गंगा शरण सिंह-
इस किताब का पहला पन्ना खुला। इसे पढ़ते ही स्तब्ध रह गया क्योंकि एक ऐसे बच्चे से मैं भी परिचित हूँ जिसे इस दुनिया में न आने देने की पूरी कोशिश की गई थी।
गिरीश कर्नाड के आत्मकथात्मक संस्मरणों की यह ज़रूरी किताब हार्पर कॉलिन्स से छपी है और इसका हिन्दी अनुवाद प्रतिष्ठित अनुवादक Madhubala Joshi जी ने किया है।
पहला पन्ना
धारवाड़ 1973
आई (मेरी माँ), बप्पा (मेरे पिता) और मैं दिन का खाना खा रहे थे। मेरी पहली फिल्म ‘संस्कार’ को राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ था। मेरी दूसरी फिल्म ‘वंश वृक्ष’ काफी सफल फिल्म थी और उसे सर्वोत्तम निर्देशन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। मेरी नई फिल्म ‘काडू’ निर्माण के आखरी चरण में थी। मुझे संगीत नाटक अकादमी का पुरस्कार मिल चुका था और अब मुझे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया का निर्देशक बनाया गया था। घर आत्मतोष से गमक रहा था।
आई ने बप्पा की ओर देखा और बोलीं, ‘और हम सोच रहे थे कि इसे पैदा न ‘करें।’
बप्पा का चेहरा लाल हो गया। ज़रा हकलाने के बाद, किसी तरह बोले, ‘यह तुमने सोचा था, मैंने नहीं। अब यह सब क्यों कह रही हो?’ और अपना चेहरा सामने रखी प्लेट में बस गड़ा ही लिया।
मुझे इस बारे में और जानना था। मैंने आई से पूछा तो उन्होंने बतायाः ‘तू पेट में आया तो हमारे पहले ही तीन बच्चे थे। मैंने सोचा इतने काफी हैं, इसलिए हम पूना की एक डॉक्टर मधुमालती गुने के पास चले गए।’
“फिर?” ‘उन्होंने कहा था कि मैं क्लीनिक में मिलूंगी, लेकिन मिली नहीं। हमने घंटाभर इंतजार किया फिर चले आए।”
‘और फिर ?”
‘कुछ नहीं। हम फिर वहाँ नहीं गए।
मैं सन्न रह गया। तब मैं पैंतीस बरस का था लेकिन फिर भी मैं इस सम्भावना के बारे में सोच कर बेजान सा हो गया कि यह दुनिया मेरे बिना ही चलने वाली थी। कुछ देर अपने आस-पास से बेखबर बैठा मैं अपने न होने की बात पर विचार करता रहा। अचानक एक विचार आया। कुछ अचकचाते हुए मैंने अपनी छोटी बहन के बारे में पूछा, ‘तो फिर लीना… कैसे?’
आई ने कुछ शर्माते हुए बताया, ‘ओहो, तब तक हम ऐसा कुछ सोचना छोड़ चुके थे।’ वह हँस पड़ीं। बप्पा एकाग्रता से अपनी प्लेट को निहारते रहे।
अगर डॉक्टर अपने वादे के अनुसार क्लीनिक पहुंच जाती तो यह स्मृतियाँ और उनको कहने वाला, इस दुनिया में मौजूद न होते। इसलिए, मैं अपनी आत्मकथा उस व्यक्ति की स्मृति को समर्पित कर रहा हूं जिसकी वजह से यह सब संभव हो सका: डॉक्टर मधुमालती गुने ।
गिरीश कर्नाड
बैंगलौर, 19 मई 2011