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उत्तर प्रदेश

दिल्ली में बीजेपी को मात से यूपी में विरोधियों की बाछें खिली

संजय सक्सेना, लखनऊ

जंग और मोहब्बत में सब कुछ जायज होता है। यह जुमला मौजूदा सियासत पर बिल्कुल फिट बैठता है। अगर ऐसा न होता तो कांग्रेसी दिल्ली में खुद को मिटाकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की हार का जश्न नहीं मानते। दिल्ली पर लम्बे समय तक राज करने वाली कांग्रेस का पिछली बार की तरह इस बार भी खाता नहीं खुला, इससे भी शर्मनाक स्थिति यह रही कि उसका वोट प्रतिशत भी पांच से नीचे खिसक गया। यही हाल सपा-बसपा का भी रहा,दिल्ली विधान सभा चुनाव में तीनों दलों का कुल वोट प्रतिशत भी दहाई का आकड़ा नहीं पार कर पाया, लेकिन अपनी शर्मनाक हार को भूलकर कांगे्रस, सपा, बसपा खुशी इस बात की मना रहे हैं कि भाजपा दिल्ली जीत नहीं सकी,ऐसा तब है जबकि भाजपा का दिल्ली विधान सभा चुनाव में वोट प्रतिशत 40 फीसदी से अधिक रहा था। बीजेपी विरोधी दलों की इसी दोमुंही राजनीति ने उत्तर प्रदेश की सियासत को भी गरमा दिया है।

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दिल्‍ली विधानसभा चुनाव 2020 में बहुजन समाजवादी पार्टी ने अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन किया। इस बार बसपा को 1 फीसदी से भी कम वोट हासिल हुए। शाहीन बाग और बिजली-पानी के बीच बंटे चुनाव में बसपा को सिर्फ 0.58 फीसदी वोट ही हासिल हुए। गौरतलब हो, बसपा ने दिल्‍ली में 1993 में पहली बार विधानसभा चुनाव में खम ठोका था। उस समय पार्टी ने 55 प्रत्‍याशियों को मैदान में उतारा था. तब उसे 1.88 फीसदी वोट हासिल हुए थे। 1998 में बसपा ने 40 प्रत्‍याशियों को चुनाव में उतारा था और 5.76 फीसदी वोट के साथ मत-प्रतिशत में बढ़ा था। 2003 में बसपा ने फिर मत-प्रतिशत में बढ़त दर्ज की। उसे 2003 के विधान सभा चुनाव में 8.96 फीसदी वोट हासिल हुए। उत्‍तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2007 में 206 सीट जीतने वाली बसपा ने दिल्‍ली में 2008 में हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी ने दो विधानसभा क्षेत्रों में जीत दर्ज की तो उसका वोट प्रतिशत बढ़कर 14.05 फीसदी हो गया था। 2013 के दिल्‍ली विधानसभा चुनाव में बसपा ने 69 प्रत्‍याशी मैदान में उतारे, लेकिन उसको 5.35 फीसदी वोट से ही संतोष करना पड़ा था। इसके बाद 2015 चुनाव में पार्टी की स्थिति और खराब हो गई। बसपा को महज 1.30 फीसदी वोट मिले। जो अबकी से सबसे कम 0.58 फीसदी वोट पर पहुंच गए। अबकी दिल्‍ली में पार्टी का सबसे खराब प्रदर्शन रहा,जबकि इस बार पार्टी ने सभी 70 सीटों पर अपने प्रत्‍याशी उतारे थे। इससे साफ जाहिर होता है कि बसपा से दलित बिछड़ते जा रहे हैं।

