सुशोभित-
आज से कोई चार हज़ार साल पहले बेबीलोन दुनिया का सबसे बड़ा शहर था। बेबीलोन का सम्राट स्वयं को मार्दूक नामक ईश्वर का प्रतिनिधि बतलाता था। उसका कहना था कि उसने जो नियम और संहिताएं तय की हैं, वो उसे स्वयं मार्दूक ने कहकर सुनाई थीं!
आज जब आप मार्दूक के बारे में पड़ताल करने जाते हैं तो एक वाक्य पर आपका ध्यान टिक जाता है-
“मार्दूक बेबीलोन का अधिपति और पैतृक-ईश्वर था!”
ध्यान रहे- मार्दूक ‘था’, है नहीं। मार्दूक अब नहीं है। मार्दूक मर गया। किंतु वह आज से चार हज़ार साल पहले ‘अतिशय जीवित’ था। कालान्तर में बेबीलोन नष्ट हो गया, उसका सम्राट हम्मूराबी मर-खप गया, उसके द्वारा बनाए गए नियम-क़ायदे मिट्टी में मिल गए, तो उसके साथ ही मार्दूक भी धीरे-धीरे विलुप्त हो गया!
तब, मार्दूक बेबीलोन का अधिपति था या फिर बेबीलोन ही मार्दूक का जन्मदाता था?
ईश्वर अमर नहीं है! समय के साथ ईश्वर मर जाते हैं। इससे भी बड़ी विडम्बना यह है कि समय के साथ ईश्वर अपहृत कर लिए जाते हैं। यूनानियों के साथ यही हुआ। जब रोमनों ने यूनान को जीता, तो उनके ईश्वर भी हथिया लिए, और उनके नाम बदल दिए!
नतीजा, जो यूनानियों के लिए ज़ीयस था, वह रोमनों के लिए जुपिटर हो गया, जो यूनानियों के लिए ओदिसियस था, वह रोमनों के लिए यूलिसस हो गया, जो यूनानियों के लिए अफ्रोदाइत थी, वह रोमनों के लिए वीनस हो गई। किंतु यूनानियों पर कृपा करके रोमनों ने अपोलो का नाम नहीं बदला। उसे अपोलो ही रहने दिया।
जब एक सभ्यता दूसरी को जीत लेती है तो उसके शहरों का ही नाम नहीं बदलती, उसके देवताओं के नाम भी बदल देती है। एथेंस और देल्फ़ी के मंदिरों में यूनानी जिन देवताओं को पूजते थे, उन बेचारों को क्या मालूम था कि बुरा समय आने पर वो ऐसे पाला बदल लेंगे। कि वो ईश्वर के भरोसे नहीं थे, ईश्वर उनके भरोसे थे!
ईश्वर ना केवल मरते और अपहृत होते हैं, वो समय के साथ अपना रूप भी बदलते हैं। वो इवोल्यूशन की प्रक्रिया से अलग नहीं हैं। इसीलिए कहते हैं, सिंधु घाटी सभ्यता के नागरिक जिस देवता को पूजते थे, वही आगे चलकर वैदिक सभ्यता में रुद्र और पशुपति कहलाए। और वो जिस मातृका की उपासना करते थे, वो आगे चलकर देवी का आरम्भिक रूप बनीं। वहीं ऋग्वेद में जो इन्द्र इतना प्रमुख था, वह आज ईश्वरों की पंक्ति में बहुत पीछे है! इन्द्र का डिमोशन हो गया!
ईश्वर बहुरुपिये भी थे, और अलग-अलग सभ्यता के अनुसार रूप-रंग बदल लेते थे। ईजिप्त में आठ प्रमुख ईश्वरों की पूजा की जाती थी, किंतु वो ईजिप्शियनों की तरह लम्बी पतली दाढ़ी रखते थे। अब इन अकेर, अमुन, अन्हुरादि ईश्वरों ने ईजिप्शियनों को अपने रूप में रचा था या ईजिप्शियनों ने ही इन ईश्वरों को अपनी छवि में ढाल दिया था? यह पहले मुर्ग़ी आई या अण्डा जैसा ही दुष्कर प्रश्न है।
मेसोपोटामिया के ईश्वर टोपी पहनते थे। ठीक वैसी, जैसे टिग्रिस और यूफ्रेटस के दोआब में रहने वाले सुमेरियन और अक्कादियन बाशिंदे पहना करते थे। यूनानियों के देवता घने बालों वाले थे। वो यूनानी दार्शनिकों सरीखे दिखाई देते थे। ज़ीयस की मूर्ति देखें तो उसे आप सुकरात की प्रतिमा समझ सकते हैं। हिंदुओं ने अपनी रुचि के अनुसार सुकुमार रूपछवि वाले ईश्वर रचे, जो केशकुण्डलधारी थे और मोरमुकुट पहनते थे। बुद्ध अस्सी साल की अवस्था में जीर्णकाय होकर मरे, किंतु मथुरा और गांधार शैली की समस्त बुद्ध प्रतिमाओं में वे चिरयुवा और ओजस्वी हैं। अलबत्ता ईसाइयों के ईश्वर की परिकल्पना ज़रूर एक बुज़ुर्गवार की तरह की जाती है। घनी सफ़ेद दाढ़ी में बाज़ दफ़े वो सांताक्लॉज़ के हमशक्ल मालूम होते हैं।
शेक्सपीयर जब अपने एक ड्रामा का कोई टाइटिल नहीं सोच पाया तो उसने उसका शीर्षक रख दिया- “एज़ यू लाइक इट”, यानी जैसा आपको ठीक लगे। इस्लाम ने भी अपने ईश्वर का कोई चित्र नहीं बनाया। यानी आप जैसी चाहें, कल्पना कर लें। किंतु कल्पना ना ही करें तो बेहतर होगा। क्योंकि कल्पना ‘कुफ़्र’ है!
