आशीष भारद्वाज-
सहरसा यूं तो छोटा सा शहर है, अधखुली आँखों जैसा सुस्ताता हुआ सा, पर जिन कुछ चीजों और लोगों की वजह से ये शहर थोड़ा जाना जाने लगा है, उनमें से एक आनंद मोहन सिंह भी हैँ. उनका पैतृक गाँव शहर से बस 6 किलोमीटर दूर है. तकरीबन छः महीने पहले 16 साल बाद वो जेल से रिहा हुए और तब से ही सुर्खियों में हैँ. उनके ‘आज़ाद’ होने के बाद से सहरसा और कोसी इलाके में सियासी प्रतिस्पर्धा में भी तेजी दिख रही है. ये कहानी यही आंकने की कोशिश है कि उनके बाहर आने के बाद समाज की क्या प्रतिक्रिया रही है.
थोड़ा पहले से शुरू करते हैं. 1966 की बात है, शिवभूषण दत्त, जो सेवानिवृत शिक्षक हैं, उच्च विद्यालय, त्रिवेणीगंज (अब इसे जनरल हाई स्कूल कहा जाता है) में पढ़ाई कर रहे थे. आनंद मोहन उनसे दो साल जूनियर थे. पूछने पर बताते हैँ कि आनंद मोहन छात्र तो सामान्य थे पर जोश और जूनून से भरपूर.
दत्त मुस्कुराते हुए याद करते हैं, “हम लोगों को ज़ब देशभक्ति गाना सुनना होता था तो मोहन को बुलाते थे. वो ऊंची आवाज़ और मनोयोग से देशभक्ति गाने सुनाते थे. अच्छा लगता था. हमलोगों को लगता था कि भगत सिंह और बोस की आत्मा इसके अंदर घुस गयी हो.“ आनंद के भाई मदन जी शिवभूषण दत्त के क्लासमेट थे, सो इस समूह में आनंद भी सहज़ महसूस करते थे. तारिणी सिंह इस स्कूल के प्रिंसिपल थे और मेस भी चलाते थे. इन लोगों का नाश्ता-खाना यहीं होता था. इसी स्कूल में विज्ञान के शिक्षक रहे जटाशंकर दत्त कहते हैं, “आनंद मोहन में शिक्षकों के प्रति बहुत आदर-भाव था. कोई शिकायत नहीं होती थी.”
1974 के छात्र आंदोलन में दत्त और मोहन, दोनों शामिल हुए. दत्त कहते हैं, “छात्र आंदोलन के दौरान हम लोगों को चंदा के रूप में सौ-दो सौ रुपये जुटाने में भी दिक्कत होती थी. आनंद मोहन के आने के बाद चंदे की रकम हज़ारों में जाने लगी. उनकी सांगठनिक क्षमता अच्छी थी.” मैंने पूछा कि अब वो बाहर हैं और अपनी राजनीतिक गतिविधियों को तेज़ कर रहे हैं तो आपको क्या लगता है कि क्या कोई जातीय या सामाजिक गोलबंदी हो रही है. उन्होंने उत्तर दिया, “हम तो चाहते हैं कि वो अच्छा करें लेकिन पीछे घट चुकी घटनाएं उनकी राह मुश्किल करेंगी. लेकिन वो संगठनकर्ता अच्छे हैं वरना यूं ही कोई पार्टी बनाके पूरे बिहार में चुनाव थोड़े न लड़ लेगा!
नब्बे की शुरुआत में आनंद मोहन महिषी से विधायक चुने गए. बड़े मार्जिन से जीते थे. 31 दिसंबर 1991 को आनंद मोहन माया मैगज़ीन के कवर पर नज़र आते हैं. वो कुर्सी पर बैठे हैं और उनके पीछे कई शूटर्स हाथ में बंदूक लिए खड़े हैं. कवर पर लिखा था, “यह बिहार है.“ नीचे उनका नाम भी लिखा था:विधायक आनंद मोहन. इस कवर की देश में काफी चर्चा और बिहार के हालात की खासी आलोचना हुई.
5 दिसंबर ’94 को छोटन शुक्ला की शवयात्रा के दौरान गुस्साई समर्थकों की भीड़ ने गोपालगंज के जिलाधिकारी जी कृष्णय्या की हत्या कर दी. इस शवयात्रा के नेतृत्वकर्ताओं में से एक आनंद मोहन भी थे. आरोप गंभीर थे, काफी शोर-शराबा हुआ. 2007 में आनंद मोहन को फांसी की सज़ा हुई, जो साल भर बाद उम्र क़ैद में तब्दील हो गई. इसके बाद सोलह साल उन्होंने जेल में गुज़ारे. जेल में उन्होंने कविताएं लिखी, गद्य लिखे. इसी साल अप्रैल में बाहर आये और तब से चर्चा में बने हुए हैं.
