धोनी के व्यक्तित्व की इसी निर्लिप्तता ने लोकभावना को लुभा लिया है!

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सुशोभित-

महेंद्र सिंह धोनी इकलौते ऐसे खिलाड़ी हैं, जिनकी क्रिकेटप्रेमी सराहना करना चाहते हैं और सराहना करने के उपाय खोजते हैं। बल्लेबाज़ी नहीं तो विकेटकीपिंग की चपलता ही सही, या कप्तान के रूप में कुशाग्र मस्तिष्क ही सही, या एक व्यक्ति के रूप में शांतचित्तता, धैर्य, परिपक्वता का परिचय देना ही सही। क्रिकेटप्रेमी हमेशा उनके बारे में कोई अच्छी बात सोचना चाहते हैं। ऐसा क्यों है, इसकी व्याख्या करना बहुत कठिन है। प्रतिमाभंजन के दौर में जब शीर्ष पर बैठे किसी भी व्यक्ति पर लांछन लगाने में सामूहिक अवचेतन को सुख मिलता हो, तब महेंद्र सिंह धोनी के व्यक्तित्व में मिथकीयता के ऐसे सचेत-समावेश के कारण खोजना बहुत रोचक हो जाता है।

आईपीएल फ़ाइनल में वे पहली गेंद पर शून्य पर आउट हुए। जब वो बल्लेबाज़ी करने आए थे, तब गेम चेन्नई के हाथ में था। उनके आउट होने के बाद पाँसा लगभग उलट गया। चेन्नई वह मैच हार ही गई थी, अगर अंतिम दो गेंदों में दस रन बनने का चमत्कार नहीं होता। ऐसा कम ही होता है कि जिस गेंदबाज़ ने आख़िरी ओवर की चार गेंदें सटीक डाली हों, वह निर्णायक दो गेंदें ग़लत डाल दे- एक हॉफ़ वॉली पर, दूसरी वाइड फ़ुलटॉस। गेंदबाज़ और उनके कप्तान को जाने क्या सूझी, जो उन्होंने चार गेंद डालने के बाद वॉटर ब्रेक लेने का फ़ैसला किया, रिदम टूट गई। पर इसने चेन्नई और उनके कप्तान को उनका पाँचवाँ ख़िताब दिला दिया। यह आईपीएल इतिहास की सबसे लोकप्रिय और सबसे सफल टीम है, और उनके कप्तान एक किंवदंती हैं। पर क्यों?

जब महेंद्र सिंह धोनी नए-नए आए थे, तब ऊपरी क्रम पर आकर ताबड़तोड़ बल्ला भाँजते थे। पाकिस्तान के विरुद्ध 148 और श्रीलंका के विरुद्ध 183 रनों की बड़ी पारियाँ उन्होंने तीसरे क्रम पर आकर खेलीं। विश्वकप फ़ाइनल में चौथे क्रम पर आकर अपने कॅरियर की सबसे यादगार पारी खेली। वे 50 ओवरों के क्रिकेट के लिए उपयुक्त खिलाड़ी थे, क्योंकि उन्हें लय में आने में समय लगता है, पर जमने के बाद वे आसानी से आउट नहीं होते और जिताकर ही मानते हैं। टी-20 में आँख जमाने का समय नहीं होता। ख़ासतौर पर छठे या सातवें क्रम के बल्लेबाज़ के लिए तो हरगिज़ नहीं, जिसे बामुश्किल सात-आठ गेंदें ही खेलने को मिलती हैं। एक बल्लेबाज़ के रूप में महेंद्र सिंह धोनी अरसे से परिदृश्य से विलीन हो चुके हैं, जबकि उन्होंने शुरुआती लोकप्रियता बल्ले के बल से ही अर्जित की थी। कॅरियर के जाने किस मोड़ पर महेंद्र सिंह धोनी ने यह निर्णय कर लिया कि वे बल्लेबाज़ी क्रम में जितना नीचे सम्भव हो, खेलेंगे। लम्बी पारियाँ खेलने का विकल्प उन्होंने स्वयं से छीन लिया। जो उनकी बल्लेबाज़ी से चमत्कृत होकर उनके प्रशंसक बने थे, तब उन्हें मजबूरन उनकी दूसरी ख़ूबियों पर ध्यान केंद्रित करना पड़ा- क्योंकि महेंद्र सिंह धोनी की सराहना नहीं करने का विकल्प प्रशंसकों ने स्वयं को नहीं दिया था। कई बार ऐसा लगता है कि धोनी को सराहना देश के सामूहिक अवचेतन के लिए एक वैसा आत्मीय सुख बन गया है, जिसे वो बारम्बार सहलाना चाहता है, उससे मुक्त नहीं होना चाहता।