बहरहाल, हिन्दुस्तानी राजनीति का यह दस्तूर है कि यहां आप अपने गिरेबान में झांकने की बजाए दूसरे के गिरेबां में झांकना बेहतर समझा जाता है। दूसरों की गलती निकाल कर सियासत की जाती है। इसी लिए जब यूपी कांग्रेस और क्षेत्रीय क्षत्रपों माया-अखिलेश को इस बात का अहसास हुआ कि दिल्ली चुनाव में योगी की जनसभाओं से बीजेपी को कोई फायदा नहीं मिला, तो वह योगी सरकार और बीजेपी पर हावी होने की सियासत चमकाने लगे हैं। बीजेपी की हालात पतली जानकर मायावती-अखिलेश सहित कांग्रेस ने भी यूपी में अपनी खोई ‘जमीन’ तलाशने के लिए सियासी मोर्चा खोल दिया है, जिसके चलते आने वाले समय में योगी सरकार को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। विरोधी दलों के नेता अब सीएए, एनपीआर और एनआरसी के विरोध की धार और तेज करना चाहते है। मुसलमानों को लुभाने, हिन्दुओं को बांटने की पुरानी सियासत को आगे बढ़ाया जा रहा है। आरक्षण के नाम पर हिन्दुओं को बांटा जा रहा है।

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इस सारे उपक्रम में प्रियंका वाड्रा सबसे आगे नजर आ रही हैं। भले ही दिल्ली विधान सभा चुनाव में कांगे्रस का खाता नहीं खुला और उसे 4.26 प्रतिशत वोट ही मिले हों, उसके 67 प्रत्याशियों की जमानत तक जब्त हो गई हो,लेकिन इससे सबक लेने और आत्म मंथन के बजाए कांग्रेस की महासचिव प्रियंका वाड्रा और पूरी की पूरी यूपी कांगे्रस प्रदेश में जातिवादी और तुष्टिकरण की राजनीति चमकाने के एजेंडे को ही आगे बढ़ा रही हैं। प्रियंका का पहले संत रविदास जयंती पर वाराणसी जाकर दलितों को लुभाना और अब आजमगढ़ में सीएए का विरोध करने वालों के घर जाकर उन्हें झूठी तसल्ली देना काफी कुछ कहता है। आजमगढ़ में प्रियंका ऐसे लोगों से मुलाकात कर रही हैं जिनके खिलाफ पुलिस ने दंगा भड़काने और हिंसा फैलाने के चलते कार्रवाई की थी। आजमगढ़ में प्रियंका और कांगे्रस के नेता भाजपा ही नहीं वहां के सांसद और सपा मुखिया अखिलेश यादव के खिलाफ भी मुसलमानों को भड़का रहे हैं। लोगों से पूछा जा रहा है कि सीएए का विरोध करने वालों का साथ देने के लिए अखिलेश क्यों नहीं आए।

गौरतलब हो, नागरिकता संशोधन कानून बनने के बाद अन्य शहरों की तरह आजमगढ़ में भी सीएए के खिलाफ लोगों का धरना मौलाना जौहर पार्क बिलरियागंज में चला था। विरोध करने वालों के खिलाफ स्थानीय पुलिस ने कई मुकदमे दर्ज किये और इस मामले में कई जेल में बंद हैं। जेल में बंद लोगों से हाल ही में कांग्रेस का एक प्रतिनिधिमण्डल मिलने पहुंचा था। इसके साथ ही कांग्रेस अल्पसंख्यक सेल ने आजमगढ़ में एक पोस्टर भी लगाया था। इसमें सपा मुखिया अखिलेश यादव की इस मामले पर चुप्पी पर कटाक्ष किया गया था। अब इस क्रम को प्रियंका आगे बढ़ा रही हैं। आजमगढ़ से पहले प्रियंका लखनऊ सहित कई शहरों में सीएए का विरोध करने वालों से मिल चुकी थीं।

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बहरहाल,तमाम किन्तु-परंतुओं के साथ इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों से उत्तर प्रदेश की सियासत पर हाल-फिलहाल कोई बड़ा असर पड़ने वाला नहीं है। यूपी में अभी करीब दो साल बाद 2022 में विधान सभा चुनाव होने हैं। इसके अलावा दिल्ली और उत्तर प्रदेश के राजनैतिक और सामाजिक समीकरण काफी भिन्न हैं। फिर भी भाजपा और योगी सरकार को दिल्ली में मिली करारी हार के बाद अपने काम फैसलों के साथ जनता के बीच उसे पहुंचाने व कठिनाइयां दूर करने पर ज्यादा ध्यान देने की जरूत है।

