प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के तानाशाह बने नदीम को हटाने के लिए पत्रकारों ने की बड़ी लामबंदी

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देश में पत्रकारों की सबसे बड़ी संस्था प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया का चुनाव 30 मई को है। इस बार का चुनाव हर साल क्लब की प्रबंध समिति के लिए होने वाले चुनाव से थोड़ा हटकर है। चार साल पहले क्लब में आर्थिक गड़बड़ियों के कारण पुष्पेन्द्र और परवेज अहमद को हटाने के लिए जिस तरह बड़ी तादाद में पत्रकार एकजुट हुए और पुष्पेन्द्र एंड कंपनी का हराकर संदीप दीक्षित व रामचंद्रन के पैनल को भारी जीत दिलाई गई, ठीक उसी तरह इस बार नदीम अहमद काजमी और राहुल जलाली पैनल को हराने के लिए पत्रकार एकजुट हो गए हैं।

बिल्डर कनेक्शन? : प्रेस क्लब में बुलाकर प्रेस क्लब की तरफ से एक विवादास्पद बिल्डर तरुण शीन (दाएं) को एवार्ड देते नदीम अहमद काजमी (बाएं).

पुष्पेन्द्र को हराने वाले संदीप दीक्षित के समर्थन वाली टीम लगातार चौथी बार फिर चुनाव मैदान में है। इस साल इस टीम में नदीम और राहुल जलाली के खिलाफ न सिर्फ बगावत का माहौल बन गया है अपितु क्लब के कायदे-कानून से खिलवाड़ करने, नए मेम्बर बनाने में धांधली और आर्थिक अनियमितता बरतने जैसे गंभीर आरोप लगाए जा रहे हैं। दरअसल पिछले साल महासचिव का चुनाव जीते नदीम अहमद काजमी जो इस बार फिर इसी पद के लिए चुनाव मैदान में हैं, के खिलाफ कुछ महीना पहले उसी वक्त से विरोध का माहौल बन गया था जब पिछली बार अध्यक्ष पद पर जीते आनंद सहाय ने प्रबंध समिति के क्रियाकलापों के कारण समय सीमा से पहले ही इस्तीफा दे दिया था। इतना ही नहीं उन्होंने इसके बाद से खुद को क्लब की सक्रिय राजनीति से भी अलग कर लिया। जिस पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ को हटाते समय उन पर क्लब में आर्थिक गड़बड़ियों के आरोप लगाए गए थे और उन्हें तानाशाह बताया गया था, नदीम के साथ अब तक जुडे़ रहे लोगों ने ही आरोप लगाने शुरू कर दिए कि नदीम अहमद काजमी ठीक उसी शैली में काम करने लगे हैं जैसे पुष्पेन्द्र करते थे।

इसका परिणाम ये हुआ कि न सिर्फ आनंद सहाय ने कमेटी से नाता तोड़ लिया वरन पुष्पेन्द्र को हराने के लिए हिन्दी-अंग्रेजी के पत्रकारों का जो एक बड़ा गुट तैयार हुआ था वो गुट पूरी तरह अब इस चुनाव में नदीम के पैनल से दूर दिख रहा है। इसी गुट से जुड़कर पिछले तीन सालों में क्लब की प्रबंध कमेटी में रहे कई वरिष्ठ सदस्य भी तटस्थ भूमिका में दिख रहे हैं। दरअसल, इस बार नदीम के साथ प्रेसीडेंट के लिए चुनाव लड़ रहे राहुल जलाली के चयन पर भी अधिकांश लोगों को ऐतराज था। क्लब की कमेटी को चलाने वाले वरिष्ठ सदस्यों के एक गुट को ये भी ऐतराज था कि नदीम अहमद काजमी जो पिछले कई सालों से क्लब कमेटी में विभिन्न पदों पर रह चुके है, उनको इस बार चुनाव नहीं लड़कर दूसरे साथियों को आगे करना चाहिए। लेकिन अपनी दादागिरी और सदस्यों से बदसलूकी में पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ की तरह माहिर नदीम अहमद काजमी का तर्क था कि क्लब संविधान के मुताबिक वे महासचिव पद पर दो बार चुनाव लड़ सकते हैं। हांलाकि उनके तर्क से तो सहमत हुआ जा सकता है लेकिन अब तक कोषाध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव और कई बार कार्यकारिणी सदस्य रह चुके नदीम अहमद काजमी इस सवाल का जवाब देने को कतई तैयार नहीं हैं कि बिना किसी लाभ वाले क्लब कार्यकारिणी के पदों पर वे आखिर क्यूं बने रहना चाहते हैं। आखिर उन्हें फिर से इस पद पर काबिज होने की क्या जरूरत है।

