प्रिय दर्शन-
- मैं 1993 में दिल्ली आया था। स्वतंत्र पत्रकारिता किया करता था। ‘नवभारत टाइम्स’, ‘हिंदुस्तान’ और ‘जनसत्ता’ में खूब लिखा करता था। इनके अलावा ‘आजकल’, ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ और आकाशवाणी के लिए भी लगातार कुछ करता था। तब दिल्ली के अख़बारों में संपादकीय पृष्ठ के मुख्य आलेख का पारिश्रमिक 1500 रुपए होता था। मैं अपने साथ आए और अड़तीस सौ रुपए महीने की नौकरी कर रहे दोस्त के सामने शेखी बघारता कि तुम महीने भर में जो कमाते हो, मैं तीन लेख लिखकर कमा लेता हूं।
- उन दिनों मदर डेयरी के फुल क्रीम दूध का आधे किलो का पैकेट पांच रुपए में आता था, दिल्ली के पांडव नगर में छत सहित दो कमरों का मकान दो हज़ार रूपए किराये पर मिल जाता था, दिल्ली की बसों में अधिकतम नियमित टिकट तीन रुपए का होता था। मयूर विहार में एक परिचित ने उन्हीं दिनों छह लाख में एक फ्लैट ख़रीदा था।
- आज इन सबके दाम सात से दस गुना बढ़ गए हैं, संपत्ति का दाम पच्चीस गुना बढ़ चुका है, लेकिन अख़बारों के लेखों का पारिश्रमिक वहीं पड़ा हुआ है – जनसत्ता में कम हो चुका है, नभाटा और हिंदुस्तान में संभवत: तीन हज़ार है और बाक़ी जगहों पर और कम। कुछ पोर्टल शायद एक हज़ार से दो हज़ार देते हैं।
- कहने का मतलब यह कि हिंदी में सिर्फ लेखन करके जीना लगातार दुरूह होता गया है। पारिश्रमिक ही नहीं पुरस्कारों का मोल भी घटा है। साठ के दशक में जो एक लाख का पुरस्कार था, वह ज्ञानपीठ अब पंद्रह लाख का है, लेकिन मुद्रास्फीति का हिसाब लगाएं तो इसे कम से कम एक करोड़ का होना चाहिए था।
- 1995 में स्वतंत्र पत्रकारिता करते हुए ही मैंने शादी की थी। यह सवाल सबको मथता था कि लड़का कमाता क्या है। उस साल जुलाई से सितम्बर तक का खर्च हमने लिखा था- वह तैंतीस हजार से ऊपर का था- यानी औसतन ग्यारह हज़ार रुपए महीना – जाहिर है, कमाया था, इसलिए ख़र्च कर पाया था। तब के ग्यारह हज़ार आज के एक लाख के बराबर होंगे, लेकिन आज के हिसाब से मुझे तीस हज़ार से ज़्यादा नहीं मिलते।
- आज कोई युवा रचनात्मक ढंग से लिखते हुए फ्रीलांसिंग के सहारे जीने की सोचे तो हिंदी में वह संभव नहीं रह गया है। इस संकट का एक पक्ष आर्थिक है तो दूसरा पक्ष सामाजिक-सांस्कृतिक। वे जगहें लगातार घटी हैं जहां अच्छी वैचारिक सामग्री की ज़रूरत हो। ये ख़राब लेखों और ख़राब अनुवादों के दिन हैं। ज़्यादातर अख़बारों में ऐसे संपादक नहीं बचे जिनमें गंभीर और रचनात्मक सामग्री की समझ और क़द्र हो।
- इसका एक और पक्ष है। हमारे युवा दिनों में हमें राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी, राजकिशोर आदि के लेख लगातार अखबारों में छपते थे। इनसे बौद्धिक दृष्टि भी मिलती है, संवेदनात्मक गहराई भी और शिल्प की समझ भी। इनका लिखा पढ़ कर हम सीखते और फिर लिखते थे। इनके साथ असहमति का भी मोल था। अब वैसा लेखन दुर्लभ है। फिर इन दिनों अख़बारों और वेब पोर्टलों पर एक अदृश्य सेंसरशिप भी लागू है। आप मौजूदा सरकार और उसकी नीतियों के ख़िलाफ़ लिखेंगे तो बैन कर दिए जाएंगे। जबकि हमारी रचनात्मक मेधा का बड़ा हिस्सा सत्ता संस्कृति के प्रतिरोध से बनता है।
