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सुख-दुख

ख़ुशी एक ओवररेटेड चीज़ है, एक विद्रोह ख़ुशी के विरुद्ध भी होना चाहिए!

सुशोभित-

ख़ुशी एक ओवररेटेड चीज़ है। हमेशा ख़ुश रहना बहुत बोरिंग है, क्योंकि वन-डायमेंशनल है। और उथला है। इतिहास, मनोविज्ञान या इवोल्यूशन से ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता, जो यह बताता हो कि मनुष्य के जीवन में ख़ुशी ही केंद्रीय तत्व हो। यह एक प्रचारित की गई हाइपोथीसिस है कि मनुष्य को ख़ुश होना चाहिए। लेकिन प्रश्न यह है कि मनुष्य को क्यों ख़ुश होना चाहिए? दूसरे, ख़ुशी यानी क्या? और तीसरे, मनुष्य को किस बात से ख़ुशी मिलती है? क्योंकि ज़रूरी नहीं उसे जिस चीज़ से ख़ुशी मिल रही है, वह औरों के लिए अच्छी बात हो। जब नात्सी फ़ौजों ने धड़धड़ाते हुए पेरिस में प्रवेश किया था तो अदोल्फ़ हिटलर के लिए वह डोपेमीन के विस्फोट का लम्हा था। मनुष्यजाति के इतिहास में शायद ही कोई व्यक्ति इतना ख़ुश हुआ होगा, जितना उस दिन हिटलर था। वह सातवें आसमान पर था। जबकि दूसरी तरफ़ नात्सी-ऑकुपेशन से करोड़ों फ्रांसीसियों का जीवन नर्क बन गया था, जिसके ब्योरे पैट्रिक मोद्यानो के उपन्यासों से इतने मार्मिक तरीक़े से व्यक्त हुए हैं। इनफ़ैक्ट, प्लेज़र-प्रिंसिपल के मूल से दूसरों की यंत्रणा अकसर जुड़ जाती है। आपको दूसरों के दु:ख से सुख मिल सकता है। आप अगर ग्रंथिपूर्ण व्यक्तित्व हैं तो आपमें सैडिस्ट वृत्तियाँ उभरकर आ सकती हैं। आप परपीड़ा से मज़ा ले सकते हैं। यानी आप देख सकते हैं कि ख़ुशी एक एब्सोल्यूट-वैल्यू नहीं है। आप यह कहकर फ़ारिग़ नहीं हो सकते कि मैं ख़ुश हूँ, आपको इसकी व्याख्या भी करनी होगी कि ख़ुशी क्या होती है और आप क्यों कर ख़ुश हो गए हैं।

हम हेडोनिज़्म के क्लासिकल दौर से गुज़र रहे हैं। सुखवाद की आँधी चल रही है। मनुष्य सुबह उठता है और पहला विचार उसके दिमाग़ में यह आता है कि मुझे प्लेज़र कैसे मिले। अपने डोपेमीन का बंधक वह दिनभर प्लेज़र की तलाश करता है। क्या वह रात को किसी डायरी में यह दर्ज़ करता होगा कि आज मुझे इतनी मात्रा में प्लेज़र मिला? क्या सुख की बही लिखी जा सकती है? क्या अधिक से अधिक सुख भोगने पर जीवन के अंत में कोई रिवॉर्ड मिलेगा? क्या यह कोई दौड़ है, जिसमें जीतने वाला पुरस्कृत होगा? आप ग़ौर से देखें तो पाएँगे कि सुखवाद के प्रसार के पीछे एक सुचिंतित-साज़िश है।

