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उत्तर प्रदेश

मुसलमानों को लुभाने के लिए माया की पैंतरेबाजी

अजय कुमार, लखनऊ

सियासी दुनिया में रिश्ते मतलब के लिए बनाए-बिगाड़े जाते हैं। यहां न तो कोई किसी का भाई होता है,न बुआ-भतीजा। अगर ऐस न होता तो बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमों मायावती की राजनैतिक तेजी समाजवादी नेताओं की धड़कनें नहीं बढ़ा रही होती। ‘बुआ’ मायावती जिस तरह से ‘भतीजे’ (अखिलेश) के प्रति सख्त तेवर अपनाएं हुए हैं, उससे तो यही लगता है कि मायावती, मुसमलानों के मन में अखिलेश को लेकर भ्रम पैदा करने की ‘साजिश’ रच नहीं हैं। मायावती ने अखिलेश पर जो गंभीर आरोप लगाया हैं, उस पर विश्वास किया जाए तो यही लगता है कि अखिलेश नहीं चाहते थे कि बसपा मुसलमानों को ज्यादा टिकट दें क्योंकि इससे हिन्दू वोटों का धु्रवीकरण हो सकता था। मायावती के आरोपों में कितना दम है यह बात तब साफ होगी,जब अखिलेश यादव अपनी प्रतिक्रिया देंगे, लेकिन माया ने संदेह का बीज तो बो ही दिया है। मायावती का यह पैतरा कितना कामयाब रहेगा, यह तो समय ही बताएगा,परंतु मुसलमानों को लुभाने के लिए वह लम्बे समय से साम-दाम-दंड-भेद का सहारा लेती रहीं हैं। वह कभी नमाज के नाम पर मुसलमानों को भड़काती और लुभाती हैं तो कभी कहती हैं बीजेपी को हराने के लिए मुस्लिम वोट बंटने न पाए।

उधर, राजनीति के जानकार अपने-अपने हिसाब से बसपा सुप्रीमो के उक्त वक्तव्य का निचोड़ निकालने में लगे हैं। कोई बहनजी के बयान के सहारे अखिलेश को कठघरे में खड़ा कर रहा है तो कोई इसे मायावती की सियासी चाल बता रहा है। जिनको मायावती की बातों पर भरोसा है वह कह रहे हैं कि अखिलेश यादव 2014 और 2017 को भूल नहीं पाए हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में मुस्लिम तुष्टिकरण की सियासत करने वालों पर हमलावर होते हुए भाजपा के प्रचार अभियान की अगुवाई कर रहे नरेंद्र मोदी खुलकर कहा करते थे कि हमें चुनाव में हार मंजूर है, लेकिन तुष्टिकरण की राजनीति नहीं करूंगा। इस पर बीजेपी विरोधी दलों ने जिसमें अखिलेश भी शामिल थे,मोदी के खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया दी। इससे हिन्दू वोटर संगठित हुआ,नतीजा यूपी से एक भी मुस्लिम सांसद नहीं चुना गया। इसी प्रकार 2017 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश के नारे ‘काम बोलता है’ पर भाजपा का रमजान में बिजली मिलेगी तो दीपावली पर भी, कब्रिस्तान और श्मशान के मुद्दे भारी पड़े थे। ऐसे में अखिलेश का वोटों के धु्रवीकरण से भयभीत होना लाजमी है।

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बहरहाल, मायावती स्वयं को मुस्लिमों का जितना भी बढ़ा हितैषी सिद्ध करने की कोशिश कर रही हैं,लेकिन आंकड़े कुछ और कहते हैं।. मायावती सोशल इंजीनियरिंग की माहिर मानी जाती हैं। वह पहले भी कई बार मुसलमानों को लुभाकर दलित-मुस्लिम समीकरण बनाने की कोशिश करती रह चुकी हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा और रालोद गठबंधन 78 सीटों पर चुनाव लड़ा था,जिसमें से 10 मुस्लिम उम्मीदवार थे। इन दस में बसपा से छह और सपा से चार मुस्लिम चेहरे चुनावी जंग में ताल ठोक रहे थे। दोनों ही दलों के तीन-तीन उम्मीदवार चुनाव जीत कर संसद पहुंचने में सफल रहे।

