केपी सिंह-
संसद के दोनों सदनों में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने धुंआधार भाषण दिया। उनकी वर्तमान सरकार का उनका यह संसद में अंतिम भाषण रहा। इसके कुछ सप्ताह बाद ही लोकसभा के नये चुनाव का अवसर आ जायेगा। यही कारण है कि प्रधानमंत्री किसी भी मंच का उपयोग अपनी चुनावी हवा मजबूत करने के लिए इस्तेमाल करने में कोई चूक नहीं कर रहे हैं। हालांकि जो राजनीतिक परिदृश्य इस समय दिखाई दे रहा है उसमें कहीं उनकी सत्ता के लिए खतरा नजर नहीं आ रहा है। पिछले वर्ष तक स्थिति यह नहीं थी। लेकिन हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में हिन्दी पट्टी के तीन राज्यों में भाजपा को जो सफलता मिली उससे सियासी विसात उलट गई। मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव के प्रचार अभियान के दौरान स्पष्ट लग रहा था कि कांग्रेस भाजपा से सत्ता छीनने में सफल हो जायेगी।
इसके कारण भाजपा के कई दिग्गज मौसम विज्ञानी नेताओं ने वफादारी बदलकर कांग्रेस का झंडा थाम लिया था। पर चुनाव परिणाम आये तो सारे प्रेक्षक भौंचक रह गये। भाजपा ने फिर बड़े अंतर से कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया और सत्ता के दुर्ग पर अपना कब्जा बनाये रखा। छत्तीसगढ़ में भी इसी तरह अप्रत्याशित परिणाम सामने आया। हर किसी का कयास था कि भूपेश बघेल की सरकार चुनाव में आसानी से दोबारा सत्ता में लौटने में सफल होगी। लेकिन छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस का बंटाढ़ार हुआ। राजस्थान में हर चुनाव में परिवर्तन का रिवाज चला आ रहा था जिससे भाजपा को आशा तो बंधी थी लेकिन कुछ प्रेक्षक यह भी मान रहे थे कि अशोक गहलोत राज्य का रिवाज तोड़ने में सफल हो जायेंगे लेकिन आखिर में उनके अनुमान धरे के धरे रह गये।
इससे पहले जब कर्नाटक में कांग्रेस भाजपा के तमाम हथकंडों के बावजूद उससे सत्ता छीनने में कामयाब हुई थी तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता पर अंगुलियां उठनी शुरू हो गई थी। संघ के मुख पत्र में यह लेख छपकर आ गया था कि भाजपा को राज्यों के चुनावों में मोदी के चेहरे को लेकर गफलत छोड़ देनी चाहिए इसलिए राज्यों के चुनाव में स्थानीय नेतृत्व को आगे रखने की रणनीति के इस्तेमाल की उसे सोचना पड़ेगा।
मोदी ने संघ की इस राय को सर माथे लेने की बजाय अंदर ही अंदर वे इसे लेकर भड़क गये और उन्होंने इसके बाद हुए राज्यों के चुनाव में किसी स्थानीय क्षत्रप के चेहरे को प्रोजेक्ट न करने का फरमान सुना दिया। इस तरह पार्टी में अपने फैसले की सर्वोपरिता भी उन्होंने दिखा डाली और संघ को बदला भी उसकी हैसियत दिखाने के लिए दे दिया। अगर उक्त राज्यों में चुनाव परिणाम विपरीत आते तो मोदी को लेने के देने पड़ सकते थे लेकिन उनके पास ऐसा रहस्यमय करिश्मा है जिससे जमीनी स्थिति कुछ भी बनी रहे पर जहां उनका अस्तित्व दांव पर हो वहां वे बाजी हार ही नहीं सकते और यह धारणा एक बार फिर चरितार्थ हुई। इस रहस्य की कुंजी क्या है इसका पता तो मोदी युग की समाप्ति का इंतजार करना होगा जिसमें अभी काफी वक्त लगेगा।
इससे जाहिर है कि तीनों राज्यों में भाजपा को जो अबूझ सफलता मिली उसका श्रेय मोदी के ही व्यक्तिगत खाते में गया। इस बीच अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा समारोह की प्रस्तुति जिस संगठित तरीके से की गई उससे मोदी के व्यक्तित्व की अभूतपूर्व विराटता स्थापित हुई है जिसके आगे किसी भी प्रतिद्वंदी नेता या गठबंधन का कोई मायने नहीं बचा है। ऐसे मोदीमय चकाचौंध माहौल में कोई अन्यथा परिणाम आ सकता है यह सोचना किसी बुद्धिमान व्यक्ति के लिए संभव नहीं रह गया है।
