हिम्मत है तो गहलोत पेश करे अपना हल्फनामा… आखिर पत्रकार है किस बला का नाम? इसका जवाब बड़े बड़े महारथी भी नहीं दे पाए हैं। पत्रकार किसे कहते हैं या इसकी परिभाषा क्या है, इसका जवाब भारत सरकार भी आज तक नहीं खोज पाई है।
पिछले दिनों मैंने सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 के अंतर्गत सूचना और प्रसारण मंत्रालय, पीआईबी, प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया तथा भारत सरकार के विधि व कानून मंत्रालय से पत्रकार की सुस्पस्ट परिभाषा की सूचना मांगी थी। सभी विभाग अल्ले-तल्ले के अलावा पत्रकार की परिभाषा को खोज नहीं पाए। पीआईबी ने अवश्य यह सूचना भेजी थी कि पीआईबी एक्ट अधीन केवल अधिस्वीकृत व्यक्ति ही पत्रकार के दायरे में आता है।
पत्रकार की स्पस्ट परिभाषा नहीं होने की वजह से अधिस्वीकरण तथा राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं में हमेशा झंझट रहता है। खूब छीना झपटी होती रहती है। असल पत्रकार तो सुविधा से वंचित रह जाते हैं। जबकि फर्जी लोग मलाई झटकने में रहते है कामयाब। राज्य सरकार केवल उसी को पत्रकार मानती है जो जन सम्पर्क द्वारा अधिस्वीकृत हो। अधिस्वीकरण का भी कोई सुस्पस्ट नियम या गाइड लाइन नहीं है। आधे से ज्यादा तटपुँजिये और माफिया लोग अधिस्वीकरण का कार्ड जेब मे रखकर अपनी शेखी बघारते हैं।
बात हो रही है वास्तविक पत्रकार की। उदाहरण के तौर पर एक ऐसा व्यक्ति जिसके दर्जनों शराब के ठेके हो, बजरी माफिया हो, सैकड़ो बीघा सरकारी जमीन हड़प रखी हो, पढ़ाई के नाम पर अंगूठा छाप हो, यदि वह 20-25 पेज का कलर अखबार निकालने लग जाये और खुद बन जाये संपादक तो क्या राज्य अथवा केंद्र सरकार उसे पत्रकार मानेगी या नहीं? जवाब बड़ा स्पस्ट है-सरकार सर झुकाकर उस महाशय को ना केवल पत्रकार मानेगी बल्कि अनेक कमेटियों का उसे माननीय सदस्य या अध्यक्ष भी मनोनीत करेगी। जब स्व फूलन देवी माननीय सांसद बन सकती हैं तो शराब, जमीन और खान माफिया पत्रकार बनता है तो किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। आंखें तो तब फटेगी जब किसी दिन डाकू जगनसिंह माननीय सांसद/विधायक या पत्रकार बनेगा।
लगे हाथ इस पर भी चर्चा हो जाये। यदि कोई व्यक्ति ने दो-चार साल किसी बड़े या छोटे अखबार में काम किया है, दुर्भाग्यवश अखबार बन्द हो जाता है या उस व्यक्ति की नौकरी छूट जाती है, इन परिस्थियों में उस व्यक्ति को पत्रकार माना जायेगा अथवा नहीं? एक सवाल यह भी है कि माफिया से जुड़ा कोई व्यक्ति ऐसे किसी अखबार से नियुक्ति पत्र ले आता है जो है तो राज्यस्तरीय अखबार, लेकिन प्रकाशन 50 कॉपी का भी नही होता है (प्रदेश में ऐसे पर्चे टाइप अखबारों की संख्या सैकड़ों में हैं), वह पत्रकार माना जायेगा या नहीं?