2019 के आम चुनाव में पहली बार ऐसा नहीं हुआ था,जब बसपा ने सपा से अधिक मुसलमानों को टिकट दिया था। बसपा ने 2014 में 19, 2009 में 14 और 2004 में 20 मुस्लिमों पर दांव लगाया था, जबकि सपा ने क्रमशः 14, 11 और 12 मुसलमानों को ही टिकट दिया था। मायावती की अखिलेश के साथ दोस्ती करने के पीछे सबसे बड़ी वजह मुस्लिम वोटर ही थे,जिनपर सपा की मजबूत पकड़ समझी जाती थी। अतीत गवाह है कि राज्य का मुस्लिम मतदाता हमेशा से बसपा से ज्यादा सपा को तवज्जो देता चला आ रहा है,लेकिन मायवाती ने कभी हार नहीं मानी।

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सपा के मुस्लिम वोट बैंक में सेंधमारी करके मायावती ने मुस्लिमों को अपने पाले में लाने के लिए कई तरह का प्रयोग किया। इसके बाद भी मुस्लिम मतदाता बसपा की तुलना में सपा को ही ज्यादा अहमियत देते रहे। मुस्लिम वोटरों के चक्कर में जब सपा-बसपा के बीच गठबंधन के बाद सीटों का बंटवारा हुता तो बसपा सुप्रीमों मायावती ने सीट बटवारें में उन सीटों को लिया जो मुस्लिम और दलित समीकरण से जीती जा सकती थीं। 38 सीटें में 24 सीटें ऐसी थीं, जिन पर दलित मुस्लिम और बसपा कैडर का पूर्व चुनावों में प्रभाव देखा गया था। इसका फायदा भी मायावती को मिला और 38 सीटों में 10 सीटें जीतने में सफल रहीं,फिर भी यह उम्मीद से काफी कम थीं।

लब्बोलुआब यह है कि लोकसभा चुनाव में गठबंधन की दुर्दशा के बाद एक तरफ मायावती ने गठबंधन की सियासत से तौबा करके अपने बल पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है तो दूसरी तरफ वह समाजवादी पार्टी से चुन-चुन कर अपना पुराना हिसाब बराबर करती जा रही हैं। पहले मायावती ने कहा था कि सपा के वोट बसपा को ट्रांसर्फर नहीं हुए। अब मुस्लिमों को टिकट न देने का आरोप अखिलेश के सिर मढ़कर नए विवाद को जन्म दे दिया है। माया ने अपने मुंहबोले भतीजे की सियासी परिपक्तता पर भी सवाल खड़े कर दिए है। बहनजी, जिस तरह से अखिलेश यादव की घेराबंदी कर रही हैं उससे तो यही लगता है कि वह किसी भी तरह से मुसलमानों के मन में सपा के प्रति अविश्वास पैदा करना चाहती हैं। अगर एक बार ऐसा हो गया तो मुसलमान वोटरों के पास बसपा से जुड़ने का एकमात्र विकल्प रह जाएगा। मायावती की मजबूरी यह है कि मुसलमानों का अभी भी समाजवादी पार्टी से मोह भंग नहीं हुए है। आम चुनाव मंे एक तरफ समाजवादी पार्टी के पांच प्रत्याशी चुनाव जीते, इसमें से तीन मुस्लिम सांसद हैं, जबकि बसपा के दस प्रत्याशी चुनाव जीते, लेकिन मुस्लिम प्रत्याशी उसके भी सिर्फ तीन ही जीत पाए। इस हिसाब से मुस्लिमों का सपा के प्रति विश्वास कायम है। मुसलामनों के बीच उसकी स्थिति बसपा से कहीं बेहतर है,जबकि मायावती की पूरी कोशिश दलित-मुस्लिम गठजोड़ के सहारे सत्ता की सीढ़िया चढ़ने की है।वैसे, भी यह मायावती का बहुत पुरान सपना रहा है।

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लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार का विश्लेषण.

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