होना तो यह चाहिए कि इससे मोदी बहुत ज्यादा निश्चितंता का अनुभव कर पाते जिसके चलते अपने आप को तमाम क्षुद्रताओं से ऊपर उठाने की ललक उनमें फूटती और अपने पद की गरिमा वे अपने भाषणों और करनी में झलकाने के लिए प्रवृत्त होते। लेकिन संसद में उनके भाषणों की टोन और विषय वस्तु ने यह सिद्ध कर दिया है कि उनमें बडप्पन का अभाव परिस्थितियां कितनी भी अनुकूल हो जाने पर भी भरा नहीं जा सकता। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने उनके भाषणों को लेकर यह सटीक ही टिप्पणी की है कि मोदी को सुनकर यह लगता है जैसे वे विपक्ष में हों और कांग्रेस अभी भी सत्ता में बैठी हो। वे संसद के अपने भाषण में उस कुटिलता का संवरण नहीं कर पाये जो उनके भाषण की प्रमुख विशेषता बन चुकी है।
लोकसभा में अपने भाषण में उन्होंने जब परिवारवाद को लेकर कांग्रेस को घेरा तो राजनाथ सिंह और अमित शाह के बेटों का सवाल उठ गया। इसका उन्होंने जो जबाव दिया वह बेहद अटपटा रहा जिसे धूर्तता पूर्ण ही कहा जायेगा। नरेन्द्र मोदी ने कहा कि उनकी पार्टी के नेता संघर्ष करके आगे बढ़ रहे हैं। इसे वंशवाद नहीं कहा जा सकता। लेकिन कांग्रेस में तो वंश को थोपा गया है। अगर यह कटाक्ष राहुल गांधी के लिए है तो यह कतई प्रमाणिक नहीं माना जा सकता। राहुल गांधी के लिए पूरा अवसर था कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल के अंतिम वर्षों में वे प्रधानमंत्री पद पर अपनी ताजपोशी करा लें।
मनमोहन सिंह इसके लिए सहर्ष प्रस्तुत थे लेकिन राहुल गांधी ने ऐसा किया जाना मंजूर नहीं किया। अगर आगे चलकर वे प्रधानमंत्री पद पाने का अवसर कभी प्राप्त भी करते हैं तो निश्चित रूप से यह उनके लंबे संहर्ष का परिणाम होगा। अभी तो वे लोगों की स्वीकृति हासिल करने के लिए अथक संषर्घ और परिश्रम कर रहे हैं जो उनकी भारत जोड़ो न्याय यात्रा से परिलक्षित है। फिलहाल तो इसकी यात्रा काफी लंबी दिखायी देती है जिसकी मंजिल उन्हें कभी मिली तो यह उनकी साधना का परिणाम होगा। जबकि पंकज सिंह और जय शाह का कोई संषर्घ नहीं है। वे केवल बड़े नेताओं के पुत्र होने का लाभ उठा रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि भाजपा में केवल अपवाद के तौर पर यह दो नाम हों।
उत्तर प्रदेश के दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के सुपुत्र राजवीर सिंह सांसद हैं और पौत्र संदीप सिंह प्रदेश सरकार में मंत्री। लालजी टंडन के भी बेटे आशुतोष टंडन को पार्टी में मंत्री पद दिला चुकी है। मेनका गांधी और वरूण गांधी के टिकट अब भले की कटने वाले हों लेकिन मां बेटे की इस जोड़ी को भाजपा सिर माथे लिये रही है। कर्नाटक में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बनाये गये नेता को क्या यह पद उनके पिता के राजनैतिक वजन के कारण नहीं दिया गया है। राहुल गांधी ने एक बार वंशवाद को लेकर विदेश में पूंछे गये एक प्रश्न के उत्तर में कहा था कि वंशवाद भारतीय राजनीति की एक विशेषता है क्योंकि भारतीय समाज में इसके लिए सहज स्वीकृति है।
राहुल गांधी ने ईमानदार मीमांसा की थी लेकिन यहां जरूरत यथार्थ बयानी की नहीं मुंहजोरी और बेहयायी की है। बहरहाल वंशवाद से परहेज करना निश्चित रूप से त्याग की तरह का एक मूल्य है लेकिन यह कोई ऐसी बुराई नहीं है जिसके लिए किसी के दूसरे सारे गुण एक झटके में खारिज कर दिये जायें। कांग्रेस वंश की धुरी पर संचारित हो रही है जिससे दूर होने पर वह बिखराव के कगार पर पहुंचती रही है। अतीत में इसके कई उदाहरण हैं। फिर वंशवाद का विरोध करके 2014 में भाजपा सत्ता को धकेल ही चुकी है। अब इस मुद्दे की कोई प्रासांगिकता वैसे तो नहीं होनी चाहिए लेकिन लगता है कि प्रधानमंत्री को दूसरे और नये मुद्दे सूझते ही नहीं हैं।
