सरकार ने मजीठिया वेज बोर्ड का कानून तो बना दिया है, लेकिन इसकी जमीनी हकीकत केस नंबर SUM-2208833/15 को देखकर लगाया जा सकता है। जिसमें हरिभूमि जबलपुर के यूनिट हेड को मजीठिया वेज बोर्ड की जानकारी न देने पर 7 साल बाद 200 रुपये का जुर्माना लगा। और कोर्ट उठने तक जेल की सजा सुनाई गई।
दरअसल 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने मजीठिया वेज बोर्ड लागू करने के संबंध में राज्यों के श्रम आयुक्त से जानकारी मांगी थी। श्रम इंस्पेक्टर ने यह जानकारी हरिभूमि जबलपुर से भी मांगी, लेकिन कंपनी ने कोई जानकारी नहीं दी। फिर क्या था बात ईगो पर आई। तत्कालीन श्रम इस्पेक्टर आरके मिश्र ने मामला न्यायालय में प्रस्तुत कर दिया। चूँकि जब श्रम इंस्पेक्टर कोई केस करता है तो कोर्ट बिना गवाही सबूत के ही दंड देती है।
लेकिन भारतीय न्यायालय की बात ही निराली है। जिला न्यायालय में यह केस 7 साल तक चला। अंत में न्यायालय नेहा सिंह तोमर न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, जबलपुर ने जर्नलिस्ट एक्ट 1955 की धारा 17(ख) (2)(4) व धारा 18 के तहत हरिभूमि जबलपुर के यूनिट हेड अखिलेश रिछारिया को दोषी माना और कोर्ट उठने तक जेल व 200 रुपये का जुर्माना लगाया।
इस सजा से अपराध बेहतर है
न्यायालय ने जानकारी न देने पर जो सजा दी है उससे बेहतर तो अपराध है। कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन भी न दो। कोई दस्तावेज न दिखाओ। मजदूरों का जमकर शोषण करो और सजा मात्र 200 रुपये जुर्माना वो भी 7 साल बाद। हरिभूमि वैसे भी पत्रकारों को सबसे कम वेतन देने के लिए जाना जाता है। यहाँ वेतन पत्रकार की मजबूरी पर सबसे न्यूनतम तय होता है। वो भी बड़े एहसान पर कि संस्था ने आपको रोजगार दिया।
200 की सजा के लिए लाखों खर्च
सवाल यह उठता है कि 200 रुपये का जुर्माना लगाने के लिए इतनी लंबी सुनाई चली कि कोर्ट की कार्रवाई में ही लाखों रुपए खर्च हो गए होंगे। इसका खर्च वहन टैक्सपेयर भारतीय जनता कर रही है। सरकार को इस पर ध्यान देने की जरूरत है।