दरअसल एक नहीं कई ऐसे कारण बताए जा रहे हैं जिसके कारण न सिर्फ निवर्तमान कमेटी के अधिकांश सर्मथकों ने खुद को तटस्थ कर लिया वरन नदीम गुट पर घपले घोटालों और अनियमितता बरतने के आरोप भी लगने लगे। इस चुनाव में सबसे बड़ा आरोप तो नदीम गुट पर यही है कि उन्हें एक साल पहले कंपनी एक्ट में हुए बदलाव की जानकारी हो चुकी थी लेकिन उसके बावजूद कोई उपाय नहीं किया गया। नए बदलाव के मुताबिक कंपनी एक्ट के तहत बने क्लब व दूसरी संस्थाओं में प्रबंध समिति का चुनाव लड़ने वाले हर पदाधिकारी को बतौर जमानत राशि एक लाख रुपए जमा कराने का प्रावधान किया गया है। निर्वतमान कमेटी ने इस जानकारी को सार्वजनिक तो किया ही नही अपितु वित्तमंत्री अथवा कंपनी मंत्रालय पर दबाव बनाकर क्लब को अलाभकारी संस्था बताकर नए नियम से छूट लेने का कोई प्रयास भी नहीं किया। बड़े-बडे़ पत्रकारों के समूह वाले प्रेस क्लब के तमाम सदस्यों से इस काम में सहयोग की अपील की जाती तो ये कोई मुश्किल काम नहीं था।

निवर्तमान कमेटी के कुछ सदस्यों के दबाव में प्रशांत टंडन के नेतृत्व में एक कमेटी जरूर बनाई गई थी कि किस तरह इस नए नियम को बदलने के उपाय किए जाएं। लेकिन प्रशांत टंडन ने जो सुझाव दिए उन्हें माना ही नहीं गया। बाद में चुनाव प्रक्रिया से ठीक पहले टंडन ने इसी नाराजगी में नदीम के साथ चुनाव लड़ने से मना कर दिया। टंडन ने जो रिपोर्ट दी उसमें ये भी था कि इस नियम में बदलाव कराने के लिए प्रेस क्लब की कार्यकारिणी की तरफ से कोई प्रयास ही नहीं किया गया। अलबत्ता कुछ दिन पहले ही कंपनी मंत्रालय और वित्र मंत्रालय को दो ईमेल भेजने की रस्म अदायगी जरूर की गई जिसका सरकारी जवाब भी वैसा ही मिलना था जैसा प्रयास किया गया।

दरअसल निर्वतमान कमेटी ने ये सारा खेल इस लिए खेला था कि नए नियम में ये प्रावधान है कि निर्वतमान कमेटी के सदस्य अगर पुनः चुनाव लड़ते है तो उन्हें एक लाख की जमानत राशि जमा नहीं करानी होगी। नदीम अहमद काजमी चाहते थे कि इस नियम के मुताबिक विपक्ष में एक लाख रुपए की जमानत राशि जमा करवाकर कोई पैनल चुनाव में खड़ा नहीं होगा और वे एक बार फिर क्लब पर कब्जा जमा लेंगे। लेकिन जब चुनाव प्रक्रिया शुरू हुई तो नदीम को अपने फैसले पर पछतावा हुआ, क्योंकि क्लब के सदस्यों ने इस बात पर भारी विरोध जताया क्योंकि कानूनन ये निर्वतमान कमेटी जमानत राशि से छूट पाने की हकदार तभी हो सकती है जब पूर्व में उसने कोई जमानत धनराशि जमा की हो। भारी विरोध के कारण नदीम गुट की मंशा पूरी नहीं हुई और पूरे पैनल को जमानत राशि जमा करानी पड़ी। लेकिन अब इस पर भी अपनी पीठ थपथपाने का काम किया जा रहा है।