- किताबों की दुनिया और मायूस करने वाली है। बस गिने-चुने प्रकाशक गिने-चुने लेखकों को रॉयल्टी देते हैं जो अमूमन इतनी कम होती है कि उसे दिखाते शर्म आए। उल्टे ज़्यादातर लेखक पैसे देकर किताब छपवाते हैं और फिर अपने खर्च पर लोकार्पण की व्यवस्था करते हैं। यह सिलसिला बाक़ी प्रचार तक भी जाता है और समीक्षा-सम्मान सबकी व्यवस्था लेखक को अपने लिए करनी पड़ती है।
- बेशक यूट्यूब एक नया जरिया बना है जिसने कई लेखकों-पत्रकारों को अपनी बात कहने का अवसर भी दिया है और पैसे भी दिए हैं। लेकिन यह स्पष्ट दिखता है कि यूट्यूब पर अतिवादी पक्षधरता ज़्यादा चलती है। आप इस तरफ़ से बोलें या उस तरफ़ से- स्वतंत्र रूप से बोलना कुछ मुश्किल है। फिर अनिश्चितता वहां भी है। एक मित्र को जानता हूं जिन्होंने तीन यू ट्यूब चैनल शुरू किए, कई लोगों को नौकरी दी, लेकिन वक़्त बदला तो खुद नौकरी खोजते नज़र आए।
- लेकिन कुल मिलाकर हिंदी का लेखक हफ़्ते में पांच और छह दिन रोज़ी रोटी के जुगाड़ में लगा रहता है और सातवें दिन लेखन की सोचता है। शोध और श्रम करने का समय उसके पास नहीं होता। उसकी आर्थिक विपन्नता उसकी बौद्धिक विपन्नता में बदलती जाती है।
प्रभात रंजन-
आज प्रियदर्शन जी ने अपने पोस्ट में यह महत्वपूर्ण बात उठाई है कि ‘हिंदी का लेखक हफ़्ते में पांच और छह दिन रोज़ी रोटी के जुगाड़ में लगा रहता है और सातवें दिन लेखन की सोचता है।’ इससे मुझे एक बड़े लेखक की बात याद आ गई। उन्होंने लिखा था कि तीसरी दुनिया का अधिकतर साहित्य ‘बोरडम का साहित्य’ है। अर्थात् हिन्दी जैसी भाषाओं में अधिकतर लेखक वैसे होते हैं जो आजीविका के लिए दिन में कोई काम करते हैं और वे उस समय लिख रहे होते हैं जब वे बहुत थके हुए होते हैं, जो उनके सोने का समय होता है उससे समय निकालकर वे लेखन करते हैं। केवल लेखन की बदौलत अपनी ज़िंदगी अच्छे से बसर कर पाने की लक्ज़री उनके पास नहीं होती।
उस लेखन में उनकी नींद का बोझ होता है, थकान की पीड़ा होती है, पसीने की गंध होती है। लेकिन मज़ेदार बात यह है कि ऐसे ही लेखकों ने ऐसा साहित्य भी लिखा जिसने दुनिया को बदलकर रख दिया। मसलन गाब्रियल गार्सिया मार्केज का उदाहरण लें। कोलंबिया नामक जिस छोटे से देश में उन्होंने लेखक बनने का सपना देखा था वहाँ लिखकर कमाने का कोई रिवाज नहीं था। कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि लेखन के बदले में धन भी मिल सकता है। यह अलग बात है कि मार्केज को अपने लेखन से बाद में बहुत आय हुई लेकिन लगभग चालीस साल की उम्र तक अपने साहित्य से उनको कुछ ख़ास आय नहीं हुई थी।
बहरहाल, हिन्दी भाषा के अधिकांश लेखकों के लिए केवल लेखक के रूप में स्वतंत्र होकर लिख पाना आज भी लक्ज़री ही है! अपने गुरु से सुनी वही बात याद आ रही है- ‘लेखक तो ठीक है करते क्या हो!’