग्गज इम्तियाज उन्हें चमकीला की बायो पिक में मुख्य किरदार की भूमिका में लेकर आए हैं। चमकीला के लिए यह फिल्म एक पुरस्कार है। पंजाब के ट्रक्स और सुदूर गांवों में सस्ते टेप रिकॉर्डर पर बजने वाले चमकीला के शानदार जानदार गानों को आज रेकामंडेशन मिलेगी। दिलजीत और परिणीति ने बेहद उम्दा अभिनय किया है, जैसा दिख रहा है। फिल्म में 1980 के पंजाब के माहौल का सजीव चित्रण है। दिलजीत जो खुद ग्रामीण परिवेश से आते हैं ने चमकीला का किरदार खूब पकड़ा है।
उस समय मैं जानता हूं की चमकीला के गानों को डबल मीनिंग, फूहड़ माना जाता था। मैने खुद इसे ट्रक वालों के साथ सुना था। मैं उस वक्त का हूं जब चमकीला की पॉपुलैरिटी चरम पर थी। इसकी हत्या से दुख भी हुआ था। कोई बड़ी बात नहीं की आने वाले कुछ दशकों में सिद्धू मूसवाला पर कोई इम्तियाज फिल्म बनाए, और आज के युवा मेरी तरह पोस्ट लिखें। मुझे व्यक्तिगत मूसेवाला पसंद नहीं, उसके गानों को लेकर… मेरे पिताजी को चमकीला पसंद नहीं था। यह चक्र है जो चलता रहेगा…
फिल्म सफलता असफलता से परे… कुछ लोगों के दिल के करीब अवश्य आएगी।