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सियासत

मोदीखाता (दो) : ‘गौ माता’ केवल वोट लेने के लिए, जमीनी हकीकत जान कर शर्मसार हो जाएंगे BJPवाले!

Nitin Thakur

ये मोदीखाता सीरीज़ की दूसरी कड़ी है. बात उस गाय की करेंगे जिसे हमारे देश के प्रधानमंत्री देश की संस्कृति और परंपरा का अहम हिस्सा मानते हैं. वो गाय को ग्रामीण अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा भी कहते हैं. स्पष्ट कर दूं कि मेरी खोजबीन का आधार RTI पर आधारित आंकड़ों की किताब ‘वादाफरामोशी’, सरकारी और प्रतिष्ठित एजेंसियों के आंकड़े और मीडिया में प्रकाशित मंत्रियों के बयान हैं.

गंगा और गौ को मां कहकर हिंदू भावनाओं का राजनीतिक दोहन आम बात है लेकिन जब एक ऐसी पार्टी सत्ता में आए जिसका अभ्युदय ही इन मुद्दों को उठाने के साथ हुआ हो तो उससे अपेक्षा बढ़ जाती है. मोदी सरकार ने साल 2014 में देसी नस्ल की गायों की बेहतरी के लिए एक योजना बनाई. नाम था- राष्ट्रीय गोकुल मिशन. इस योजना का प्रचार सरकार की दूसरी योजनाओं की तरह नहीं किया गया जबकि गाय को लेकर हमेशा सजग रहनेवाली सरकार और गौमांस को लेकर अचानक सक्रिय हुए एक तबके की ‘फिक्र’ से हम सब वाकिफ हैं.

ये योजना राष्ट्रीय पशु प्रजनन एवं डेयरी विकास कार्यक्रम की देखरेख में चलती है. तय हुआ कि इसके तहत गोकुल ग्राम बनाए जाएं. हर ग्राम में हजार गाय रखी जाएं जिनमें 60 फीसदी दुधारू और 40 फीसदी बिना दूध देनेवाली बूढ़ी और बीमार हों. इसके लिए पीपीपी मॉडल लागू करने का फैसला हुआ जो सरकार को खास प्रिय है. ये भी तय हुआ कि देश की 83% गाय देसी नस्ल की हैं तो अगर इन पर ध्यान दिया तो दूध की नदियां ही बहने लगेंगी. दूध के अलावा गोमूत्र और गोबर से भी प्रोडक्ट्स बनाने के सपने देखे गए.

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इस योजना के सरकारी प्रदर्शन का हिसाब 26 नवंबर 2018 को एक आरटीआई से मिला. कृषि मंत्रालय के अधीन पशुपालन विभाग ने उसका जवाब दिया था. बताया गया कि इस मिशन के लिए मोदी सरकार ने पांच सालों में 835 करोड़ रुपए जारी किए. कार्यकाल के अंतिम वर्ष में तो 301.5 करोड़ की रकम दी गई. अब असल सवाल है कि इन 835 करोड़ रुपयों की भारी भरकम राशि का खर्च गौ माता पर कैसे हुआ.

एक आंकड़ा न्यूज़क्लिक वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ कि यूपी में साल 2018 में अनुमानित गोवंश की संख्या 238 लाख थी, जिसमें अनुपयोगी गोवंश की संख्या करीब 43 लाख है. ये आकलन पिछली पशु गणना के दौरान रही वृद्धि दर के आधार पर है, इसमें यह वृद्धि दर तब रही जब बूचड़खानों और गौ हत्या पर प्रतिबंध नहीं था. अब हिसाब लगाइए कि देश को छोड़ भी दें तो अकेले यूपी में सरकार को कितनी गौशालाएं खोलनी चाहिए? कम से कम पचास, सौ या दो सौ? लेकिन खुली कितनी हैं इसका जवाब खुद सरकार बताती है. जवाब है- महज़ 4. ये खुले वाराणसी, मथुरा, पटियाला और पुणे के थतवाडे में.