एक लाख रुपए की जमानत राशि जमा कराने को लेकर प्रेस क्लब में चुनाव से पहले खूब हल्ला मच रहा है। जितने मुंह उतनी बातें। कोई कह रहा है कि एक बिल्डर ने सभी पदाधिकारियों की जमानत राशि भरने का इंतजाम किया है। कुछ लोग कह रहे हैं कि क्लब में अलग-अलग तरह के सामान सप्लाई करने वाली कंपनियों और ठेकेदारों ने अपने-अपने चहेते सदस्यों की जमानत राशि का इंतजाम किया। क्लब में ये मांग भी उठ रही है कि नदीम पैनल से चुनाव लड़ने वाले कई लोगों के बैंक खातों की आयकर जांच करायी जाए क्योंकि कई महीने से बेरोजगार तथा लोगों से निजी जरूरतों के लिए उधार मांगने वालों ने एक लाख रुपया कहां से लाकर जमा कराया। क्लब में सवाल उठ रहे हैं कि कहीं नदीम गुट को मदद करने के लिए बिल्डर लाबी एक्टिव तो नहीं है! 

इस आरोप को इसलिए भी बल मिला है कि परिमा ग्रुप के सीएमडी तरुण शीन को प्रेस क्लब के बैशाखी फंक्शन में नदीम अहमद काजमी ने मंच पर बुलाकर स्टेट गुरु का अवार्ड देकर सम्मानित किया था। कई राज्यों में निवेशकों से धोखाधड़ी के मुकदमों में आरोपी तरूण शीन को किस अधिकार से ऐसा सम्मान दिया गया। प्रेस क्लब से मिले इस सम्मान का उल्लेख अब तरूण अपने बडे़-बड़े विज्ञापनों में अपनी ब्रांडिग के लिए कर रहा है। ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि तरुण शीन को ये सम्मान कितने में बेचा गया? उसका हिस्सा कमेटी के किन-किन सदस्यों की जेब तक पहुंचा? तरुण शीन की क्लब कमेटी से डील कराने वाली शख्शियत कौन है? निवर्तमान कमेटी से चुनाव लड़ने रहे अधिकांश लोगों द्वारा बतौर जमानत राशि जमा कराई गई एक लाख की रकम पर उठ रहे सवालों का संबंध कहीं इसी डील से तो नहीं। नदीम के पैनल में इस बार भी बड़े पद पर चुनाव लड़ रही एक महिला सदस्य जो पहले पिछले दो सालों से कमेटी में हैं, इस मुद्दे पर क्लब के सदस्यों को जिस तरह अपनी सफाई दे रही हैं, उसने भी कई सवाल खड़े कर दिए हैं।

सवाल सिर्फ बिल्डर को सम्मानित करने, एक लाख रूपए कहां से जमा कराए गए, इसी का नहीं है। अधिकांश सदस्यों में ये भी नाराजगी है कि इसी साल पत्रकार श्रेणी से क्लब के करीब 400 नए सदस्य बनाए गए। मार्च महीने में बनाए गए इन सदस्यों में से 150 सदस्यों की पहली सूची तो नोटिस बोर्ड पर चस्पा की गई लेकिन करीब 250 मेम्बरों के फार्म की न तो स्क्रूटनी की गई न कमेटी से मान्यता ली गई। इनमें ऐसे लोगों की लंबी सूची है जो पत्रकार श्रेणी में सदस्य बनने के पात्र ही नहीं थे। या जो इस श्रेणी के पात्र थे उन्हें पिछले कई सालों की तरह इस बार भी सदस्यता नहीं दी गई। ऐसे ही सदस्यों में राज्यसभा टीवी के सीईओ गुरदीप सप्पल की सदस्यता पर भी सवाल उठ रहे हैं। पहला सवाल तो यही है कि सप्पल इस श्रेणी में आते ही नहीं हैं क्योंकि वे पत्रकार हैं ही नहीं और उन्होंने पत्रकार होने का दावा करने के लिए जो दस्तावेज लगाए उसके मुताबिक वे सिर्फ एसोसिएट श्रेणी के सदस्य बन सकते हैं।

