सुशांत झा-
मेरे घर में लोग न्यूज चैनल नहीं देखते। बहुत सारे घरों में नहीं देखते होंगे। होता होगा कभी ओपिनियन मेकर, लेकिन अब तो उससे बड़ा ओपिनियन मेकर ट्विटर है। फेसबुक है। यूट्यूब है। मोबाइल है।
मोबाइल ने टीवी, घड़ी, टैक्सी स्टैंड, एटीएम, बैंक ब्रांच, टहलने-घूमने की आदत सबको लील लिया है। लीलना खराब लगे तो कहिए कि लोग उससे सहूलियत पा रहे हैं। या शायद डिस्ट्रैक्ट भी हो रहे हैं।
ऐसे में किसी चैनल के बिकने या न बिकने से क्या फर्क पड़ता है?
कई चैनल तो बिना बिके ही बंद हो गए और लोग बेरोजगार हो गए।
मुझे उस समय बहुत दुख हुआ था जब एनडीटीवी में काम करने का मौका नहीं मिला। वो बात पुरानी हो गई। उसका कुछ नहीं किया जा सकता।
जीवन नश्वर है। कल को कोई और आएगा। किसी और का जलवा होगा।
दुनिया ऐसे ही चलती है। निष्पक्षता वगैरह सबजेक्टिव बातें हैं।
दुख इसी का होना चाहिए कि कुछ लोगों की नौकरी जाएगी या वे स्वयं ही छोड़ देंगे। बाकी सब रूटीन है।