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वेब-सिनेमा

घूंघट वाली औरतों पर बनी 2 घंटे की इस फिल्म से आप बाहर नहीं आ सकेंगे!

यूनुस ख़ान-

ऐसे समय में जब रुपहला पर्दा बहुधा खूनी कहानियों से रंगा हुआ है, किरण राव की ‘लापता लेडीज़’ आपको चौंकाती है। ये एक सुकून भरी बयार की तरह है। हिंदी सिनेमा को इस तरह के प्रोडक्शन चुपके-चुपके सही दिशा में मोड़ रहे हैं। जहां सिनेमा अपने समय और समाज की कहानी कहता नज़र आए। फिल्मों में लड़ाई और फिल्मों को लेकर लड़ाई आपस में लड़ाई का सबब ना बने।

कम लोग जानते हैं कि क़रीब पाँच बरस पहले सिनेस्तान ने पहली बार एक फ़िल्म स्क्रिप्ट प्रतियोगिता आयोजित की थी जिसमें बिप्लब गोस्वामी की स्क्रिप्ट ‘two brides’ को दूसरा स्थान प्राप्त हुआ था। उन्हें अवार्ड आमिर ख़ान के हाथों दिया गया था। आमिर ख़ान को ये स्क्रिप्ट इतनी पसंद आई थी कि उन्होंने इसके बारे में किरण राव को बताया। किरण राव को इस स्क्रिप्ट का मर्म छू गया।

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महिलाओं के सिर पर पड़ा घूंघट उन्हें ना तो दुनिया को देखने का मौका देता है और ना दुनिया को उन्हें देखने का मौका ही देता है। उन्होंने सामाजिक विसंगतियों पर बात करने वाली इस स्क्रिप्ट पर फ़िल्म बनाने का फ़ैसला किया। बिप्लब को ये आइडिया भारत भर में यात्राओं के दौरान आया था। उन्होंने देखा कि महिलाओं को किस तरह चौखट में क़ैद रखा जाता है और जब वो बाहर निकलती हैं तो लंबे घूँघट की क़ैद में होती हैं। दूसरी तरफ़ आमिर ख़ान के ‘पानी फाउंडेशन’ के लिए काम करते हुए किरण राव ने महाराष्ट्र के गांवों में महिलाओं को क़रीब से देखा था। दोनों अनुभव आपस में मिल गये और इस तरह शुरू हुआ ‘लापता लेडीज़’ का सफ़र।

‘लापता लेडीज़’ को लिखने वालों की टोली में बिप्लब के अलावा स्नेहा देसाई Sneha Desai और दिव्यनिधि शर्मा शामिल हैं। स्‍नेहा गुजराती थियेटर से जुड़ी रही हैं। उनके लिखे नाटक बहुप्रशंसित रहे हैं। दूसरी तरफ़ दिव्यनिधि शर्मा टेलीविजन की दुनिया से आते हैं। उन्‍होंने इस फ़िल्‍म में एक गाना भी लिखा है।

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ये फिल्म मोटे तौर पर दो लड़कियों के संघर्ष की दास्तान है। फूल, जिसकी शादी दीपक कुमार से होती है, लेकिन ट्रेन की भीड़ में उसकी दुल्हन बदल जाती है और घूँघट काढ़े पुष्पा रानी उसके घर चली आती है। घर आने पर जब घूँघट हटाया जाता है तब पता चलता है कि दुल्हन तो बदल गयी। यहां से शुरू होता है संशय, बदहवासी, भागदौड़ और तनाव।

‘लापता लेडीज़’ में रवि किशन को छोड़कर कोई बड़ा सितारा नहीं है। दिलचस्प ये है कि सारे कलाकारों के नाम और काम को जानने के लिए बाक़ायदा गूगल करना पड़ता है। इसके बावजूद फ़िल्म अपनी गहरी छाप छोड़ती है। इतने चुटीले संवाद की कभी आप हंस पड़ें, कभी तालियां बजाने पर मजबूर हो जायें तो कभी सोचने पर।

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हमारी अपनी दुनिया के किरदार नज़र आते हैं इस फ़िल्म में। जैसे पतीला रेलवे स्टेशन पर चाय का स्टॉल चलाने वाली मंजू माई, जो कहती है कि अकेले रहकर खुश रहना औरत के लिए मुश्किल काम है, पर एक बार अगर वो ये सीख ले तो इससे बेहतर कुछ नहीं। मंजू माई नई नवेली दुल्हन फूल से कहती है कि तुम्हें रानी बेटी बना दिया गया, घर के कामकाज सिखा दिये गये, पर सब सिखाई-पढ़ाई का क्या फ़ायदा अगर तुम्हें अपने ससुराल के गांव का नाम तक याद नहीं’।

