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सियासत

चांद के संसाधनों पर कब्जे के लिए भी महाशक्तियों में होगा एक युद्ध!

Chandra Bhushan-

चांद पर गहरा रही धरती की धड़ेबंदी… एक तरफ यूक्रेन में रूस अपने नए से नए हथियारों का परीक्षण कर रहा है, जवाब में अमेरिका भी वहां अपने पुराने हथियारों का गोदाम खाली करने में जुटा है, दूसरी तरफ दोनों देशों की ओर से चंद्रमा के दोहन की तैयारी अपने निर्णायक बिंदु पर पहुंच गई है। अगले दो महीनों में दोनों के अंतरिक्ष यान इस मिशन का पहला डंडा पार करने की राह पर निकल जाएंगे, हालांकि ऐन मौके पर कोई व्यवधान आने या कोई गड़बड़ी पाए जाने पर इनकी लांचिंग कुछ दिनों के लिए टाली भी जा सकती है। अमेरिका और उसके कुछ मित्र देशों के साझा अभियान आर्टेमिस का प्रस्थान बिंदु सन 2022 को ही बनाया गया है, जबकि इसके समानांतर रूस और चीन ने भी अपने सम्मिलित चंद्र अभियान आईएलआरएस के लिए इसी साल को चुन रखा है।

एक नजर में यह 1950 के दशक के अंतिम वर्षों से लेकर 1970 के दशक के शुरुआती वर्षों के बीच रूस और अमेरिका में चली अंतरिक्ष होड़ जैसा ही है। लेकिन जिस तरह के सैनिक तनाव और दोतरफा आर्थिक बदहाली के बीच यह किस्सा अभी आगे बढ़ रहा है, उसे देखते हुए यह खौफ पैदा होता है कि कहीं चंद्रमा को भी सीधे तौर पर वर्चस्व की लड़ाई में न घसीट लिया जाए। यहां आर्टेमिस और आईएलआरएस (इंटरनेशनल लूनर रिसर्च स्टेशन) के बीच एक बुनियादी फर्क बताना जरूरी है। आर्टेमिस से जुड़ी संधि पर इसके सहयोगी देशों के दस्तखत हो चुके हैं लेकिन आईएलआरएस को लेकर रूस और चीन के बीच सहयोग के बिंदुओं को लेकर बातचीत अभी जारी है।

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आर्टेमिस और आईएलआरएस

इस फर्क को छोड़ दें तो आर्टेमिस और आईएलआरएस का मकसद बिल्कुल एक है। चंद्रमा पर प्रायोगिक रूप से एक छोटी सी इंसानी बस्ती बसाना और वहां से कुछ दुर्लभ खनिज निकाल कर धरती पर लाना। इसके लिए दोनों अभियानों का समय भी एक ही निर्धारित किया गया है- सन 2035। ध्यान रहे, फ्यूजन एनर्जी का ग्लोबल लक्ष्य-वर्ष भी यही है। कम से कम कागजी तौर पर अमेरिकी अभियान आर्टेमिस अभी कई मायनों में आईएलआरएस से आगे दिख रहा है। वहां नासा की ओर से स्पेस लांच सिस्टम (एसएलएस) और अमेरिकी हुकूमत द्वारा दिए गए 2.89 अरब डॉलर के ठेके के तहत एलन मस्क के फाल्कन-9 रॉकेट का परीक्षण एक साथ चल रहा है।