इन चीजों को और बेहतर समझने के लिहाज़ से मैंने आनंद मोहन से मिलने का वक़्त माँगा, जो मुझे मिल गया. सुबह-सुबह मिलने पहुंचा. सफ़ेद धोती और टीशर्ट पहने आनंद मोहन बाहर आते हैं. आते ही उन्होंने बताया कि आने वाले 27 तारीख़ को उनके दादा रामबाहादुर सिंह, जो प्रखर गाँधीवादी स्वतंत्रता सेनानी थे, के आदमकद मूर्ति का अनावरण होगा. उसी की तैयारी में लगे है. नीतीश जी भी आएँगे. आगे बोले, “बेवजह विवाद हो रहा है. मेरे घर तो गाँधी जी भी आए हैं, चंद्रशेखर भी आए हैं. स्वतंत्रता सेनानी की मूर्ति का अनावरण है. इसे ऐसे ही लेना चाहिए.”
’74 के छात्र आंदोलन और फिर इमरजेंसी का ज़िक्र करते हुए बोले, “हम 6 बार गिरफ्तार हुए. नाइंसाफी तब भी पसंद नहीं था, अब भी नहीं है.”
मैंने उनसे सवाल किया कि आप सोलह साल बाद बाहर आये हैं, सभी अख़बारों और मीडिया में आपको “डॉन टर्न्ड पॉलिटिशियन”, बाहुबली और अपराधी कहा गया, तो छवि निर्माण के इस दौर में आप फिक्रमंद नहीं हैं? उन्होंने कहा, “सुन लीजिए. हम समाजवादी थे, समाजवादी हैं और समाजवादी रहेंगे. आप ही बताइये, एक तरफ आम लोगों का पेट हिन्द महासागर की तलहटी में है तो दूसरी तरफ कुछ अमीर लोगों का पेट एवेरेस्ट छू रहा है. ऐसा चलते रहना संभव है क्या?”
छवि वाली बात पर आनंद बोले कि हम तो फेसबुक, ट्विटर पर भी नहीं हैं. जनता के बीच रहते हैं. यह समझना होगा कि राजनीति तिज़ारत नहीं है, इसके लिए नैतिक बल और चरित्र बल चाहिए. आनंद मोहन कहते हैं, “हम तो सोलह साल बाद आए और फिर से अपने पुरखों की विरासत संभाल रहे हैं.”
अपने राजनीतिक सफर में आनंद मोहन धर्मनिरपेक्षता की डोरी थामे रहे हैं. मैंने सवाल किया कि जैसा दौर चल रहा है, संघ का इतना विशाल नेटवर्क है, तो इस लहर का सामना कैसे करेंगे? उन्होंने कहा, “ये सारा नेटवर्क, ये पूरा साम्राज्य झूठ पर आधारित है, संकीर्णता पर आधारित है. आनंद मोहन ज़रा भी चिंतित नहीं होता है. बीएचयू में घुस कर संघ वालों को सबक सिखाए हैं. कौरव के पास महारथियों की फौज थी, रावण तो शनि को पैरों तले कुचल दिया था, दसों दिक्पाल को कैद कर लिया, स्वर्ग में सीढ़ी लगा रहा था लेकिन हार किसकी हुई. रावण से बड़ा नेटवर्क तो किसी का नहीं हुआ. रावण अनैतिकता और अनाचार पर था, इसीलिए उसकी हार हुई. आरएसएस कट्टरता और संकीर्णता पर है, इसीलिए हार होगी. गाँधी को तो मार दिया गया लेकिन उनके विचार ज़िंदा हैं. आज भी दुनिया के 120 देशों में गाँधी अपनी लाठी लिए खड़े हैं और भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और यही संघ वाले जब वहां पहुँचते हैं तो उनको प्रणाम करते हैं.”