बीती रात फ़ाइनल मुक़ाबले में गेंद पिच से बल्ले पर धीमी गति से आ रही थी। स्पिनर किफ़ायती ओवर डाल रहे थे और तेज़ गेंदबाज़ भी गेंद पर अंगुलियों को घुमाकर उसकी गति चुरा ले रहे थे। ऐसे में सीधे शॉट लगाने वालों की फ़ज़ीहत होती है, जबकि गेंद के पेस का इस्तेमाल करके टाइमिंग की मदद से रन बनाने वालों का हुनर इसमें निखरता है। इन मायनों में कल रात की सबसे क़ीमती पारी अजिंक्य रहाणे ने खेली। सलामी भागीदारी बढ़िया और टिकाऊ थी और चेन्नई ने रन-रेट को हमेशा नियंत्रण में रखा। जब धोनी आए, तब उनके प्रशंसकों का दिल धड़का तो होगा। क्योंकि वह न गेंद खर्चने का उपयुक्त समय था, न जल्दी आउट होने का। धोनी ने गेंदें नहीं ख़र्चीं, पर तुरंत आउट हो गए। प्रशंसक चाह रहे होंगे कि धोनी गेम को फ़िनिश करते, पर धोनी की बल्लेबाज़ी से अधिक आशाएँ नहीं लगाने की आदत उनके प्रशंसकों ने अनेक वर्षों से डाल रखी है। वे उनके द्वारा जब-तब लगाए जाने वाले दो-तीन छक्कों और पंद्रह-बीस रनों से ही संतुष्ट हैं। न धोनी की ही रुचि बल्लेबाज़ी में अधिक रह गई है। वे कैप्टेन-कोच की भूमिका में रहते हैं। खेल के बाद उन्होंने संकेत किया कि वे एक और आईपीएल सीज़न खेल सकते हैं, पर इसमें यह पूर्वधारणा शामिल है कि उन्हें स्वत: ही टीम में जगह भी मिलती रहेगी। शायद यह इतना भी निश्चित न हो। अलबत्ता ख़िताबी जीत बहुत सारी कमियों को छुपा लेती है।

जब रवीन्द्र जडेजा ने विजयी चौका लगाया तब धोनी ध्यानस्थ मुद्रा में आँख बंद किए बैठे थे। पुरस्कार-वितरण समारोह में हर बार की तरह उन्होंने स्वयं को पृष्ठभूमि में कर लिया। धोनी जानते हैं कि कैमरा उनका पीछा करता है और उन्होंने वैसे सार्वजनिक आचरण की कला को साध लिया है, जिस पर दर्शक मुग्ध हो जाते हैं। जिनका जीवन सार्वजनिक-पटल पर होता है, वो अनेक प्रकार की व्याख्याओं का विषय बनते हैं। भली-बुरी, उथली-गहरी तमाम तरह की बातें की जाती हैं। तब जो आत्मचेतस नायक होते हैं, वो किसी साधक की तरह अपने व्यक्तित्व का एक निश्चित रूपक रंगमंच पर प्रस्तुत करते हैं। यह बहुत श्रमसाध्य और कठिन होता है। धैर्य, परिश्रम, स्वाभाविकता और निरंतरता इसके अनिवार्य गुण हैं। धोनी ने इसमें महारत हासिल कर ली है। वे ऐसे खिलाड़ी हैं, जिनका उनके खेल से अधिक उनके व्यक्तित्व के लिए सम्मान किया जाने लगा है। पेशेवर खेलों की दुनिया में यह एक बड़ी उलटबाँसी है।