नोर्डिक लोगों ने बुद्धि के देवता के रूप में ओदिन की कल्पना की और उसके पुत्र थोर को प्रलय का देवता माना। लोकप्रिय संस्कृति और कार्टून स्ट्रिप में यही आज थोर ओदिनसन के नाम से हथौड़ा घुमाता पाया जाता है।
कितने ईश्वर हैं और कितनी तरह के? और ये सब कहां से आए? किसकी कल्पना से उपजे?
मंसूर ने जब “अन-अल-हक़” यानी “मैं ही ईश्वर हूं” कहा होगा तो किस ईश्वर की कल्पना की होगी? नीत्शे ने जब “ईश्वर मर गया” की घोषणा की होगी तो किसकी मृत छवि के बारे में सोचा होगा? किसी का ईश्वर बूढ़ा है, किसी का जवान। किसी का रूपवान, किसी का अपरूप। किसी का दयालु, किसी का क्रूर। जितनी दूर तक आप सोच सकते हैं, उतने ही ईश्वर के प्रतिरूप हैं।
ईश्वर एक है, इन अर्थों में कि वह सदैव ही कल्पना की उपज है!
और ईश्वर अनेक है, इन अर्थों में कि हर सभ्यता का अपना एक निजी ईश्वर है- अपनी सुविधाओं के अनुरूप ढाला गया- मनुष्य का अनुचर!
सचमुच- मनुष्यों ने ईश्वर से बड़ा स्कैम कोई दूसरा नहीं किया!
आपके इस तथाकथित महान भारत देश में ८० प्रतिशत लोग मांसभक्षी हैं। इससे बड़ा नैतिक पतन क्या होगा कि गाय की तस्करी हो रही है और उसके बच्चों को काटा जा रहा है। धर्म को मानने वाला देश और धर्म को मानने वाली सरकार, फिर यह कैसे हो रहा है? भ्रष्टाचार, नीचता, पाखंड और भौतिकवाद के चरम पर बैठे इस देश की संस्कृति पर आपको गर्व है? मुझे संदेह नहीं कि आपके ईश्वरों के कारण ही यह देश आज इतना कुंठित हुआ है। बधाई हो आपको।
मैं ईश्वर का विरोध नहीं कर रहा। क्योंकि ईश्वर है ही नहीं तो विरोध किसका करूंगा? मैं मनुष्य जाति के उस पाखण्ड का विरोध कर रहा हूं, जिसने न केवल इतनी बड़ी कल्पना पर विश्वास कर लिया है बल्कि वह उसकी आड़ में इतने पाप भी कर रही है। मैं हैरान रह जाता हूं लोगों को दिन की रौशनी की तरह साफ़ यह सच्चाई क्यों नहीं दिखती। मैं मनुष्य की मूर्खता, धूर्तता और आत्म प्रवंचना की क्षमता पर चकित हूं। जैसे कि आप। इतनी रामायण सुनाई और आप कह रहे हैं कि मैं ईश्वर को खोज रहा हूं। आपको हिन्दी भाषा समझ नहीं आती कि ईश्वर के झूठ का भंडाफोड़ कर रहा हूं? बुद्धि को गिरवी रख दिया है?
