सुशोभित-
गीताप्रेस को गांधी शांति पुरस्कार देने पर उठा विवाद इतना भी सतही नहीं है, जितना ऊपर से दिखलाई देता है। यह सोशल मीडिया की प्याली में रोज़ उठने वाले तूफ़ान की तरह नहीं है। इसकी जड़ें गहरी हैं। इसके मूल में है गांधी का सनातन हिंदू मुख्यधारा से जटिल सम्बंध। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो अभी आपत्ति एक विचारधारा के द्वारा ली जा रही है कि गीताप्रेस को गांधी पुरस्कार कैसे दे दिया गया? जबकि आपत्ति दूसरी विचारधारा को भी उतनी ही लेनी चाहिए कि गांधी पुरस्कार देकर गीताप्रेस को अपमानित क्यों किया गया? क्योंकि गांधी लम्बे समय से सनातनी मुख्यधारा को अस्वीकार्य रहे हैं और वर्तमान में तो सनातनियों के लिए गांधी से अधिक घृणित व्यक्ति शायद ही कोई और हो। प्रधानमंत्री वग़ैरा गांधी को सिर नवाते हैं, वो अलग बात है। वह एक सार्वजनिक शिष्टाचार है। पर भीतर तो तनातनी है, तनाव है, संघर्ष है।
गांधी ख़ुद को सनातनी हिंदू कहते थे। वे हिंदू धर्म के अनेक बुनियादी विचारों में आस्था रखते थे, जैसे ईश्वर, कर्म-सिद्धांत, पुनर्जन्म, आत्मा का अमरत्व, मोक्ष। वे गीतापाठी थे और उन्होंने गीता पर एक सरल टीका भी लिखी थी- ‘अनासक्तियोग।’ इसे गीताप्रेस ने छापने से इनकार कर दिया था। यों ‘कल्याण’ पत्रिका में गांधी के कई लेख छपते रहे थे। गांधी ने गीताप्रेस के कार्यों की सराहना भी की थी और उसे ईश्वर के कार्यों को करने वाली बतलाया था। पर सराहना तो गांधी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी कर चुके थे। वे गोलवलकर को ‘गुरुजी’ कहते थे। 16 सितम्बर 1947 को उन्होंने संघ की एक सभा को भी सम्बोधित किया था, जिसमें उन्होंने कहा कि वे संघ के अनुशासन, सादगीपूर्ण जीवनशैली और उसके संगठन में छुआछूत के अभाव से प्रभावित हैं।
चंद महीनों बाद गांधी जी की हत्या पर इसी संघ पर प्रतिबंध (4 फ़रवरी 1948) लगा दिया गया था। उस समय देश में जिन लोगों की गिरफ़्तारी की गई थी, उनमें गीताप्रेस के हनुमानप्रसाद पोद्दार भी शामिल थे। गांधी जी की हत्या पर ‘कल्याण’ पत्रिका में एक शोक-संदेश नहीं आया, अपने ‘नियमित लेखक’ के अवसान पर पत्रिका मौन ही बनी रही। ऐसे में गीताप्रेस को गांधी पुरस्कार देना ऑकवर्ड तो है ही। क्योंकि चाहे जितनी लीपापोती की जाए, इन दो धाराओं में बनती नहीं थी।
यह हिन्दुत्व और हिन्द स्वराज का द्वैत है। भारत का निर्माण किस साँचे में किया जाए, यह प्रश्न बीसवीं सदी की शुरुआत में ही पूछा जाने लगा था। 1909 में गांधी की किताब ‘हिन्द स्वराज’ छपी। 1923 में सावरकर की ‘हिन्दुत्व’। देश-निर्माण के दो भिन्न मॉडल। जब देश आज़ाद हुआ तो उसे गांधीवादी और नेहरूवादी साँचे में ढाला गया। इसे हिन्दुत्व की विचारधारा ने एक मनोवैज्ञानिक पराजय की तरह देखा हो तो आश्चर्य नहीं। अब सत्ता में आने पर उस साँचे को बदला जा रहा है। लेकिन बदलाव की शैली खुल्ला खेल फ़र्रुख़ाबादी वाली नहीं है। नेहरूवादी मानकों पर प्रहार प्रकट रूप से हैं, पर गांधी के प्रति अभी औपचारिक सदाशयता जतलाई जाती है। गांधी के प्रति राजकीय सम्मान जताया जाता है और गांधी के नाम पर स्थापित पुरस्कार गीताप्रेस को दिया जाता है। जबकि हनुमानप्रसाद पोद्दार का मत था कि गांधी भारतीय चोले में एक ईसाई संत हैं।