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नासा और स्पेस-एक्स, दो अमेरिकी स्पेस एजेंसियां लेकिन एक सरकारी और दूसरी निजी। इनकी आपसी समझदारी अभियान को कहीं ज्यादा तेजी से आगे बढ़ा सकती है। इसके विपरीत दो सरकारी स्पेस एजेंसियों रूस की रोसकोसमोस और चीन की सीएनएसए के बीच कितनी समझ बन पाती है, इसका अंदाजा दोनों के मिलकर काम शुरू करने के बाद ही लग पाएगा। हां, अलग-अलग इन दोनों की दक्षता असंदिग्ध है। एक समय था जब रोसकोसमोस और नासा की क्षमताएं एक सी मानी जाती थीं। सस्ती और सुरक्षित स्पेस लांचिंग में रूसी एजेंसी का आज भी कोई जवाब नहीं है। रही बात सीएनएसए की तो मौजूदा सदी में चंद्रमा पर सुरक्षित और सफल ढंग से अपना रोवर उतारने, उसे सालोंसाल चलाते रहने की उपलब्धि अकेले उसी के पास है।

प्राइवेट अमेरिकी स्पेस एजेंसी स्पेस-एक्स अभी लांचिंग के क्षेत्र में जबर्दस्त धमाके के साथ उतरी है। इस साल वह अपने 50 लांच में कुल 800 टन पेलोड (उपग्रह और सामान से लेकर इंसानों तक) अंतरिक्ष में ले जा रही है, जो पूरी दुनिया की कुल पेलोड लांचिंग का लगभग 70 प्रतिशत है। बाकी 400 टन लांचिंग में ज्यादातर चीन की है। अपने फाल्कन-9 रॉकेट के बारे में स्पेस-एक्स का दावा है कि वह 100 टन वजन लेकर तीन दिन के अंदर चांद तक जाएगा। तुलना के लिए बता दें कि भारत के खासे कामयाब रॉकेट पीएसएलवी की अधिकतम पेलोड क्षमता दो टन है, जबकि हमारा जीएसएलवी रॉकेट पांच टन तक पेलोड लेकर अंतरिक्ष में जा सकता है। पीएसएलवी से ही छोड़े गए हमारे दोनों चंद्रयानों का पेलोड भी कम था और वे काफी लंबा समय लेकर चंद्रमा की कक्षा में पहुंचे थे।

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निश्चित रूप से फाल्कन-9 काफी ताकतवर रॉकेट है, लेकिन उसके लिए सारे शुरुआती खतरे उठाने की जिम्मेदारी नासा के एसएलएस ने ले रखी है। जुलाई-अगस्त में संभावित उसकी उड़ान का खाका जारी कर दिया गया है। इस मानव-रहित अभियान में उसे लंबा रास्ता पकड़ना है, सौर ऊर्जा का भरपूर इस्तेमाल करना है और चंद्रमा की एक ऐसी दूरवर्ती कक्षा में 6 दिन बिताने हैं, जहां टिके रहने के लिए उसे ईंधन जलाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। फिर यह काम पूरा करके उसे धरती पर कुछ ऐसे वापस लौट आना है कि बाद में उसका उपयोग फिर से किया जा सके। रूस ने भी आईएलआरएस के तहत अपने चंद्रयान लूना-25 को अगस्त 2022 में ही छोड़ने की घोषणा कर रखी है लेकिन इसके लक्ष्य आदि से जुड़ी तकनीकी जानकारियां उसने अभी तक सार्वजनिक नहीं की हैं।

जिस तरह अभी तक दुनिया यह नहीं जानती कि आईएलआरएस में रूस और चीन का आपसी साझा किस तरह का है, उसी तरह आर्टेमिस अभियान में अमेरिका के अलावा जो अन्य देश शामिल हैं- मेक्सिको, ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया, इटली, यूक्रेन, पोलैंड और लग्जेमबर्ग, साथ ही जापान, कनाडा और यूरोप की ताकतवर स्पेस एजेंसियां जेएसए, सीएसए और ईएसए- उनसे किस तरह का सहयोग इसमें लिया जा रहा है। खासकर यूरोपियन स्पेस एजेंसी की तो पिछले तीस वर्षों में महत्वपूर्ण वैज्ञानिक प्रश्नों पर नासा से भी बड़ी भूमिका रही है। उसके वैज्ञानिकों और तकनीकविदों के लिए आर्टेमिस अभियान में नासा के पीछे-पीछे चलना आसान नहीं होगा।

