अजय कुमार, लखनऊ
फिर बसपा से एक और नेता की विदाई और एक बार फिर मायावती पर धन उगाही का आरोप। यह सिलसिला लगता है कि बीएसपी के लिये अनवरत प्रक्रिया हो गई है। बसपा छोड़ने या निकाले जाने वाला शायद ही कोई ऐसा नेता रहा होगा जिसने ‘बहनजी’ पर धन उगाही का आरोप न लगाया हो। नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने भी इसी सिलसिले को आगे बढ़ाया है। अपनी बात साबित करने के लिये उनके द्वारा मायावती से टेलीफोन पर हुई वार्तालाप का ऑडियो क्लिप जारी किया गया है। नसीमुद्दीन की विदाई के साथ ही बीएसपी में एक युग समाप्त हो गया है। नसीमुद्दीन को कांशीराम ही बसपा में लाये थे। नसीमुद्दीन के बाहर जाने के बाद अब बसपा में कांशीराम के समय का कोई कद्दावर नेता पार्टी में नहीं बचा है। बड़े नेताओं के नाम पर मााया के अलावा सतीश मिश्रा ही बचे हैं। सतीश मिश्रा भले ही बीएसपी के कद्दावर नेता हों, लेकिन बीएसपी में उनका आगमन काफी देरी से हुआ और बीएसपी मूवमेंट में उनका कोई खास योगदान भी नहीं रहा है।
निश्चित ही बसपा को झटके पर झटके लग रहे हैं, लेकिन मायावती इससे सबक लेने को तैयार नहीं हैं। माया की कमजोरी की वजह से उत्तर प्रदेश में बीजेपी को रोकने की मुहिम भी प्रभावित हो रही है। वैसे, हालात समाजवादी पार्टी के भी कोई खास अच्छे नहीं हैं। अखिलेश को एक साथ कई मोर्चो पर लड़ना पड़ रहा है तो उनकी राजनैतिक अपरिपक्ता भी आड़े आ रही है। जंग में गुजरात के सैनिक नहीं मरते वाला उनका बयान और अपनी हार स्वीकारने की बजाये ईवीएम पर दोषारोपण जैसे तमाम मुद्दांें को अखिलेश बेवजह हवा दे रहे हैं।
खैर, बात नसीमुद्दीन सिद्दीकी की ही कि जाये तो पार्टी से निकाले जाने के बाद उन्होंने बसपा प्रमुख माया पर जो आरोप मढ़े और कथित प्रमाण के तौर पर ऑडियो टेप पेश किए उनकी गंभीरता का पता इससे लगाया जा सकता है कि माया कों ऑडियो टेप में कही बातों को झूठा साबित करने के लिए स्वयं मीडिया के सामने आना पड़ गया। उन्हें ऐसा ही तब भी करना पड़ा था, जब विधानसभा चुनाव के पहले उनके एक भरोसेमंद नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने पार्टी छोड़ने की घोषणा की थी।
बात विधान सभा चुनाव से पहले की है जब स्वामी प्रसाद मौर्य ने बसपा छोड़ी थी। तब माया को लगता था कि स्वामी के जाने से बीएसपी को कोई नुकसान नहीं होगा। तब माया का सारा दारोमदार मुस्लिम-दलित गठजोड़ पर टिका हुआ था, लेकिन मोदी लहर के चलते ऐसा नहीं हुआ। बसपा तीसरे स्थान पर खिसक गई। उसकी इतनी भी हैसियत नहीं रही है कि वह अपनी सुप्रीमों को राज्यसभा में भेज सके।
एक समय नसीमुद्दीन बसपा के कद्दावर नेताओं में गिने जाने के साथ ही मायावती के बेहद करीबी भी माने जाते थे, माया ने नसीमुद्दीन के सहारे ही मुस्लिमों को सौ के करीब टिकट देकर मैदान में उतारा था, परंतु यह प्रयोग असफल रहा तो माया के लिये नसीमृद्दीन अप्रसांगिक हो गये। वैसे भी मायावती अपने नेताओं को दरवाजा दिखाने के लिए जानी जाती रही हैं, उन्हें इस बात की कभी कोई चिंता नहीं रही कि धीरे-धीरे उनके सारे पुराने साथी बाहर होते जा रहे हैं। अब मायावती के साथ पार्टी को मजबूत करने वाले ऐसा कोई नेता नहीं रह गया हैं जो अपने जनाधार के साथ अपनी पहचान भी रखता हो। तमाम दलित नेताओं की विदाई की वजह से ही बसपा का दलित आंदोलन भी हासिये पर पहुंच गया है। दलितों का बसपा से मोह भंग होता जा रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह माया का कहीं मुसलमानों को तभी ब्राहमण-बनियों को दलितों पर तरजीह देना था।
वैसे कहने वाले यह भी कह रहे हैं कि यह बिखराव नहीं है। बहुजन समाज पार्टी में मंथन का दौर चल रहा है। हिन्दुस्तान की सियासत में मोदी का प्रभाव बढ़ने के बाद अब वोट बैंक की सियासत का रंग ढंग बदल गया है। लोकसभा और उसके बाद विधान सभा चुनाव मे मिली करारी हार के लिये भले ही बसपा सुप्रीमों माायवती ईवीएम (वोटिंग मशीन) को जिम्मेदार ठहरा रही हो,लेकिन हकीकत उनसे छिपी नहीं है। मुसलमान बसपा पर भरोसा कर नहीं रहा है तो दलित वोट बैंक में बीजेपी सेंधमारी करती जा रही है।