दो अप्रैल दो हज़ार ग्यारह को जब धोनी ने वानखेड़े में विश्वविजयी छक्का लगाया था तो वो गेंद को देर तक दर्शक-दीर्घा में जाते देखते रहे थे। उनकी आँखों में संयम का पिघला सीसा ढल गया था। गेंद के सीमारेखा पार करते ही उन्होंने बल्ले को जादुई अंदाज़ में लहराया और स्थिर हो गए। जिस दौर में एक शतक लगाकर युवा तुर्क तलवार की तरह बल्ला भाँजते हैं और दम्भ की दुदुम्भी बजाते हुए अपनी केंद्रीयता का जयघोष करते हैं, तब विश्वविजेता का वह अन्यभाव साधारण तर्कणा को उलट देने वाला था। वह दृश्य भारतीयों के मन-मस्तिष्क पर छप गया है। उस रात मुम्बई के समुद्रतट से जो चक्रवात उठा था, उसने समूचे भारत-देश को उन्मत्त कर दिया था। किंतु महेंद्र सिंह धोनी का व्यक्तित्व उस चक्रवात की धुरी की तरह था, जहां एक सुई भी नहीं डगमगाती।

धोनी के व्यक्तित्व की इसी निर्लिप्तता ने लोकभावना को लुभा लिया है। विजय पर वो आवेश में नहीं आते, पराजय पर हताश नहीं होते, वो इनके परे स्थिर बने रहते हैं। यों विजय के लिए वो भरपूर प्रयास करते हैं। अपने शिखर के दिनों में वो पिच पर एक अडिग पर्वत की तरह दिखलाई देते थे। वो आख़िर तक क़िला लड़ाते, और बहुधा जीतकर लौटते। किंतु एक श्रमसाध्य विजय के बाद भी उत्सव मनाने का उनका तरीक़ा प्रतिपक्षियों से हाथ मिलाने और यादगार के तौर पर एक विकेट को अपने साथ लेकर चल देने का होता। दर्शक सोचने पर विवश हो जाते कि वो ऐसा क्यों करते हैं, वो अधीर-आवेश से जश्न क्यों नहीं मनाते। तब उनमें से बहुतेरे इस पर विचार करते कि जब दूसरे खिलाड़ी अपने शरीर को इस्पात की तरह ढाल रहे थे, तब महेंद्र सिंह धोनी ने अपने मन को रथ में जुते अश्व की तरह साधा था। उन्होंने स्वयं को विचलित होने की अनुमति नहीं दी। उन्होंने मान लिया था कि उन्हें विचलित होने का कोई अधिकार नहीं है।

धोनी लम्बे समय तक टीम के कप्तान थे, फिर वो टीम के सबसे वरिष्ठ खिलाड़ी की तरह खेले। उन्होंने स्वयं के लिए उत्तरदायित्व चुने और उनका निर्वाह किया। वो किसी परिवार के मुखिया की तरह सोचते थे। उन्होंने उसी तरह क्रिकेट खेला, जैसे किसी मध्यवर्गीय परिवार का मुखिया घर चलाता है। जैसे मुखिया अपनी आमदनी और ख़र्चे के अनुपात को महीने की 30 तारीख़ तक खींचकर लाना चाहता है, धोनी ने भी हमेशा चाहा कि वो खेल को अंत तक लेकर जाएँ। उनके व्यक्तित्व में यह जो व्यवहारकुशलता है, धैर्य और ठहराव है, और सबसे बढ़कर उनमें जो आत्मविलोपन है, उसने असंख्यों को उनका चहेता बना दिया है। आख़िरकार बात केवल खेल की नहीं है, आपके व्यक्तित्व के आयाम कितने गम्भीर हैं, इसको भी लोकमानस चीन्हता है और अपने जीवन के अनुक्रमों को उनसे जोड़कर देखने लगता है।

महेंद्र सिंह धोनी की लोकप्रियता और दर्शकों से उन्हें मिलने वाला अनवरत स्नेह और आशीर्वाद एक ऐसा रहस्य है, जिस पर अनेक पन्ने रंगे जा सकते हैं- यहाँ तो केवल भूमिका ही बाँधी है!

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