मूंगों की शानदार जाति इंसानी हरकतों के कारण इस ग्रह से अपना बोरिया-बिस्तर समेटने की तैयारी कर रही है!

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चंद्रभूषण-

सुने कोई मूंगे की मनुहार… औसत आय वाले लोग आज भी मूंगे की अंगूठी पहनते हैं। ज्योतिषाचार्य अमीर लोगों को ज्यादा महंगे रत्न बताते हैं। बाकियों का मंगल आज भी समुद्र में पाई जाने वाली इस सस्ती चीज से शांत हो जाता है। कम लोगों को पता होता है कि उनकी उंगली की शोभा बढ़ा रहा यह मूंगा कभी एक जिंदा चीज था। हालांकि किसी कौड़ी या शंख की तरह चलने-फिरने वाला जीव होने का सौभाग्य इसके हिस्से कभी नहीं आता। जिन लोगों को मालदीव या लक्षदीप के तटों से थोड़ी ही दूरी पर मूंगों के इलाके में गोता लगाने का मौका मिला है, वे बताते हैं कि इतना सुंदर दृश्य उन्होंने कभी सपने में भी नहीं देखा था।

हम जैसे सामान्य जन, जो ऐसे दृश्य टीवी पर, या ‘फाइंडिंग नीमो’ जैसी एनिमेशन फिल्म में ही देख पाते हैं, वे भी यह सोचकर हैरान रह जाते हैं कि इतनी सुंदर जगहें क्या आज भी इस ग्रह पर मौजूद हैं! मूंगा अगर जीव है तो आखिर कैसा? अगर यह चल-फिर नहीं सकता तो क्या हम इसे पौधा नहीं कह सकते? जीव तो आखिर पौधे भी होते हैं। एक बुनियादी फर्क है, जिसकी वजह से इसकी गिनती पौधों में न होकर जानवरों में होती है। वह यह कि पौधे अपना खाना खुद बनाते हैं, जबकि इंसान समेत सारे जानवर- साथ में मूंगा भी- अपने खाने के लिए किसी पौधे पर या पौधा खाने वाले किसी और जानवर पर निर्भर करते हैं।

मूंगा इतना छोटा जानवर है कि हम उसकी बस्तियां या पुश्तैनी किले ही देख पाते हैं। अकेले मूंगे की तरफ तो हमारा ध्यान भी नहीं जाता। दरअसल मूंगे के बारे में जानना जीवन और इस धरती के प्रति विनम्र होने की पहली सीढ़ी चढ़ने जैसा है। कितने अद्भुत रूपों में जीवन को यहां रचा गया है। कितनी मशक्कत से पीढ़ी दर पीढ़ी जीवन खुद को बचाता है। यह भी कि मानुसजात ने अपने लालच और बेध्यानी में हर तरह के जीवन को कितने बड़े संकट में डाल दिया है। ब्यौरे में जाने से पहले हम कुछ आंकड़ों पर बात करते हैं।

हड्डियों से रचा देश

अंतरिक्षयात्री अपनी आंखोंदेखी के आधार पर पृथ्वी को जलीय ग्रह ‘वाटर प्लैनेट’ कहते हैं। इसकी सतह का 71 प्रतिशत हिस्सा समुद्री है। बचे हुए 29 फीसदी महाद्वीपीय हिस्से में लगभग आधा दुर्गम बर्फीले इलाकों और रूखे रेगिस्तानों का है। इन जगहों पर जाया जा सकता है लेकिन वहां रहा नहीं जा सकता। कुल मिलाकर धरती की सतह के पंद्रह-सोलह फीसदी हिस्से में इंसान रहते हैं। इसी को दुहने के लिए सारी मारामारी है। लेकिन ध्यान रहे, विशाल समुद्रों में भी जिंदगी के अनुरूप इलाके बहुत थोड़े हैं। हमें लगता है कि पूरा समुद्र जीवन से खलबला रहा होगा, लेकिन यह हमारी भूल है।