बाज़ार का धर्म हेडोनिज़्म है। क्योंकि लोग जितना सुख की खोज करेंगे, उतनी चीज़ें ख़रीदेंगे। बाज़ार में करेंसी दौड़ेगी। राजनीति को हेडोनिज़्म पसंद है, क्योंकि लोग ख़ुशी की खोज में मतवाले फिरते रहेंगे, मूढ़ों की तरह हरदम नाचते-गाते रहेंगे तो आन्दोलित नहीं होंगे और ज़रूरी प्रश्न नहीं पूछेंगे। लोकप्रिय संस्कृति का निर्माण बाज़ार और राजनीति के द्वारा मिलकर किया जाता है। मार्केट और स्टेट का गठजोड़ सबसे पुराना और सबसे मज़बूत है। दोनों एक-दूसरे में निवेश करते हैं। और जब इस गठजोड़ के द्वारा यह विचारधारा सामने रखी जाती है कि आपको अधिक से अधिक ख़ुश होना चाहिए तो आप इसे तुरंत स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि ख़ुश होने की वृत्ति मनुष्य में सबसे सघन है। बुनियादी है। जैसे पानी ढलान पर बह जाता है, वैसे ही मनुष्य सुख में फिसल जाना चाहता है। जब बहुत सारे लोग इस वृत्ति के अधीन होते हैं तो वो एक यूनिवर्सल नियम बना लेते हैं कि ख़ुश होना ज़रूरी है। मैं आपसे कहता हूँ, यह हरगिज़ ज़रूरी नहीं है। मनुष्य जीवन में अनेक चीज़ों को अनुभव करता है, ख़ुशी उनमें से एक है। लेकिन वह उसके जीवन का बुनियादी परस्यूट नहीं है।

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मनुष्य को किस बात से ख़ुशी मिलती है? अव्वल तो ऐंद्रिक सुखों से। भोजन से, सेक्स से, आराम से, सुविधा से और अगर उसकी सेंसुअसनेस बहुत महीन और परिष्कृत हुई- तो आला दर्ज़े की कला से- सिनेमा से, संगीत से। दूसरे, मनुष्य को ख़ुशी मिलती है अहंकार की तुष्टि से। ध्यानाकर्षण से। मैं बहुत अच्छा हूँ या मैं बहुत बुरा हूँ- इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता, जब तक मुझे अटेंशन मिल रहा है। जितने लोग मुझ पर ध्यान देंगे, उतना ही मेरा एग्ज़िस्टेंस सघन होगा। अगर कोई भी मुझे नहीं देख रहा है तो मैं शून्य हो जाऊँगा। अटेंशन-सीकिंग से मिलने वाला प्लेज़र गहरे तौर पर अहंतुष्टि से जुड़ा होता है। तीसरे, मनुष्य को ख़ुशी मिलती है उसके वैल्यू-सिस्टम से, उसकी धारणाओं से, आस्थाओं से, विचारों से। अगर वह धर्म को मानता है, परोपकार करता है, त्याग-तपस्या करता है, नीति-रीति का पालन करता है तो एक सटल-लेवल पर, सूक्ष्म-स्तर पर वह इससे ख़ुशी पा रहा होता है। उसका बिलीफ़-सिस्टम मज़बूत होता है। उसमें एक प्रयोजन-भावना आती है। उसको लगता है कि वह किसी बड़े विचार से जुड़ गया है। चौथे, मनुष्य को ख़ुशी मिलती है इंटेलेक्चुअल परस्यूट से, फ़िलॉस्फ़ी से, अलबत्ता यह वाला सुख बहुधा मनुष्य को उसकी ख़ुशियों से वंचित कर देता है।

ख़ुश हो जाना ज़रूरी नहीं है, आप क्यों ख़ुश होते हैं- यह जानना ज़रूरी है। क्योंकि जाग्रति सबसे बड़ा मूल्य है। वेकफ़ुलनेस, कॉन्शियसनेस, अवेयरनेस- ये मनुष्य को परिभाषित करने वाली सर्वोच्च वैल्यू है। क्योंकि अगर आपकी ख़ुशी भी कंडीशंड है तो आप कैसे स्वतंत्र होंगे? अगर दूसरों ने तय कर दिया है कि ख़ुशी क्या, अगर ख़ुशी के पैमाने पॉपुलर-कल्चर ने निर्धारित कर दिए हैं तो आप भले भरसक ख़ुद को आज़ाद समझें, हैं आप भीतर से ग़ुलाम ही। क्योंकि आपको दूसरों के द्वारा संचालित किया जा रहा है। आज जितने लोग ऊपर से ख़ुश दिख रहे हैं, उन कठपुतलियों को मार्केट और स्टेट के द्वारा अपनी अंगुलियों पर नचाया जा रहा है- ये बात जैसे ही उनको पता चलेगी, बेचारे मायूस हो जावेंगे!