ऐसे में बसपा का सियासी ग्राफ का गिरना स्वभाविक भी है। विधान सभा चुनाव में बसपा ने दलित-मुस्लिम गठजोड़ के सहारे सत्ता हासिल करने के लिये बड़ा दांव चला था, लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी। अब माया को लगने लगा है कि मुलसमानों के चक्कर में दलित भी उससे दूर होता जा रहा है, इसको माया किसी भी तरह रोकना चाहती हैं। दरअसल, बसपा के संस्थाक मान्यवर कांशीराम ने पार्टी के अंदर दलित नेताओं की जो फौज तैयार की थी उसमें से अब सिर्फ मायावती ही पार्टी में बची रह गई है, जो पार्टी की सर्वेसर्वा भी है, लेकिन वह दलिातों के सभी वर्गो पर अपना प्रभाव नहीं रखती हैं। यह काम बसपा के अन्य दलित नेता किया करते थे,जिनको बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।
उत्तर प्रदेश की सत्ता पर तीन बार काबिज हो चुकी बसपा सुप्रीमों मायावती के अड़ियल रूख के कारण अनेक बड़े नेता पार्टी से बाहर गये तो कई बार बीएसपी दो फाड़ भी हुई। लोकसभा चुनाव के बाद तो बसपा के बुरे दिनोें की शुरूआत ही हो गई। माया के पुराने सियासी साथी एक-एक कर अलग होते जा रहे हैं। इसमें से कुछ ने माया की नीतियों के खफा होकर पार्टी से किनारा कर लिया तो कई को मायावती ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। ताजा मामला नसीमुद्दीन सिद्दीकी को बाहर का रास्ता दिखाये जाने का है। नसीमुद्दीन की गिनती कभी माया के सबसे करीबी नेताओं में हुआ करती थी। सिद्दीकी बसपा का मुस्लिम चेहरा थे, परंतु जब मायावती को यह लगने लगा कि अब मुस्लिम वोट बैंक की सियासत के दिन लद गये हैं तो उन्होंने नसीमुद्दीन को ही पार्टी से चलता कर दिया।
इसके अलावा और भी कई कारण थे जो नसीमुद्दीन की बसपा से ‘विदाई’ की वजह बने। योगी सरकार ने माया राज में हुए चीनी मिल घोटाले की जांच शुरू करा दी है, परंतु माया इसके लिये अपने आप को नहीं नसीमुद्दीन को जिम्मेदार ठहरा चुकी हैं। माया राज में लखनऊ और नोएडा में बने स्मारकों के निर्माण में हुई अनियमितताओं की जांच में लोकायुक्त ने पूर्व मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर घोटाले की विस्तृत विवेचना कराने को कहा था। इस मामले में कई और नेताओं और अधिकारियों का भी नाम आया था। अखिलेश सरकार ने मामले की जांच विजिलेंस को सौंप दी थी। विजिलेंस ने जांच में पाया कि स्मारकों के निर्माण के लिए नियमों को ताक पर रखकर कंसोर्टियम बनाए गए। सभी आरोपियों के खिलाफ सरकारी धन का गबन करने, आपराधिक साजिश रचने और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज हुआ था, जिसकी जांच चल रही है।
नसीमुद्दीन और उनके परिवार के खिलाफ लोकायुक्त के यहां आय से अधिक संपत्ति की शिकायत की गई थी। 2012 में तत्कालीन लोकायुक्त जस्टिस एनके मेहरोत्रा ने मामले की जांच पूरी कर ली। जांच रिपोर्ट के अनुसार नसीमुद्दीन जांच के दौरान अपनी कई संपत्तियों के बारे में जानकारी नहीं दे पाए थे। लोकायुक्त ने उनके खिलाफ विजिलेंस और प्रवर्तन निदेशालय से जांच की संस्तुति की थी। कहा यही जा रहा है ऐसी ही तमाम वजहों से मायावती ने नसीमुद्दीन को चलता कर दिया।
लब्बोलुआब यह है कि बसपा सुप्रीमों मायावती अपने तमाम संकटमोंचकों के कारण ही संकट में घिरती जा रही हैं,जो उनके अच्छे समय में साथ खड़े रहे वह माया पर संकट आते ही पीठ दिखा कर जा रहे हैं। वैसे दुनिया का दस्तूर ही यही है। माया के साथ आज जो कुछ घट रहा है,वैसा ही आचरण वह स्वयं भी अपने सहयोगियों को दिखा चुकी है।
बीएसपी छोड़ने वालों को नहीं मिली सियासी जमीन
