चंद्रभूषण-
बुद्ध की ध्यान पद्धतियों में एक थी- फूल को देखना। मुंह अंधेरे किसी तालाब के किनारे बैठ जाओ और वहां गर्व से उपर उठी एक कमल कली पर अपनी आंखें टिका दो। तुम्हारा किसी आसन में होना जरूरी नहीं। यह भी नहीं कि पलकें तुम्हारी लगातार टंगी रहें। जैसे जी करे वैसे देखो, क्योंकि और कुछ नहीं, सिर्फ देखना महत्वपूर्ण है। उस तनी हुई, बिल्कुल ठोस हरी चीज में धीरे-धीरे हल्की लालिमा फूटती है। फिर कुछ देर बाद हरापन गायब हो जाता है और अद्भुत लाली लिए, पूरी तरह खिला हुआ एक फूल तुम्हारे सामने होता है।
ज्यादा गौर से देखने पर उसके बीच में पीले पराग की हल्की झलक भी मिलने लगती है, जिसका रस लेने के लिए भौंरे उस पर मंडराने लगते हैं। अब तक शायद दोपहर हो चुकी हो और तीखी धूप तुम्हें तंग करने लगी हो। उस एक ही जगह बैठे रहने की कोई बाध्यता तुम्हारे लिए नहीं है। चाहो तो उठकर छाया में चले जाओ। बाध्यता सिर्फ एक है कि तुम्हें उसी फूल को लगातार देखना है। थोड़ी देर बाद कमल की पंखुड़ियां सिकुड़ने लगती हैं। लगता है, वह दोबारा कली की अवस्था में जाना चाहता है। लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं।
शाम होते-होते फूल मुरझा जाता है। उसकी डंठल लटक जाती है और कुम्हलाया कमल झुक कर वापस पानी के करीब पहुंच जाता है। अगले दिन तुम यही क्रिया फिर से दोहरा सकते हो, और जब तक जी करे, दोहराते रह सकते हो। शुरू के बौद्ध साधक इस साधना को सालोंसाल जारी रखते थे, अपने-अपने ढंग से इसके नतीजे निकालते थे और उन नतीजों को अपने तक ही रखते थे। बाद में उनका काम किताब में पढ़े हुए या गुरुओं द्वारा उपदेशित ‘नश्वरता’ के सिद्धांत से चल जाने लगा।
बुद्ध के दो हजार साल बाद हुए कबीर ने कभी यह साधना की या नहीं, कोई नहीं जानता। लेकिन उनकी पंक्ति ‘काहे री नलिनी तू कुम्हलानी, तेरे ही नाल सरोवर पानी’ में इसकी एक उम्मीद भरी व्याख्या जरूर मिलती है। और कमल के प्रसंग से बिल्कुल अलग, बुद्ध-कबीर से हजारों मील दूर, किसी और ही देश-काल में जन्मे फारसी शायर रूमी फरमाते हैं, ‘मी चू सब्ज़ा बारहा रूईदा एम’। घास-फूस की तरह मैं बार-बार उग आता हूं। जून के महीने में अपने सूखे मन और बाहर की बंजर जमीन पर नजर रखिए। हरियाली कभी भी आ सकती है।