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि आम लोग समझ नहीं पा रहे हैं. जब तक ये समझ में आये, कहीं देर ना हो जाय. देश की आर्थिक दशा ख़राब है. उन्होंने कहा, “आप थोड़ा पैसा भी बैंक से लेंगे, नहीं दे पाएंगे तो पुलिस कमर में रस्सा लगा के ले जाएगी. और इनकी नज़रों के नीचे से इतने उद्योगपति देश का हज़ारो करोड़ लेकर फरार हैं. आपके पास एक भी कफ़ सिरप मिल गया तो भीतर लेकिन बंदरगाहों पर हज़ारों करोड़ के ड्रग्स बरामद हुए और कार्रवाई के नाम पर सिफर! हमारे बिहार के नौजवान बड़े शहरों में 12 घंटा, 15 घंटा काम करते हैं, छुट्टी नहीं मिलती या बहुत काम मिलती है. बहन की शादी हो या मां बीमार हो, आपको छुट्टी नहीं देंगे. काम को ना कहेंगे तो नौकरी चली जाएगी वो अमानवीय परिस्थितियों में रहते हैं और पढ़े-लिखे नौजवानों का भारी शोषण हो रहा है लेकिन ये लोग कह रहे हैं” “मोदी मोदी मोदी” (उसी राइमिंग में सुनाते हैं जैसे ये नारा लगाया जाता है.)
राजपूत समाज के नेता होने वाली बात पर आनंद मोहन ने कहा कि जब हम पहला विधानसभा चुनाव महिषी से जीते, वही इस बात का जवाब है, “हम 67 हज़ार वोट से जीते जबकि उस विधान सभा में सिर्फ पौने सात हज़ार राजपूत मतदाता थे. हमको सबने समर्थन दिया. मुसलमान और मध्य जातियों के लोगों का स्नेह हमको आज भी मिलता है.”
मैं ज़िक्र करता, इससे पहले ही उन्होंने राजद के राज्यसभा सनसद मनोज झा पर बात शुरू कर दी. दरअसल पिछले दिनों संसद में मनोज झा ने ओमप्रकाश वाल्मीकि की एक कविता पढ़ी, “ठाकुर का कुआं.” इसमें झा ने अंत में कहा कि सबको अपने अंदर के ठाकुर को मार देना चाहिए. यह बात आनंद मोहन को चुभ गई और उन्होंने मनोज झा को खूब खरी-खोटी सुनाई. बिहार और अन्य कई राज्यों से राजपूत नेताओं ने अपनी असहमति दर्ज़ की.
आनंद मोहन ओमप्रकाश वाल्मीकि की एक दूसरी कविता सुनाते हैं, जो नीचे है.
मेरी माँ ने जने सब अछूत ही अछूत
तुम्हारी माँ ने सब बामन ही बामन।
कितने ताज्जुब की बात है
जबकि प्रजनन-क्रिया एक ही जैसी है।
आनंद मोहन कहते हैं, ” अगर मनोज झा जी में हिम्मत है तो ये कविता बनगांव आकर सुना दें. पता चल जाएगा. मनोज झा विद्वान आदमी हैं लेकिन संसद में ऐसे नहीं बोलना चाहिए था. ठाकुर की पूजा तो कबीर भी करते थे. बिहार के हर गांव में ठाकुरबाड़ी है.”
आगे की बातचीत में आनंद मोहन थोड़े दार्शनिकनुमा होकर कहते हैं, “दो ही ध्रुव है, गाँधी और मार्क्स. जो मार्क्स से निराश होगा, गाँधी की तरफ जायेगा और जो जो गाँधी से उदास होगा, वो मार्क्स की तरफ जाएगा. जो त्रस्त मानवता है, जिनका पेट खाली है, वो या तो मार्क्स को मानेगा या गाँधी की शरण में जाएगा. अगले हज़ार साल तक इस सच्चाई काट नहीं सकता. बताइये, ये लोग गाँधी का ही चश्मा लेकर स्वच्छता अभियान चला रहे हैं.”
इनसे मुलाकात गांधी की बात पर ख़त्म हुई. अब मुलाकात एक वृद्ध सज्जन से होती है, जो नाम ना छापने की शर्त पर बात करने के लिए तैयार हैं. मैंने पूछा कि क्या आनंद मोहन के होने से राजपूत समाज की एकता बढ़ेगी और गोलबंदी मजबूत होगी? राजनीतिक कद बढ़ेगा? उन्होंने कहा, “राजपूत कोई एकाश्मिक समाज नहीं है. इसमें भी भांति-भांति के लोग हैं और कई तरह के विचार हैं. पसंदगी और नापसंदगी इसी से तय होती है.”
अभिषेक सहरसा के कहने वाले हैं हैं बैंगलोर में नौकरी करते हैं. अब मैंने एक अप्रवासी बिहारी, जिसने 90 और 2000 का दशक सहरसा में गुज़ारा हो, की राय लेने की सोची. मैंने अभिषेक से पूछा कि क्या आनंद मोहन इस इलाके में राजपूतों में अब भी वैसी ही दखल रखते हैं?