राज्यसभा में उन्होंने फिर नेहरू का रोना रोया। इतिहास के आधे अधूरे ज्ञान का परिचय पहले भी कई बार दे चुके हैं। यह दूसरी बात है कि इससे वे कभी शर्मिंदा नहीं होते। अब उन्होंने फिर ऐसे ही इतिहास ज्ञान को बघारा। राज्यसभा में उन्होंने बताया कि नेहरू आरक्षण के विरोधी थे। अगर डा अम्बेडकर न होते तो एससी/एसटी को आरक्षण संभव नहीं था। उन्होंने नेहरू के मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र के हवाले से नेहरू को आरक्षण विरोधी स्थापित किया लेकिन ऐसे मीनमेख से तो खुद बाबा साहब अम्बेडकर भी आरक्षण के विरोधी साबित हो जायेंगे क्योंकि उन्होंने भी व्यापक तौर पर आरक्षण की व्यवस्था को पसंद नहीं किया था। एससी/एसटी के लिए आरक्षण महात्मा गांधी और बाबा साहब अम्बेडकर के बीच हुए पूना पेक्ट का परिणाम था जिसके लिए कांग्रेस प्रतिबद्ध थी।
दलितों के लिए राजनैतिक आरक्षण की व्यवस्था तो देश आजाद होने के पहले ही हो गई थी। अम्बेडकर के विचारों से नेहरू नहीं सबसे ज्यादा विरोध सरदार पटेल को था। यह हकीकत मोदी की हिम्मत नहीं है कि बयान कर सकें। हालांकि सरदार पटेल बाद में जब उनकी पूरी प्रतिभा से परिचित हुए तो उन्होंने ही सामान्य सीट से बाबा साहब अम्बेडकर को सामान्य सभा के लिए निर्वाचित कराया। नेहरू तो हिन्दू स्त्री विवाह कानून को लेकर बाबा साहब अम्बेडकर के साथ खड़े थे जबकि राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद के नेतृत्व में कांग्रेस का प्रभावशाली परंपरावादी वर्ग बाबा साहब के खिलाफ मुखर हो गया था जिससे क्षुब्ध होकर बाबा साहब को नेहरू के न चाहते हुए भी केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा था। राजेन्द्र प्रसाद की विचारधारा आरएसएस के निकट रही थी इसलिए मोदी उनको लेकर भी कोई बेवाक टिप्पणी नहीं कर सकते।
ऐसे तो संघ प्रमुख मोहन भागवत भी आरक्षण के विरोध में हैं। बिहार विधानसभा के चुनाव के अवसर पर उनके द्वारा दिये गये आरक्षण संबंधी भाषण के कारण ही तत्कालीन राजद-जदयू गठबंधन को भाजपा पर बड़ी बढ़त मिली थी।
यथार्थ यह है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही यथा स्थितिवादी पार्टियां हैं। कोई आरोप हो सकता तो यह है कि कांग्रेस में अनुदारवादियों के हावी रहने से आरक्षण के बावजूद लंबे समय तक सरकारी नौकरियों में दलितों के कोटे की चार प्रतिशत से ज्यादा पूर्ति नहीं होने दी थी। इसमें सुधार वीपी सिंह की सरकार ने कराया और उन्होंने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करके अन्य पिछड़ा वर्ग को भी आरक्षण दिलाया। अगर मोदी आरक्षण व्यवस्था के इतने ही हिमायती हैं तो उन्हें वीपी सिंह के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिए लेकिन क्या वे ऐसा कर सकते हैं। उन्हें मालूम है कि पिछड़ों को आरक्षण देने के कारण भाजपा के लोग वीपी सिंह को सबसे बड़ा खलनायक समझते हैं और अगर उन्होंने वीपी सिंह का नाम भी लेने की जुर्रत कर दी तो पार्टी में उनकी भी उसी तरह दुर्गति हो सकती है जैसी लालकृष्ण आडवाणी की पाकिस्तान यात्रा में जिन्ना को लेकर की गई टिप्पणियों के कारण हुई थी।
मोदी का भाषण कभी निष्पक्ष और यथार्थ परक नहीं होता। उसमें राजनीतिक सुविधा के अनुरूप चालबाजी का पुट रहता है और अंत समय तक इससे उबर पाना उनके लिए संभव नहीं दिखता। उन्होंने भारतीय परंपरा के प्रति हेय भावना दूर करने को लेकर समय-समय पर अपनी जो पीठ ठोकी है उसके मद्देनजर अलग से लंबी समीक्षा प्रस्तुत की जा सकती है। लेकिन फिलहाल आरक्षण की बात है मोदी की सराहना अगर करनी है तो इस बात के लिए की जा सकती है कि पहले कभी सवर्ण मानसिकता को सामाजिक न्याय के लिए उदार बनाने की स्थिति आज जैसी कभी नहीं थी।
एक ओर वे धर्म आधारित उस परंपरा के पोषण का काम कर रहे हैं जो वर्ण व्यवस्था जैसी मानव मूल्य विरोधी धारणाओं को मजबूत करती है तो दूसरी ओर दलितों और पिछड़ों को उनकी आवादी के अनुरूप सत्ता के केन्द्रों में प्रतिनिधित्व देने के लिए तैयार करने का काम भी उन्होंने सवर्ण समुदाय के बीच किया है। यह नट कौशल जैसा संतुलन साधने का अभ्यास था जिसमें मोदी की पारंगतता प्रमाणित हुई है। यह बरकरार रहे और मोदी इस दिशा में सफलतापूर्वक आगे बढ़ते रहें इसके लिए साधुवाद।
Anand Kushwaha
February 15, 2024 at 12:13 am
सटीक, गंभीर और सारगर्भित विश्लेषण