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अतीत में हेडोनिस्ट समाज उभरे हैं और नष्ट हुए हैं। जैसे कि पोम्पेई, जिसमें रागरंग की अति पर जा पहुँचे लोग वेसुवीयस ज्वालामुखी के विस्फोट से पलभर में राख हो गए। रोमनों के यहाँ हेडोनिज़्म था। भारत में रीतिकालीन भावबोध हेडोनिस्ट था। तीसरी दुनिया के देशों में घोर ग़रीबी के बावजूद घोर सुखवाद है, भौतिकवाद है। बुद्ध, जीज़ज़, गांधी जैसे लोग हेडोनिज़्म पर प्रहार करते हैं और एक काउंटर-नैरेटिव बनाते हैं। यही उनकी लोकप्रियता का आधार भी है, क्योंकि सुखवादी भीतर ही भीतर ग्लानि से भरा होता है, क्योंकि संशय और अपराध-चेतना भी मनुष्य होने के मूल में है। वैसे में बाज़ार की कोशिश रहती है कि सुखवादी को उसकी ग्लानि से कैसे मुक्त करें। गिल्ट-फ्री मटैरियलिज़्म : यह पूँजीवाद की सबसे बड़ी स्कीम है और सूचना-प्रौद्योगिकी की मदद से वह उसे साकार करता है। आज के समय का सबसे बड़ा नारा है- “मौज मनाओ, जो अच्छा लगता है करो, कोई मरता हो मरे मुझे इससे क्या, मुझको तो अपना दो पैसे का सेंसुअस प्लेज़र चाहिए क्योंकि यही मेरा तल है, मैं व्यक्ति नहीं देह हूँ, मैं मंथन नहीं एक सिसकी हूँ, मेरी गहराई चमड़ी से ज़्यादा नहीं, मैं पदार्थवादी और सुखवादी हूँ, यही मेरा अस्तित्व है, इंस्टाग्राम मेरी ख़ुशियों का इश्तेहार है, आओ और मुझे देखो!”

तमाम तरह के विद्रोह ख़ुशी के लिए किए जाते हैं। एक विद्रोह ख़ुशी के विरुद्ध भी होना चाहिए। मनुष्य-जीवन के अनेक लक्ष्य हैं- जैसे जानना, समझना, अनुभव करना, विश्लेषित करना, निष्कर्ष निकालना, तर्कसंगति की तलाश करना, और इसके साथ ही सुख पाना भी। लेकिन केवल सुख पाना ही इकलौता मक़सद है- यह बाज़ार के द्वारा रचा गया सरासर झूठ है। और यह घोर विषाद और अवसाद को रचता है, क्योंकि यह प्राकृतिक नहीं है। क्योंकि मनुष्य की आत्मा में बहुत सारे डार्क इलाक़े मौजूद हैं, उसके अवचेतन में बहुत सारा अंधकार है, यह सम्भव ही नहीं है कि कोई मनुष्य पूरी तरह से प्रसन्न हो जाए। यह झूठ मनुष्य को भीतर से विखण्डित करता है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे प्लेज़र-पैराडॉक्स कहते हैं। इतिहास गवाह है कि हेडोनिस्ट समाज शनै:-शनै: आत्मघात की ओर अग्रसर होता है। जिसने हर क़ीमत पर ख़ुश होने को ही अपना जीवन-प्रयोजन बना लिया हो, एक घोर संताप, विषाद और अवसाद आगे के चौराहे पर उसका रास्ता देख रहा है!