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यह भी दिलचस्प है कि आर्टेमिस से जुड़ने का न्यौता शुरू में रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रोसकोसमोस के पास भी भेजा गया था, पर उसने इसे ज्यादा अमेरिका-केंद्रित माना और चीन से मिलकर अलग राह पर चलने का फैसला किया। दरअसल, डॉनल्ड ट्रंप की पहल पर शुरू किए गए आर्टेमिस अभियान की मूल चिंता चंद्रमा पर चीन के बढ़ते दखल से ही जुड़ी थी। ट्रंप की नजदीकी रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन से थी और यह बात उनकी कल्पना से परे थी कि यूक्रेन में या कहीं और इतनी जल्दी अमेरिका और रूस एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चा संभाल रहे होंगे।

चीन का चक्कर

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इसमें कोई शक नहीं कि चंद्रमा से जुड़े प्रयोगों में चीन मौजूदा सदी में अमेरिका समेत बाकी दुनिया से बहुत आगे है। उसके दो रोवर झूरोंग और यूटू-2 आज भी चंद्रमा पर मौजूद हैं और उनके प्रेक्षण दुनिया भर में चर्चा का विषय बने हुए हैं। इनमें ज्यादा खास है यूटू-2, जिसने चांद की पीछे वाली सतह पर अबतक गुजारे गए साढ़े तीन वर्षों में एक किलोमीटर दूरी भी तय की है। इतनी विषम परिस्थितियों में इतने लंबे समय तक काम करना एक चमत्कार ही कहा जाएगा। लगभग एक पखवाड़ा लंबी चंद्रमा की लंबी और अत्यंत ठंडी रातें यूटू-2 को अपने सोलर पैनल समेटकर किसी पत्थर के टुकड़े की तरह बितानी होती हैं। इस दौरान पारा माइनस 173 डिग्री सेल्सियस- कभी थोड़ा कम, कभी थोड़ा ज्यादा तापमान दिखाता है!

फिर जब एक पखवाड़े जितना ही लंबा दिन वहां उगता है, तब दोपहर होने तक तापमान प्लस 127 डिग्री सेल्सियस तक चला जाता है। यह टेंपरेचर रेंज इतनी बड़ी है कि धरती की ज्यादातर कामकाजी चीजें इसमें बिल्कुल नाकारा और भुरभुरी होकर रह जाती हैं। ऊपर से, चांद की दूर वाली सतह पर मौजूद यूटू-2 के एंटेना का पृथ्वी पर स्थित कंट्रोल रूम से कोई सीधा संबंध भी नहीं बन पाता। ऐसे में हर आदेश-निर्देश के लिए उसे एक चीनी चंद्र-उपग्रह के अपनी ओर आने का इंतजार करना होता है। आईएलआरएस के लिए उसका यह तजुर्बा अमूल्य साबित होगा।

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मोटे तौर पर कहें तो अभी शुरुआती चरण में लांचिंग में अमेरिकी खेमे का, जबकि चंद्रमा के जमीनी प्रयोगों में रूसी-चीनी खेमे का पलड़ा भारी है। दोनों खेमों के बीच अगर चंद्रमा के खनिज संसाधनों के, खासकर फ्यूजन रिएक्टर के संभावित ईंधन हीलियम-3 के दोहन को लेकर कोई स्वस्थ प्रतियोगिता देखने को मिले तो इसमें दुनिया का फायदा है। लेकिन अभी जिस तरह यूरेशिया के पश्चिमी हिस्से में यूक्रेन और इसके पूर्वी हिस्से में ताइवान को लेकर दोनों खेमों के बीच मिसाइलें सनसना रही हैं, उसे देखते हुए लगता नहीं कि चंद्रमा पर ये किसी महान मानवीय उद्देश्य को लेकर अपना डेरा गिराने जा रहे हैं। यह पृथ्वी का दुर्भाग्य इसके उपग्रह तक पहुंचने जैसा ही है।

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