खुद जन सम्पर्क विभाग कर रहा है फर्जीवाड़ा
स्वतंत्र पत्रकार के लिए निर्धारित आयु और अनुभव की शर्त के साथ यह शर्त भी लगा रखी है कि अधिकृत स्वतंत्र पत्रकार को सालभर में 10-12 आर्टिकल देने आवश्यक है। मेरा दावा है कि आर्टिकल के नाम पर पूरी तरह फर्जीवाड़ा होता है। जन सम्पर्क मंत्री, आयुक्त एनएल मीणा, संयुक्त निदेशक अरुण जोशी तथा डीलिंग असिस्टेंट विनोद शर्मा इस बात का हलफनामा पेश करें कि सभी स्वतंत्र पत्रकार नियमित और निर्धारित संख्या में आर्टिकल पेश कर रहे हैं तो मैं भी काउंटर शपथपत्र पेश कर दावा करता हूँ कि सबके हलफनामे फर्जी और आधारहीन हैं। अगर किसी का भी हलफनामा सच पाया जाता है तो मैं जेल जाने को तैयार हूँ। वैसे भी मैं आरटीआई एक्ट के अंतर्गत सभी स्वतंत्र पत्रकारों के आर्टिकल की प्रति मांगने जा रहा हूँ। तब आएगी असलियत सामने। जन सम्पर्क विभाग के सभी अधिकारी यह जानते हैं कि इस नियम की आड़ में फर्जीवाड़ा हो रहा है तब भी फर्जी और वाहियात नियम की अनिवार्यता क्यों?
मान्यवर गहलोत जी, मान्यवर रघु शर्मा जी और मान्यवर एनएल मीणा जी आप यह बताइए कि स्वतंत्र पत्रकारों के आर्टिकल छापेगा कौन? सभी बड़े अखबारों में नियमित और निर्धारित लेखक हैं। अन्य अखबार नेट से माल उठाकर कट-पेस्ट करते हैं। ऐसे आर्टिकल क्या जन सम्पर्क विभाग की दीवारों पर छपवाया जाए? मान भी लिया जाए कि कोई छोटा-मोटा अखबार वाला आर्टिकल छापने को तैयार है तो फोकट में स्वतंत्र पत्रकार आर्टीकल के नाम पर माथा-पच्ची क्यों करेगा, बताइए ना गहलोत साहब!
अब चर्चा कर ली जाए विधानसभा में प्रवेश पत्रों पर पाबंदी की। कुछ लोगों की ओर से तर्क दिया गया कि अधिकांश साप्ताहिक, पाक्षिक तथा स्वतंत्र पत्रकार तबादला और डिजायर के लिए विधानसभा में आते हैं। मैं इससे सौ फीसदी इतिफाक रखता हूँ। लेकिन पहले दैनिक अखबारों के “ईमानदार” प्रतिनिधियों की बात कर ली जाए। कोई साप्ताहिक वाला डिजायर के दस हजार लेता है तो दैनिक वाला उसी कार्य के लाख रुपये से कम नहीं लेने वाला। जितना बड़ा जूता, उतनी ही ज्यादा पोलिश लगती है। आज तबादला या अन्य उल्टे-सीधे कार्यों से कोई अछूता है? अगर यह बात गलत है तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथसिंह, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, राज्यपाल कल्याणसिंह, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी तथा उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट इस आशय का हलफनामा दें कि उन्होंने अपने पूरे राजनैतिक कार्यकाल में एक धेले बतौर रिश्वत या काइंड में कुछ भी प्राप्त नहीं किया है। अगर सबकी बखिया नहीं उधेड़ दी तो महेश झालानी मेरा नाम नहीं।
अगर अखबार वाले तबादला उद्योग चलाते है तो इस कार्य मे विधायक और पार्टी के पदाधिकारी, कार्यकर्ता भी पीछे नहीं हैं। मुख्यमंत्री को विधानसभा में बिल पेश करना चाहिए अथवा परिपत्र जारी करे कि किसी की डिजायर पर कोई तबादला नहीं किया जाए। अगर किसी अधिकारी या कर्मचारी ने किसी राजनीतिक व्यक्ति से सिफारिश करवाई तो उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। साथ ही सिफारिश करने वाले विधायक की भी खिंचाई का प्रावधान होना चाहिए।
महेश झालानी
9636197744
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