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Nikhil- पढ़ते हुए कई कई बातें ध्यान में आई। पर एक बात जो कहनी जरूरी लगी कि आपने खुशी और सुख दोनों में भेद नहीं किया है, या इसके संबंध पे विचार नहीं रखा है। इनफैक्ट, इसे पढ़ते हुए ऐसा लगा कि आप दोनों को समान ही मान रहे। यह बात खटक सी रही है। बाकी इस लेख का निष्कर्ष से मेरी सहमति है। बाजार हमें “वन डाइमेंशनल मैन” बनाने को तत्पर है, और हम भी इसी दिशा में कार्यरत है।

Sushobhit- चार तरह की ख़ुशियाँ गिनाईं, उनमें से एक ऐंद्रिक सुख है और शेष तीन हैप्पीनेस इंडेक्स के दायरे में आती हैं। बहुत स्पेसिफ़िक तरीक़े से प्लेज़र और हैप्पीनेस को डिस्टिंग्विश किया है।

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Nikhil- आपने सुख को खुशी का एक सबसेट ही माना है। अब मैं अपनी कुछ शंकाएं रखता हूं।

  1. क्या आपकी परिभाषा में वांछनीय और अवांछनीय खुशी जैसे विभाजन के लिए स्थान नहीं है? या उच्च और निम्न कोटि जैसा विभाजन? और अगर ऐसा नहीं है तो आपकी खुशी की परिभाषा तो सर्वग्राही मालूम पड़ती है, ऐसा है क्या? या फिर आप खुशी और आनंद व संतुष्टि को अलग अलग कर के देखते है?
  2. दूसरा, आप जीवन को विभिन्न भावों को जीने का नाम मानते हैं। अब समस्या यह है कि ऐसा जीवन जीने के बाद अंतिम अवस्था में कोई व्यक्ति खुश होगा, संतुष्ट होगा तो क्या जीवन यात्रा में भोगे उसके दुख एवम संताप इस अंतिम खुशी व संतुष्टि के लिए नहीं था? ( लघुकालिक अनुभव स्वयं दीर्घकालिक लक्ष्य के लिए साधन बन गए।)

मैं अपनी राय रख रहा हूं ताकि मेरा नजरिया और प्रश्न स्पष्ट हो। मेरी नजर में , खुशी व सुख की भी हायर्की है। भौतिक सुख बाजार का प्रथम लक्ष्य है, और सेलेक्टिव मानसिक सुख इसके बाद। ऐसे सुख हायर्की में नीचे हैं, निम्न कोटि के। परोपकार, सेल्फ एक्चुअलाइजेशन उच्च कोटि का सुख है।

अब मनुष्य जीवन के संदर्भ में आपकी परिभाषा से कमोबेश सहमत हूं। मनुष्य जीवन केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक , राजनीतिक, पारिवारिक , पर्यावरणीय आदि भूमिकाओं से सामान रूप से संबद्ध है (हर्बर्ट मार्क्यूज के विचारानुसार ) और देखना, समझना, विश्लेषण करना आदि इसका अटूट हिस्सा। मेरी नजर में ऐसा जीवन जीना, इन भूमिकाओं को जीना स्वत: ही खुशी प्रदायक है। (आपकी परिभाषा में यह तीसरे या चौथे प्रकार की खुशी में आएगा) ।अत: मनुष्य का दीर्घकालिक लक्ष्य भी खुशी ही है। पर यह बाजार द्वारा परोसे सुख से भिन्न है। अंत में, यह लेख पर पढ़ते हुए प्रसाद भी याद आए। प्रसाद ने “कामायनी” में सभ्यता समीक्षा की। अतिशय भोग आधारित व्यवस्था का अंत करवाया और “आनंदवादी” व्यवस्था स्थापित की। हालांकि इस रचना की अपनी समस्याएं है।