उन्होंने उदहारण भी दिया, “अब आप पिछले विधानसभा चुनाव का परिणाम ही देख लीजिये. लवली आनंद यहाँ से राजद की उम्मीदवार थीं. जातीय और राजनीतिक समीकरण पक्ष में नज़र आ रहे थे. उन्हें तकरीबन 38% वोट मिले फिर भी बीस हज़ार वोट से हार गयीं. यह सवाल मन में उठना लाजमी है कि क्या राजद के साथ होने की वजह से स्वजातीय समूह ने ही वोट नहीं दिया!”
अभिषेक ने कहा, “राजपूत समाज का अधिकांश हिस्सा अब भी आनंद मोहन की कद्र करता है. कहने को तो कई विधायक हैं, मंत्री हैं, पर आप किसी भी राजपूत से पूछिए तो वो बताएगा कि आनंद मोहन राजपूतों के सर्वमान्य नेता हैं.” सहरसा में रहने वाले कई और नौजवानों से बातचीत के क्रम में भी ऐसी ही बातें सुनने को मिलीं. यहाँ मुझे बरबस फणीश्वर नाथ रेणु की वो पंक्ति याद आयी, जिसमे वो कहते हैं कि जाति बहुत बड़ी चीज है. जात-पात नहीं मानने वाले की भी जाति होती है.
श्रवण भगत बिहार पुलिस में हैं. हमउम्र हैं. उनसे यों ही औचक ही पूछा, बताओ, आनंद मोहन के बारे में क्या ख्याल है? बोला, ” कोशी चौक पर भैया का दूकान था. उस वक़्त आनंद मोहन का ऑफिस भी इधर ही था. बाजार में पचहत्तर दक्कतें होती हैं. लेकिन जब जब तक वो थे, भैया को कोई दिक्कत नहीं हुई. किसी लोकल को को कोई परेशनो नहीं थी.” वक़्त मेले का था सो आगे और लड़के मिले, उनसे बात हुई. वही बेफिक्री नुमायां थी. बात-बात में बताया कि गुंडई करनी है, पर जिम्मेदारी नहीं चाहिए. प्रभाव हो, पैसा हो, परोपकार क्या होता है, ये नहीं मालूम. मैंने पूछा कि क्या आनंद मोहन रोबिन हुड हैं? प्रत्युत्तर: रोबिन हुड कौन है हो?
अनुसूचित जाति के एक कामकाजी नौजवान ने बताया, “नब्बे का दशक हम लोगों के लिए भयावह था. आनंद मोहन का उभार चरम पर तो था ही, उनके नाम पर युवाओं ने छोटी जाति के लोगों को बहुत तंग किया. वो जिस जमीन पर पैर रख देते, फिर ज़मीन उनकी. चाहे कितनी भी जोर-जबरदस्ती करनी पड़े. गरीब लोग अपनी खैरियत के लिए यादव नेताओं के पास जाने लगे. राजपूत और यादवों के बीच सिलसिलेवार अदावत और हिंसा की शुरुआत यहीं से होती है.”
सियासी जानकार कयास लगा रहे हैं कि आनंद मोहन जद (यू) का रुख कर सकते हैं. सत्ताधारी पार्टी जद (यू) ने इसी साल जनवरी में एक पार्टी कार्यक्रम किया था, जिसमे, राजपूतों को अपने पाले में लाने की कोशिश साफ़ दिख रही थी. आनंद मोहन कोसी ही नहीं, बिहार के हर पॉकेट में राजपूत मतदाताओं को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उनकी इस क्षमता से अपरिचित होंगे, ये सोचना सियासी मासूमियत है. दरअसल अब मूलतः ओबीसी आधारित जनाधार से आगे बढ़ने की कोशिश दोनों ही पार्टियां कर रही हैं. तभी राजद अब खुद को ‘एमवाय’ की बजाय ‘ए टू जेड’ की पार्टी बताती है तो जद (यू) अगड़ी जातियों के नेताओं से संपर्क में हैं.
इस स्टोरी को करते हुए बीसियों लोगों से बात हुई लेकिन उनमें से अधिकांश अपना नाम देने को तैयार नहीं दिखे. अज्ञात का भय बरकरार है.ऐसे में अकबर इलाहाबादी का ये शेर मौजूं मालूम पड़ता है:
शेर कहता है बज़्म से न टलो
दाद लो, वाह की हवा में पलो
वक़्त कहता है काफ़िया है तंग
चुप रहो, भाग जाओ, साँस न लो
आशीष भारद्वाज वरिष्ठ पत्रकार हैं. संपर्क- +91 99588 59114