मतभेद के मूल में थी गांधी की रिफ़ॉर्मिस्ट एप्रोच। जैसे, दलितोद्धार। गांधी दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलाना चाहते थे, पोद्दार इससे राज़ी नहीं थे। वे दलितों को अस्वच्छ समझते थे। गांधी चाहते थे कि सवर्ण और हरिजन साथ बैठकर भोजन करें, इस पर भी पोद्दार को आपत्ति थी। गांधी हरिजन-बस्ती में रहते थे और ख़ुद को मैला उठाने वाला भंगी कहते थे। 1946 में जब प्रभाकर नामक एक दलित व्यक्ति ने एक विवाह समारोह में पुरोहित की भूमिका निभाई, तब गांधी उस कार्यक्रम में मौजूद थे और उन्होंने नवदम्पती को आशीर्वाद भी दिया। तब पोद्दार ने ‘कल्याण’ में लिखा कि ”गांधी ख़ुद को सनातनी कहते हैं, इसके बावजूद ऐसे शास्त्र-विरोधी कृत्यों में सम्मिलित होते हैं।” इस वाक़िये का उल्लेख आज ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित अक्षय मुकुल के एक लेख में किया गया है। ये वही अक्षय मुकुल हैं, जिन्होंने ‘गीताप्रेस एंड द मेकिंग ऑफ़ हिंदू इंडिया’ नामक चर्चित किताब लिखी है।
अक्षय मुकुल के उसी लेख में एक और घटना का उल्लेख है कि गांधी हत्याकांड में कथित भूमिका के आरोप में जेल से रिहा होने के बाद जब गोलवलकर और पोद्दार बनारस में एक कार्यक्रम में सम्मिलित हुए तो बाहर नारेबाजी होने लगी- ‘गोलवलकर लौट जाओ’ और ‘बापू का हत्यारा संघ!’
ये एक ऑकवर्ड-हिस्ट्री है और दोनों ही पक्षों के लिए असहज करने वाली है। पता नहीं दूसरा पक्ष क्यों मुखर होकर नहीं बोल रहा कि गांधी जैसे ‘अधर्मी’ के नाम पर स्थापित किया गया पुरस्कार गीताप्रेस को देना सनातन हिंदू धर्म का अपमान है! बोलना चाहिए। कोई संकोच नहीं रखना चाहिए। और गांधी की ऊपर-ऊपर से सराहना करने का नाटक भी बंद हाेना चाहिए। क्योंकि भीतर गहरे मतभेद हैं। ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ को लेकर भिन्न-भिन्न विचार हैं। एक सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक संघर्ष ब्राह्मण-श्रमण परम्परा का भी है। गांधी प्रच्छन्न श्रमण थे। ब्राह्मण कभी भी उनको लेकर सहज नहीं हुए। अंत में पुणे के एक चितपावन ने ही उन पर गोली चलाई!
सच कहें तो गांधी का माजरा थोड़ा अटपटा है। मार्क्सवादियों को वे प्रतिक्रियावादी लगते हैं। आम्बेडकरवादियों को वे सवर्णवादी लगते हैं। मुसलमानों को वे रामनामी लगते रहे। हिन्दुत्ववादियों ने कभी उनको स्वीकार नहीं किया। नेहरू ने ग्राम स्वराज्य को त्याग दिया। लोहिया ने भी ख़ुद को कुजात-गांधीवादी ही कहा। इसको मैं सत्यनिष्ठा का साक्ष्य समझता हूँ। अगर गांधी किसी एक वर्ग के सर्वप्रिय नायक होते तो सत्यनिष्ठा खण्डित हो जाती। अच्छा है कि आज वो किसी के भी नायक नहीं हैं!
गांधी नाम की यह जो गले की फाँस है, यह कुछ और साल भारत के गले में फँसी रहेगी। आशा है इस फाँस के पूर्ण त्याग का साहस और संकल्प हिन्दुत्व की मुख्यधारा अंतत: कभी जुटा सके और गांधी की शवपूजा के आपदधर्म से स्वयं को मुक्त करे। गीताप्रेस को गांधी पुरस्कार देना भी एक तरह की विडम्बनामयी शवपूजा ही है!
डॉ मयंक मुरारी
June 25, 2023 at 8:38 am
इधर आपके आलेख एकतरफा हो रहे हैं जिसमें एजेण्डा लेखन लगता है।
आपके तर्क से गांधीजी का हरेक विरोधी देश विरोधी कैसे हो जाता है।