जलीय जीवों को भी अपने अंडे-बच्चे देने के लिए स्थिर और पोषणयुक्त जगहों की जरूरत होती है। ऐसी जगहें, जहां कुछ ऑक्सिजन और उजाला पहुंचता हो और जहां ऐसे खनिज मौजूद हों, जो कोशिकाओं द्वारा ग्रहण कर सकें। ये जगहें या तो महाद्वीपों के समुद्री किनारे से दस-बारह मील के दायरे में पड़ती हैं, जिन्हें कॉन्टिनेंटल शेल्फ कहा जाता है, या फिर अपेक्षाकृत ऊंची समुद्री सतहों पर मौजूद कोरल रीफ (मूंगा भित्तियां) जिंदगी के लिए जरूरी सारे इंतजाम करती हैं। 2020 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी सूचना के अनुसार अभी तक केवल 20 फीसदी समुद्रों का सर्वेक्षण किया जा सका है और इतने सर्वे का निष्कर्ष यह है कि हर एक हजार वर्ग किलोमीटर समुद्री क्षेत्र में एक वर्ग किलोमीटर हिस्सा मूंगा भित्तियों का है।

हो सकता है, शत प्रतिशत सर्वेक्षण के बाद यह अनुपात कुछ बदले, लेकिन अभी के आकलन के अनुसार धरती पर मूंगे के कब्जे वाला इलाका खासा बड़ा कहलाएगा। 2 लाख 84 हजार 300 वर्ग किलोमीटर का यह इलाका इटली से थोड़ा कम लेकिन इक्वेडोर से ज्यादा और ब्रिटेन से तो काफी ज्यादा है। सच पूछें तो मूंगे अपने जिस खास देश में रहते हैं, वह उनकी अपनी और उनके पुरखों की हड्डियों का बनाया हुआ है और इस कथन में अलंकार की कोई भूमिका नहीं है।

एक छेद से सारे काम

मूंगा एक छोटा सा सिमिट्रिक (संगतिपूर्ण) जीव है। इसकी लंबाई 3 मिलीमीटर से डेढ़ सेंटीमीटर तक नापी गई है। इसके बेलनाकार शरीर में ऊपर मुंह और नीचे पेट होता है। बिल्कुल सरल संरचना। दरअसल सी एनिमोन और कुछ दूसरे गिने-चुने जीवों के साथ यह एंथोजोआ नाम के जीव वर्ग से आता है, जिसके शरीर में सिर्फ एक छेद होता है। इस वर्ग के जीव अपने श्वसन, पोषण और उत्सर्जन से लेकर प्रजनन तक के लिए इसी एक छेद का इस्तेमाल करते हैं।

नीचे से मूंगा अपनी बस्ती के साथ इतनी मजबूती से जुड़ा होता है कि भीषण चक्रवात और सूनामी लाने वाले भूकंप भी इसे अपनी जगह से हिला नहीं पाते। सबसे बड़ी बात यह कि सेवारों (शैवालों) की एक जाति के साथ इसका सिंबायोटिक (जैविक निर्भरता) संबंध होता है। मूंगे से जुड़ा हुआ यह सेवार (एल्गी) पानी में बहुत थोड़ी मात्रा में पहुंचने वाली सूरज की रोशनी और मूंगे द्वारा छोड़ी जाने वाली कार्बन डायॉक्साइड से फोटोसिंथेसिस के जरिये अपना खाना बनाता है और इसे मूंगे के साथ साझा करता है। मूंगे की 95 फीसदी खाद्य आवश्यकता जूजैंथेल सेवार के जरिये हासिल होने वाले इस खाने से ही पूरी होती है। बाकी पांच प्रतिशत खाना- जो प्रायः बहुत छोटे जीव हुआ करते हैं- मूंगा अपने मुंह के किनारों पर मौजूद टैंटेकल्स से पकड़कर खुद खा लेता है।

जूजैंथेल सेवार के साथ भोजन के अपने साझा रिश्ते में मूंगा समुद्र के पानी और कार्बन डाईऑक्साइड के संसर्ग से कैल्शियम कार्बोनेट बनाता है, जो इसके नीचे जमता चला जाता है। सख्ती में संगमरमर के बजाय हड्डी के करीब की यह चीज हजारों-लाखों वर्षों में किसी किले की अभेद्य दीवारों जैसी शक्ल लेती जाती है और दुनिया इसे कोरल रीफ (मूंगा भित्ति) के नाम से जानती है। इसकी सख्ती का आलम यह है कि एक दौर में जहाजों के लिए काफी खतरनाक साबित होने के बाद इसकी नक्शानवीसी की जाने लगी।