रवि किशन एक काईयां फ़िल्म इंस्पेक्टर श्याम मनोहर के किरदार में हैं। पर उनका एक मानवीय पक्ष भी है। सबसे बड़ी बात ये है कि महिलाओं की आज़ादी और उनके अधिकारों पर बात करते हुए फ़िल्म पुरूषों को विलेन नहीं बनाती। कोई नारेबाज़ी नहीं करती।

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एक और बहुत ज़रूरी बात। गांव भारतीय सिनेमा से लगातार ग़ायब होते चले जा रहे हैं। बीते दो तीन दशक में पिछली बार कितनी फ़िल्मों में आपने शुद्ध भारतीय गांव की कहानी देखी थी। ‘लापता लेडीज़’ में गांव है, खेत हैं, साइकिल है, बिना स्टेशन के रूकने वाली ट्रेन है, बाज़ार है, घर के अंदर क़ैद और अपने जीवन से ख़ुश गांव की महिलाएं हैं।

‘लापता लेडीज़’ तंज़ भी ख़ूब करती है। घूँघट लेकर चल रही फूल को ठोकर लगती है तो गांव की एक महिला उसे सिखाती है, ‘घूँघट काढ़ लेने के बाद सामने नहीं नीचे देखकर चलना होता है’। या फिर गांव के नाम को लेकर पुष्पा कहती है। हर बार सरकार बदल जाने के बाद हमारे गांव का नाम भी बदल जाता है। ये फ़िल्म बिना किसी नारेबाज़ी के कुछ बड़ी गहरी बातें कह जाती है।

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‘लापता लेडीज़’ एक ज़रूरी फ़िल्म है। परिवार के बुज़ुर्गों को भी इसे दिखाने थियेटर तक ले जाया जा सकता है। फ़िल्म में राम संपत का संगीत है। गाने कमाल के हैं। प्रशांत पांडे का लिखा गीत ‘बेड़ा पार’ सोना महापात्रा ने गाया है।

पहना है सूट बूट हमरा पिया

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सातों जनम का टिकिट है लिया

अब इस सफर की हुई है शुरूआत

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थामा इन्होंने जब हाथों में हाथ

सैंयाजी संग है तो लगेगा बेड़ा पार।।

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प्रशांत पांडे का लिखा गाना है ‘सजनी रे’ जिसे अरिजीत सिंह ने गाया है।

ओ सजनी रे, कैसे कटें दिन रात

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कैसे मिले तेरा साथ

तेरी याद सताए रे।।

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इस फ़िल्म में दिव्यनिधि ने एक मज़ेदार गीत लिखा है ‘डाउटवा’। जिसे सुखविंदर सिंह ने गाया है।

बहुत ज़्यादा शेडी है

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बहुत सयानी लेडी है

क्या वो गड़बड़ है जिसको

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करने को वो रेडी है

ये सुतली वाला बम

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है जिसकी प्रियतम

शक है हमको कर देगी तबाह

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मन करता है शाउटवा

ई कन्या पे डाउटवा।।

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‘लापता लेडीज़’ में स्वानंद किरकिरे का लिखा बहुत ही प्यारा गीत ‘धीमे धीमे’ श्रेया घोषाल ने गाया है। ये गाना दूर तक आपके साथ बना रहता है।

धीमे धीमे चले पुरवैया

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बोले थामो तुम मेरी बैंया

संग चल मेरे, रोके क्यों जिया।।

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फ़िल्म में गाने पूरे नहीं रखे गए हैं। बस उतने ही हैं जितने में फ़िल्म का प्रवाह ना भटक जाए। गाने सुनने के लिए आपको इंटरनेट की शरण में जाना होगा। करीब दो घंटे की ‘लापता लेडीज़’ ऐसी फ़िल्म है जिससे आप बाहर ना आ सकें। ये फ़िल्म आपके भीतर रह जाती है। ज़रूर देखिए।

और हां, Ajay Brahmatmaj जी, आपकी मुहिम याद आई जब फ़िल्म के टाइटल प्रमुखता से हिंदी में चले।

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