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Sushobhit- अव्वल तो आनंद क्या है, इसे स्पष्ट करना ज़रूरी है। ये एक स्प्रिचुअल छटा वाला शब्द है। लोगों ने ये सुना है कि सुख होता है, दु:ख होता है, इनके परे आनंद होता है आदि। पर क्या लोगों ने इसे अनुभव किया है? मुझे तो नहीं पता। सुख और प्रसन्नता को ही हम जानते हैं। सुख शब्द अधिक ऐंद्रिक है। प्लेज़र के अर्थ में। प्रसन्नता एक मानसिक दशा है, संतोष की तरह, पर क्षणिक है। और अस्थायी है। वाँछनीय और अवाँछनीय ख़ुशी से हम क्या समझें, जब वाँछनीय की परिभाषा सबके लिए बदल जाती है। दूसरे, अंतिम ख़ुशी या संतुष्टि भी एक हाइपोथेटिकल चीज़ है। यह हमने सुनी है, जानी नहीं है। हमने सुना कि फलाँ व्यक्ति ने अपने जीवन में सारे दायित्व निभा दिए, वो चैन से मरा। पर वो कैसे मरा, यह हम कभी जान नहीं सकते। मृत्यु के क्षण में क्या प्रसन्नता, संतोष जैसी चीज़ों की गुंजाइश होती है, या हम एक दूसरे आयाम में दाख़िल होते समय इन्हें पीछे छोड़ जाते हैं? इसलिए उसके बारे में बात नहीं करूँगा। जीवन की प्रक्रिया के दौरान अवश्य बहुत सारी चीज़ें मनुष्य को सुख, प्रसन्नता, संतोष दे सकती हैं, लेकिन मैं इस कंज़्यूमरिस्ट हेडोनिज़्म का घोर विरोधी हूँ, जो हैप्पीनेस को एब्सोल्यूट घोषित कर रहा है। और जो यह कह रहा है कि अगर कोई व्यक्ति ख़ुश है तो फिर हमें कुछ और नहीं पूछना चाहिए। यह ग़लत है। ख़ुशी अकाट्य तर्क नहीं है।

Nikhil- जी। दूसरा आयाम! शायद इसपे भी कभी कुछ पढ़ने को मिले आपसे। “कंज्यूमरिस्ट” विशेषण के साथ हेडोनिज्म हो या योग और अध्यात्म, बाजार का हथियार ही है। वैसे बाजार के लिए सुख बेचना आसान है, इसीलिए इस पर फोकस्ड है। लेकिन भय का niche market भी है और बाजार उसका भी उतनी ही दक्षता से दोहन करता है। Just for the sake of argument , बाजार के लिए जिस दिन “हैप्पीनेस” मुफीद नहीं रहेगा, इसे छोड़ देगा।

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Manish gupta- एक संशय है – गांधी या बुद्ध का मार्ग भी आत्म-पीड़ा सुख का मार्ग तो नहीं? इसके मूल में भी सुख की pursuit दिखाई देती है। वैसे ही जैसे एक खिलाड़ी अपने आप को तकलीफ़ देकर train करता है। शायद?

Sushobhit- ऐसा नहीं है। गांधी के यहाँ तो भौतिक सुख का स्पष्ट निषेध है नैतिक संदर्भ में। वे इस क्रिश्चियन विचार से प्रभावित थे कि कष्ट झेलकर आप स्वयं को शुद्ध करते हैं। बुद्ध तो ख़ैर निर्वाण की बात करेंगे। शून्य की बात करेंगे। अनित्य, अनात्म का उपदेश देंगे। सुख जैसी थोथी बात बुद्ध जैसी विराट प्रतिमा के पास कहाँ। यह तो बाज़ारू शब्द है। मनुष्य में सुख की भूख है, इसका ये मतलब नहीं कि वो उसका सर्वोच्च जीवन-मूल्य बन जाएगा।

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Sushobhit- “बहुत ख़ूब” और “वाह” : ये बहुत डिप्रेसिव अभिव्यक्तियाँ हैं। ये ऐसा ही है गीता के दौरान अर्जुन बोल रहा है, वाह, बहुत खूब, अद्भुत! ऐसा होता तो गीता पहले ही चैप्टर पर ख़त्म हो जाती। वो आगे बढ़ी क्योंकि वहां पर एक डायलॉग, एक संवाद चल रहा था। वाह और बहुत खूब बड़ी प्रिमिटिव एक्सप्रेशन है और पाठक के मानसिक स्तर को बताती है। यहां कोई मुशायरा नहीं चल रहा है जो आप वाह वाह कहेंगे!

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