ज़मीन-ज़ायदाद के सौदे करने में तो लोगों का आईक्यू बड़ा तेज़ होता है? पैसा-कौड़ी के मामले में? रैली निकालने और सभा करने में? राजनीतिक समीकरणों पर चिंतन करने में? ईश्वर का प्रश्न आने पर इन्हीं लोगों का आईक्यू कम हो गया? किसी का आईक्यू कम नहीं है, सब बहुत सयाने हैं, ज़रूरत से ज़्यादा हैं। साफ़-साफ़ कहिए कि ईश्वर सबकी सुविधा है, आदत है, अय्याशी है, संगठित होकर हिंसक होने की छूट है, लोभ और भय की एजेंसी है, धूर्तता और पाखण्ड का लाइसेंस है। मैंने ईश्वर को मानने वालों की बहुत गहरी मनोवैज्ञानिक स्टडी कर रखी है और इनकी रग-रग मैं पहचानता हूँ। ईश्वर इनके बड़े सधे हुए कैलकुलेशन का नाम है। इनको अच्छी तरह से पता है कि ईश्वर से इनका कौन-सा स्वार्थ सधता है और वो उसको पकड़े रखना चाहते हैं। पर मेरी नज़र से इनकी बेईमानी छुप नहीं सकती।
मेरे शब्दकोश में मानना शब्द है ही नहीं। मैं कुछ भी नहीं मानता। सृष्टि कैसे संचालित हो रही है ये मुझे नहीं पता, पर इतना ज़रूर पता है कि मन्दिर मस्जिद में बैठा मैन्युफैक्चर्ड ईश्वर संसार को नहीं चला रहा है। वह तो आदमी का सेवक है, उसके हितों का पोषण करने वाला चैट जीपीटी से भी गया बीता यंत्र है। मन बहलाव का सस्ता साधन।
ईश्वर को नकारने की जल्दी नहीं कर रहा, आप लोगों ने मानने की जल्दी की है। होश सम्हालने से पहले आपके मुंह में ईश्वर ठूंस दिया गया था और अब उगलते नहीं बन रहा है। नकारने के लिए किसी का होना ज़रूरी है। मैं कह रहा हूं ईश्वर नहीं है, न कभी था। जिसको इस पर आपत्ति हो वो ईश्वर को सिद्ध करे। मैं जानता हूं कोई सिद्ध नहीं कर सकता क्योंकि किसी को भी आज तक ईश्वर की अनुभूति नहीं हुई है। एक आदमी ऐसा नहीं है जिसको हुई है। छोटा मोटा फ्रॉड नहीं है यह, इतना बड़ा है कि जो ठगा गए हैं वो ही रात दिन इसमें विश्वास करते रहते हैं, बिना जाने। मैंने सब कुछ नहीं, कुछ भी नहीं जाना है, जिसमें ईश्वर को नहीं जानना भी शामिल है। सब कुछ जानने का थोथा दम्भ तो ईश्वर को मानने वालों को है।
पूरा लेख ही ईश्वर नामक स्कैम के यूनिवर्सल उदाहरणों से भरा है और आप ये पूछ रहे हैं कि क्या इसमें सभी धर्मों की सत्ताएं शामिल हैं? यानी पूरी रामायण के बाद आप पूछ रहे हैं कि इसमें राम कहां हैं? दूसरे, आपकी बुद्धि को ये व्यंजित हो रहा है कि ईश्वर यानी केवल हिन्दू ईश्वर? वही टिपिकल हिन्दू हीन भावना। तीसरे, आप ये प्रश्न पूछने का दुःसाहस उस व्यक्ति से कर रहे हैं जो मौजूदा दौर में इस्लाम के सबसे कटु आलोचकों में इतना कुख्यात है कि वाम धारा उसको दक्षिणपंथी समझती है। अति है!
Ajay
May 14, 2023 at 11:30 pm
ईश्वर की निर्थकता पे एक सार्थक लेख.. लेकिन आपमे एक बहुत बड़ी कमी है, चुनौती को स्वीकारने की कमी! आपने इस्लाम धर्म की ईश्वर की अवधारणा का जिक्र आते ही बात को घुमा लिया, ताकि खुद की नास्तिकता का बचाव कर सको.. अगर इस्लाम का जिक्र आता, और उसका वास्तविक ज्ञान आपको होता, या स्वीकार करने का साहस ही होता कि आप खुदा से भाग रहे हो, तब आपको पता चलता कि आपकी नास्तिकता भी आस्तिको की आस्तिकता जैसी ही खोखली है! आप भी आईना देखने से डरते हो, जैसे मिथ्या धर्मी डरते हैं! इस्लाम जीवन को जीने का तरीका है,, हिंदुत्व की तरह केवल उपासना पद्धति नहीं, जीवन पद्धति! यह ईश्वर को घूस खिलाके खुश करने की तिकड़म का नाम नही, इसमे ईश्वर निर्गुण है! इसकी कई बातें सार्थक हैं, जैसे हिंदू धर्म मे भी निर्गुण ब्रह्म की भक्ति की बात है जो कुछ हद तक हिंदुत्व को भी सार्थक बनाती है! कोई धर्म ये विचारने मे समय नही खराब करता कि ईश्वर का अस्तित्व है या नही, सभी धर्म सदमार्ग पे चलाना चाहते हैं इंसान को, क्यूकि धर्मो का अविष्कार मध्यकाल मे हुआ, जब इंसानियत अपने सबसे बुरे रूप मे थी, और इंसानियत का अंत आसन्न था, इसलिए बुरे कर्मो से रोकने के लिए ईश्वर का अविष्कार हुआ! अगर ये न होता तो इसकी परीणति मे हिंसक विश्व मे आपका और मेरा जन्म ही नही हो पाता!