यह भी कमाल है कि इन भित्तियों की उम्र का आकलन अलग-अलग इलाकों में दस हजार साल से लेकर 55 करोड़ साल तक किया गया है। दुनिया की सबसे बड़ी जैविक संरचना, ऑस्ट्रेलिया के पूरब-उत्तर में पाई जाने वाली ग्रेट बैरियर रीफ 2300 किलोमीटर लंबाई में फैली है और इसके क्षेत्रफल को लेकर आज भी एक राय नहीं बन पाई है।

ब्लीचिंग क्या है

मूंगे और सेवार के बीच का यह सिंबायोटिक रिश्ता तापमान और प्रदूषण को लेकर बहुत ही संवेदनशील है। समुद्रों में बढ़ रहा प्रदूषण पानी को कम पारदर्शी बना देता है और जूजैंथेल ठीक से अपना खाना नहीं बना पाते। लेकिन उससे बड़ी समस्या यह है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते समुद्री तापमान जरा भी बढ़ने के साथ मूंगा इस सेवार को बाहर फेंक देता है। बता दें कि कि मूंगे को अपने सुंदर रंग जूजैंथेल सेवार से ही हासिल होते हैं, जो एक स्पेक्ट्रम में बैंगनी से गुलाबी और पीले से नारंगी तक कुछ भी हो सकता है।

सेवार को बाहर फेंकते ही मूंगा बदरंग और निष्प्राण दिखाई देने लगता है, जैसे समुद्र में सूखी हड्डियों का ढेर पड़ा हो। इस प्रक्रिया को ब्लीचिंग कहते हैं और इसे मूंगे की मौत जैसा समझा जाता है। ‘जैसा’ इसलिए कि कहीं-कहीं मूंगा भित्तियों को ब्लीचिंग के बाद दोबारा जिंदा भी होते देखा गया है। बहुत तकलीफ की बात है कि 14 अप्रैल 2022 को पलाऊ में हुई ‘ऑवर ओशंस कॉन्फ्रेंस’ में पर्यावरणविदों के एक दल ने घोषणा की कि जैसे रुझान दिख रहे हैं, सन 2050 तक दुनिया की सारी मूंगा भित्तियां निष्प्राण हो सकती हैं। यानी मूंगों की शानदार जाति इंसानी हरकतों के कारण ही इस ग्रह से अपना बोरिया-बिस्तर समेटने की तैयारी कर रही है।

इस दल का यहां तक कहना था कि अगर 2050 तक धरती के तापमान को 1850 की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस से ऊपर के निर्धारित लक्ष्य पर ही रोक लिया जाए, तब भी 90 फीसदी मूंगाभित्तियों के विनाश को नहीं रोका जा सकता। इसके तुरंत बाद, जैसे पलाऊ में किए गए दावे को ही सच के कुछ ज्यादा करीब साबित करते हुए 11 मई 2022 को ग्रेट बैरियर रीफ के हेलिकॉप्टर सर्वे के नतीजे घोषित किए गए कि संसार की इस सबसे बड़ी मूंगा भित्ति का 91 प्रतिशत हिस्सा 2021-22 की भीषण गर्मी में किसी न किसी स्तर की ब्लीचिंग का शिकार हो चुका है।

कम होती मछलियां

कुछ लोगों को यह लग सकता है कि मूंगों की फिक्र तो बहुत ज्यादा संवेदनशील पर्यावरणप्रेमी ही कर सकते हैं। अपनी रोजी-रोटी में लगे रहने वाले आम आदमी को भला गहरे समुद्रों के वासी इस पत्थर जैसे जीव से क्या लेना? उसके धरती पर रहने या चले जाने की चिंता हम क्यों करें? तो स्पष्ट कर दिया जाए कि समुद्रों में रहने वाली एक चौथाई जीवजातियां अपने जीवन के लिएp मूंगों की बस्तियों पर ही निर्भर करती हैं और बाकी के बारे में फिलहाल कहना मुश्किल है कि मूंगे के साथ उनका जीवन-मरण का रिश्ता है या नहीं।

जिन इलाकों में कोरल ब्लीचिंग होती है, उसके नजदीकी समुद्री तटों पर मछलियों की पकड़ अचानक कम हो जाती है। भारत के मछुआरे भी समुद्रों में मछलियां कम होने की शिकायत हर साल कर रहे हैं लेकिन इसके लिए वे अभी बड़े हितों द्वारा चलाए जाने वाले मछलीमार ट्रॉलरों को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। क्या पता, कल को उनकी यह समझ मूंगा भित्तियों तक भी जा पहुंचे।

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