राज्यसभा टीवी में बतौर रिर्सचर दिलीप खान भी पात्र न होने के बावजूद पत्रकार श्रेणी की सदस्यता लेने में सफल रहे। ये मात्र उदाहरण हैं। नियमों को दरकिनार कर पत्रकार श्रेणी में क्लब की सदस्यता दिए जाने वाले पत्रकारों की लंबी फेहरिस्त है। सवाल ये नहीं कि ऐसे लोगों को सदस्यता क्यों दी गई। सवाल ये है कि ऐसे प़त्रकार जो वर्षों से श्रमजीवी पत्रकारिता कर रहे हैं और क्लब की सदस्यता लेने के पात्र हैं उन्हें सिर्फ इसलिए सदस्यता नहीं दी जा रही कि वे चुनाव के वक्त अपने विवेक से अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकते हैं। लेकिन तमाम विरोध और आरोपों के बावजूद नदीम पैनल 400 नए सदस्यों के वोट हर हाल में मिलने के बूते चुनाव में अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है। अब ये तो चुनाव परिणाम ही बताएंगे कि ये नए सदस्य नदीम पैनल को वोट देकर क्लब की सदस्यता दिए जाने का कर्ज चुकाएंगे या अपने विवेक का इस्तेमाल कर पत्रकारिय चरित्र को पेश करेंगे।

क्लब में नए सदस्य बनाने में तो चुनाव जीतने की रणनीति के तहत जो गड़बड़झाला हुआ वो हुआ ही है। सबसे बड़ा स्कैंडल तो नदीम कमेटी द्वारा शुरू की गई क्लब की मैग्जीन में है। क्लब द्वारा प्रकाशित की जाने वाली पुस्तिका का कार्यकारी संपादक क्लब के ही एक सदस्य और कई सालों से लगातार कार्यकारिणी में रहे दिनेश तिवारी को बनाया गया है। त्रैमासिक रूप से निकलने वाले इस पत्रिका के लिए उन्हें 35 हजार रुपए का पारिश्रमिक और 10 हजार डिजाइनिंग खर्चा किसकी अनुमति से दिया जा रहा है। नियमतः किसी भी क्लब सदस्य को क्लब के कार्य में योगदान के लिए पारिश्रमिक दिया जाना आर्थिक अनियमितता है। तो क्या ये माना जाए कि अपने चहेतों का निजी लाभ देने के लिए नदीम अहमद काजमी भी पुष्पेन्द्र की तरह क्लब की नीतियों से खिलवाड़ कर रहे हैं। नियमों में ऐसा प्रावधान करने के लिए नियमतः एजीएम की अनुमति लेनी होती है और क्लब के नियमों में संशोधन करना पड़ता है लेकिन सवाल है ऐसा क्यूं नहीं किया गया।

क्लब का बड़ा मुद्दा है क्लब की नई इमारत बनाने का। पिछले 15 साल से ठीक चुनाव के वक्त क्लब की नई बिल्डिंग बनाने का झांसा सदस्यों को दिया जाता है और नई बिल्डिंग का एक ले आउट प्लान पेश किया जाता है लेकिन पिछली सभी कमेटी के ये वादे मुंगेरी लाल के हसीन सपने साबित हुए है। नदीम-राहुल पैनल फिर इसी मुद्दे को ऐसे पेश कर रहा है मानों कल-परसों में क्लब की नई बिल्डिंग बनाकर पेश कर देंगे।

कितनी हास्यापद बात है कि एक तरफ तो क्लब को जल्द से जल्द नई बिल्डि़ग में पहुंचाने के दावे चुनाव में किए जा रहे हैं। दूसरी तरफ क्लब की आर्थिक हालत ये है कि क्लब के सदस्यों से लंबे समय से चंदा लिया जा रहा है जिसकी सूची नोटिस बोर्ड पर चस्पा है। क्लब को अगर दूसरी बिल्डिंग में शिफ्ट करने की ईमानदार मंशा है तो फिर पिछले एक साल में क्लब में 20 लाख रुपए नए निर्माण कार्यों पर क्यों खर्च कर दिए गए जिसकी कोई आवश्यकता ही नहीं थी। सवाल उठ रहे हैं कि कहीं ये निर्माण कार्य किसी को लाभ पहुंचाने के लिए तो नहीं किए गए।