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इस मिशन को जब लॉन्च किया गया तब खुद मोदी सरकार ने तय किया था कि 13 राज्यों में पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) के तहत 20 गोकुल ग्राम बनाएंगे. इसके लिए 197.67 करोड़ का बजट रखा गया जिसमें 68 करोड़ रुपए जारी भी हुए लेकिन पूरा कार्यकाल निकल गया और सिर्फ 4 गौशाला खुलीं.

वैसे राष्ट्रीय गोकुल मिशन के दस्तावेज़ बताते हैं कि 2012-13 में देशभर में साढ़े 4 करोड़ दुधारू पशु हैं. जुलाई 2018 तक ये आंकड़ा 9 करोड़ तक पहुंच गया. इसमें गाय-भैंस दोनों शामिल हैं. अब आप खुद सोचिए कि सरकार को कितने गोकुल ग्राम खोलने चाहिए थे और कितने खोले गए. इसी आरटीआई में ये भी पूछा गया कि अब तक देश में कितने कामधेनु ब्रीडिंग सेंटर स्थापित किए गए हैं? इसका जवाब मिला कि राष्ट्रीय गोकुल मिशन के तहत बस एक ब्रीडिंग सेंटर खोला गया.

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ये भी तय हुआ था कि साल 2020-21 तक सारे 9 करोड़ पशुओं के हेल्थ कार्ड जारी कर दिए जाएंगे लेकिन 31 जुलाई 2018 तक राष्ट्रीय गोकुल मिशन की प्रगति रिपोर्ट ही बताती है कि चार साल में सिर्फ 1.31 करोड़ को ही हेल्थ कार्ड दिए गए.

इसके अलावा सारे पशुओं का रजिस्ट्रेशन करके एक नेशनल डेटाबेस बनाने का भी लक्ष्य रखा गया. यहां भी सरकार खुद बताती है कि वो 9 करोड़ में से बस 1.26 करोड़ (जुलाई 2018 तक) पशुओं का रजिस्ट्रेशन ही कर सकी. अनुमान आप लगा लीजिए कि इस रफ्तार से ये काम 2021 तक पूरा हो सकता है?

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इस सबके इतर अंत में केवल इतना लिखना चाहता हूं कि निजी गौशालाओं और सरकारी गौशालाओँ में गायों का जो हाल रहता है वो किसी से छिपा नहीं है. 2018 में जयपुर की श्रीगौशाला में फूड पॉयजनिंग से 28 गायों की मौत हो गई थी. साल 2017 में कुरूक्षेत्र के मथना गांव की एक सरकारी गोशाला में भारी बारिश और चारा न होने की वजह से कम के कम 25 गायों की मौत हो गई थी. उसी साल राजस्थान के उदयपुर में सरकारी गोशाला में छह महीने के भीतर ही डेढ़ सौ गाय मर गईं.

साल 2019 के फरवरी में जयपुर के हिंगोनिया गौ पुनर्वास केंद्र में भूख से तड़पकर दस दिनों में ही करीब साढ़े 800 गायें मर गईं. इसे अक्षयपात्र नाम की संस्था चलाती है. अक्षयपात्र को हिंगोनिया का ज़िम्मा तब मिला था जब वसुंधरा सरकार की इस बात के लिए थू-थू हुई कि उसके राज में हिंगोनिया धर्मशाला की हजारों गायों ने दुखद परिस्थितियों में प्राण त्याग दिए. राजस्थान में हिंगोनिया के मसले पर मेयर का तख्तापलट तक हो गया लेकिन गायों की मौत कहां रुक सकी. सितंबर 2016 से अक्षयपात्र ने ज़िम्मा संभाला लेकिन अब तक 31 हजार से भी ज़्यादा गाय बदहाली में तड़प-तड़प कर मारी गईं.

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सच तो ये है कि जब आप ये सब पढ़ रहे होंगे तब भी किसी गौशाला में गायों का हुजूम कहीं चारे की कमी, कहीं बीमारी तो कहीं शासन-प्रशासन की लापरवाही से शरीर त्याग रही होंगी.

आजतक समेत कई न्यूज चैनलों में काम कर चुके और इन दिनों टीवी9 भारतवर्ष की डिजिटल टीम से जुड़े पत्रकार नितिन ठाकुर की एफबी वॉल से.

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