बसपा के कई दिग्गज नेता समय-समय पर मायावती से मनमुटाव के बाद उनसे दूरी बना चुके हैं लेकिन बसपा से दूरी बनाने वाले अधिकांश नेता बसपा से अलग होने के बाद स्वयं को स्थापित नहीं कर सके। फिलहाल सतीश चंद्र मिश्रा को छोड़ दें, तो पार्टी का जो भी नेता मायावती के ज्यादा करीब पहुंचा, बहुत जल्द ही किनारे हो गया। दीनानाथ भास्कर से लेकर नसीमुद्दीन सिद्दीकी तक इसके उदाहरण हैं। पिछले दो वर्षो में बसपा छोड़ने वाले कुछ नेताओं ने जरूर बीजेपी का दामन थामकर अपनी सियासी नैया पार लगा ली। बसपा का ब्राहमण चेहरा समझे जाने वाले बृजेश पाठक, स्वामी प्रसाद मौर्या और बीएसपी के पूर्व सांसद दारा सिंह इस समय योगी कैबिनेट में मंत्री हैं।
बात अन्य नेताओं की कि जाये तो 1990 में कांशीराम के काफी करीबी राज बहादुर और जंग बहादुर ने पार्टी छोड़ी। दोनों ही नेता कुर्मी जाति से थे। राज बहादुर ने बीएसपी(आर) और जंगबहादुर ने बहुजन समाज दल बनाया। माया सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे दद्दू प्रसाद ने मायावती पर टिकट बेचने का आरोप लगाया, जिसके बाद 2015 मंें बसपा सुप्रीमों ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। पिछले दिनों दद्दू प्रसाद फिर बीएसपी में शामिल हुए हैं। एनआरएचएम और स्मारक घोटाले के आरोपित बाबू सिंह कुशवाहा माया के खास थे। माया ने उन्हें पार्टी से निकाला। 2012 में बीजेपी की सदस्या ली, लेकिन रुक नहीं पाए। माया के करीबी ओम प्रकाश राजभर ने पार्टी छोड़कर सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी बनाई। 13 साल तक राजनैतिक परिदृश्य से बाहर रहने के बाद 2014 में बीजेपी से गठबंधन किया और फिर चर्चा में आ गए। कांशीराम और मायावती के करीबी रहे आरके चौधरी ने बीएसपी से अलग होकर राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी बनाई, लेकिन सफल नहीं रहे। 11 साल बाद 2013 में फिर बीएसपी में शामिल हुए और 2016 में फिर से पार्टी छोड़ दी। बीएसपी के संस्थापक सदस्य दीनानाथ भास्कर ने मायावती की आलोचना करते हुए पार्टी छोड़ी और सपा का दामन थाम लिया। 2009 में फिर बीएसपी में शामिल हुए और 2015 में फिर बीएसपी छोड़ बीजेपी में शामिल हो गए।
कांशीराम के करीबियों में शुमार सोने लाल पटेल ने अपना दल नाम से पार्टी का गठन किया। आज अपना दल (एस) भले ही केंद्र और राज्य की सत्ता में भागीदार हो, लेकिन सोनेलाल पटेल के सामने वह भी महत्वहीन ही रहा। बीएसपी-सपा गठबंधन सरकार में बीएसपी से कैबिनेट मंत्री रहे और कांशीराम के करीबी डॉक्टर मसूद ने पार्टी छोड़ राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी बनाई। वर्तमान में डॉ मसूद राष्ट्रीय लोकदल के प्रदेश अध्यक्ष हैं।
यह भी थी निकाले जाने की वजह
विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद मेरठ, गाजियाबाद, हापुड़, मुजफ्फरनगर, सहारनरपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, संभल में कई दलित नेता और कार्यकर्ता नसीमुद्दीन के खिलाफ सड़क पर उतर आए थे। तब सिद्दीकी इन हालातों का सामना करने के बजाए बिना मीटिंग किए बीच में बैठक छोड़कर जाने लगे थे। सिद्दीकी पर पैसे लेकर टिकट बेचने, दलित कार्यकर्ताओं की बेइज्जती करने, मायावती और पार्टी को बदनाम करने के आरोप लगे थे। मेरठ में इस मुद्दे पर दो बार पार्टी कार्यकर्ताओं में मारपीट तक हुई और एफआईआर दर्ज हुई। मायावती ने एक माह पहले नसीमुद्दीन से वेस्ट यूपी के प्रभारी का पद छीना फिर उत्तराखंड के प्रभारी से पैदल कर दिया। बाद में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में संगठन का जिम्मा दिया। अब पार्टी से ही निकाल दिया। इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गढ़ विधानसभा से चुनाव लड़ चुके एक मीट कारोबारी से नसीमुद्दीन सिद्दीकी के व्यवसायिक रिश्ते अक्सर चर्चा में रहें। अमरोहा और मुरादाबाद में बीएसपी से जुड़े मुस्लिम नेताओं से उनके व्यापारिक संबंध होने की बात भी सामने आती रही थी। कहा यहां तक जा रहा था कि नसीमुद्दीन की अमरोहा में खुद की मीट फैक्ट्री भी है।
लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.