दरअसल, दिल्ली में भाजपा का मत प्रतिशत विधानसभा चुनाव 2015 के मुकाबले लगभग उतना ही बढ़ा है,जितना कांग्रेस का कम हुआ हैं। आम आदमी पार्टी ने भी भले 52 सीटों पर जीत दर्ज की हो लेकिन ‘आप’ के मत प्रतिशत में भी आधा प्रतिशत ही कमी आई। इससे संकेत निकल रहा हैं कि पांच साल सरकार चलाने के बावजूद आप ने 2015 में मिले अपने वोट को किसी न किसी तरह मजबूती से जोड़ रखा। उसकी वजह चाहे लुभावनी धोषणाएं हों, स्कूलों व स्वास्थ्य सेवाओं का कायाकल्प मुफ्त बिजली, पानी या फिर महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा अथवा लोगों से जमीनी संवाद की शैली हो।

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सवाल उठ सकता हैं कि 2015 के चुनाव की तुलना में मत प्रतिशत भाजपा का बढ़ा तो फिर उतना लाभ क्यों नहीं हुआ। इसलिए समझना होगा कि भले ही कमल के वोट बढ़े हो, लेकिन आठ महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव की तुलना में काफी बड़ी गिरावट आई है? भाजपा को तब दिल्ली में 57 प्रतिशत वोट मिले थे। इस बार उसे सिर्फ 38.5 प्रतिशत वोट ही मिले।

दिल्ली के नतीजों के आधार पर देखें तो उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के फिर से एक होने की जल्दी कोई उम्मीद नही है। कांग्रेस जिस तरह से सपा-बसपा के मुस्लिम और दलित वोट बैंक में सेंधमारी करने में लगी है उसके चलते मायावती और अखिलेश, कांग्रेस से खुश नहीं हैं। खासकर प्रियंका द्वारा यूपी में जो सियासी तेजी दिखाई जा रही है, उससे दोनों क्षेत्रीय क्षत्रप चौकन्ने हो गए हैं। उधर, 2017 के विधान सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा से ठुकराए जाने के बाद कांग्रेस ‘एकला चलो की नीति चलने को मजबूर नजर आ रही है।

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राजनैतिक पंडितों का कहना है कि जब तक सपा, बसपा और कांग्रेस अलग-अलग है, भाजपा के लिए कोई मुश्किल नहीं है। फिर यूपी में विपक्ष के पास अरविंद केजरीवाल जैसा कोई चेहरा भी नही हैं, जिसके पीछे भाजपा विरोधी वोट लामबंद किए जा सके। सपा-बसपा को यूपी की जनता कई बार अजमा भी चुकी है, इसलिए अखिलेश हों या मायावती उनकी बातों पर विश्वास करने की कोई नई वजह भी जनता के सामने नहीं है।

रही बात कांग्रेस की तो भले ही प्रियंका गांधी प्रदेश में एक साल से अलग-अलग घटनाओं को लेकर लोगांे से मिल रही हों, लेकिन प्रदेश की जनता राहुल की तरह प्रियंका को भी गंभीरता से नहीं ले रही है। फिर भी भाजपा नेतृत्व को समझना होगा की राष्ट्रीय और राज्य के चुनाव में काफी अंतर होता है। योगी सरकार को राज्य की जनता की कठिनाइयों पर अपनी सीधी नजर रखकर उनका समाधान करने पर ध्यान देना होगा। अपने कामों को लोगों के बीच पहुुंचना होगा और कार्यकर्ताओं की अपेक्षाओं पर भी खरा उतरना होगा। सपा, बसपा और कांग्रेस को भी मुकाबला करना है तो उन्हें हिंदुत्व से जुड़े सरकार के फैसलों व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अतार्किक हमलों से बचना होगा।

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लेखक संजय सक्सेना वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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0 Comments

  1. February 14, 2020 at 1:39 am

    “आरक्षण के नाम पर हिन्दुओं को बांटा जा रहा है।”
    जय से तो EWS कोर्ट के लायक लग रहे हैं वरिष्ठ

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