नदीम अहमद काजमी की टीम ने पिछले साल नई दिल्ली से कांग्रेस सांसद अजय माकन के सासंद निधि कोष से 40 लाख रुपए की धनराशि खर्च करके एक जिम शुरू कराया था। लेकिन इसकी सेवा के लिए क्लब के सदस्यों से भारी भरकम फीस वसूलने के कारण मात्र दो लोग ही इस जिम का लाभ ले रहे हैं। अब ये भी सवाल उठ रहे हैं कि क्या इस जिम के उपकरणों को लगाने वाली कंपनी से कोई कमीशन लिया गया था। देश की जनता के खून पसीने की कमाई और टैक्स से सांसदों को मिलने वाली सांसद निधि को आखिर किस रणनीति के तहत जिम बनाने जैसे काम में कमेटी ने खर्च करवाया। सासंद निधि कोष का पत्रकारों की किसी संस्था द्वारा ऐसा दुरूपयोग कराने का ये अनोखा मामला है।

नदीम पैनल के खिलाफ आक्रोश के कई कारण हैं। मसलन निजी रंजिश के कारण किसी भी सदस्य को क्लब से निष्कासित कर दिया जाता है तो कई दफा क्लब में अनुशासनहीनता करने वाले सदस्यों के खिलाफ शिकायत करने के बावजूद भी कोई कार्रवाई नहीं की जाती क्योंकि उन पर क्लब की कमेटी का वरदहस्त होता है। क्लब में खाने-पीने की वस्तुओं के बढे़ हुए दाम दूसरे क्लबों की अपेक्षा बहुत अधिक होने से भी क्लब के मेम्बर नाराज हैं। क्लब में कुछ कर्मचारियों को मिली खुली छूट और घटिया सर्विस के कारण सदस्य बेहद खफा हैं।

क्लब में पैनल के खिलाफ बन रहे आक्रोश भरे माहौल को देखकर सत्ताधारी पैनल ने क्लब में पुष्पेन्द्र के सर्मथकों की फिर से घुसपैठ की आंशका का नया शिगूफा छोड़ा है। नदीम पैनल कभी अपने खिलाफ लड़ रहे पैनल को संघ का पैनल बताकर वामपंथी वोटों का काटने की कोशिश कर रहा है। लेकिन क्लब के सदस्य बखूबी जानते हैं कि गौतम लाहिडी और प्रदीप श्रीवास्तव वाले विरोधी पैनल का किसी राजनीतिक दल या पुष्पेन्द्र गुट से कोई संबध नहीं रहा है। देखना है कि चार साल बाद फिर से क्लब के किसी तानाशाह को हटाने के लिए लामबंद हुए पत्रकार अपने प्रयास में सफल होंगे या एक और साल इसी पैनल की दादागिरी का आनंद लेंगे।

प्रेस क्लब आफ इंडिया के एक सदस्य द्वारा भेजे गए मेल पर आधारित.


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Comments on “प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के तानाशाह बने नदीम को हटाने के लिए पत्रकारों ने की बड़ी लामबंदी

  • गुरदीप सप्पल के मामले में तो सारी हदें पार कर दी गयी. सप्पल की सदस्यता को लेकर पहले भी बवाल हुआ और इस बारे में लोगों ने लिखित विरोध भी दर्ज किया गाय. इसके बाद इस यह मामला मैनेजिंग कमेटी के पास जाना चाहिए था. मैनेजिंग कमेटी की बैठक २४ मार्च २०१५ को होना तय थी लेकिन नदीम ने उसके पहले ही मैनेजिंग कमेटी को धता बताते हुए २० मार्च को सप्पल को पैसे कह दिया और उसे सदस्य्ता दे दी. यह पूरी गैरकानूनी काम है.
    ऐसे में अब यह सवाल भी उठता है की जब इतने महत्वपूर्ण काम में भी नदीम तानाशाही से काम लेता है तो अन्य छोटे बड़े आर्थिक और प्रशासनिक कामों में भी यही रवैया है और आगे भी रहेगा। ऐसे में एक साफ़ सुथरा प्रशासन देने की उम्मीद तो नदीम से की नहीं जा सकती

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