दिनेश श्रीनेत-
निर्मल वर्मा की जयंती पर एक बार फिर मन में यह सवाल उठ रहा है कि हिंदी समाज अपने लेखकों को किस तरह देखता है? दयानंद पांडेय ने राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित निर्मल वर्मा का एक इंटरव्यू साझा किया है, जिसके सवालों को देखकर आश्चर्य होता है.
दार्शनिक रामचंद्र गांधी जब निर्मल की सिर्फ एक (हां, सिर्फ एक) कहानी ‘कव्वे और काला पानी’ पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत करते हैं तो वैन गॉग की पेंटिंग ‘क्रोज़ ओवर द कॉर्न फील्ड’ को याद करते हुए बात को बहुत बड़े फ़लक तक ले जाते हैं, जहां गांधी भी हैं, महर्षि रमण भी और आधुनिक सभ्यता का विमर्श भी.
उस लेखक से ‘सहारा’ के साक्षात्कार में जो सवाल पूछे जाते हैं और निर्मल जिस असाधारण धैर्य के साथ उसका सामना करते हैं, वह भी दुर्लभ ही है. एक नज़र-
गगन गिल से आपने शादी की. वह उम्र में आप से बहुत छोटी हैं. लगभग आधी. एज गैप नहीं महसूस होता?
-होता है कभी. कभी नहीं होता है. पर व्यक्तिगत बात आप क्यों कर रहे हैं? मेरी रचना के बारे में बात करिए.
गगन गिल पहले बहुत अच्छी कविताएं लिखा करती थीं. अब उनकी कविताएं दिखती नहीं?
-कुछ और बात कीजिए. व्यक्तिगत बातें नहीं.
आप के बहुतेरे समकालीन टीवी, फ़िल्मों की ओर भागे हैं. आप नहीं गए?
-अपने को उसके उपयुक्त नहीं मानता.
इस साक्षात्कार को अपनी बात कहने के लिए सिर्फ एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ, इस पर इससे अधिक चर्चा व्यर्थ है.
यही स्थिति उनकी जयंती पर दिल्ली में आयोजित एक पुस्तक विमोचन समारोह में रही, जब गगन गिल मंच पर कुछ विवश सी, कुछ झुंझलाई सी यह समझाने का प्रयास कर रही थीं कि निर्मल के राजनीतिक रुझान का स्पष्टीकरण उनसे क्यों ही मांगा जाए?
वे निर्मल के युवावस्था से लेकर प्राग के दिनों और भारत लौटते तक की वैचारिक यात्रा (जो उनकी रचनाओं में मौजूद है) का हवाला देते हुए यह कहना चाह रही थीं कि क्या किसी लेखक को इतने सरल तरीके समझा जा सकता है कि वह किस पाले में खड़ा है?
अमूमन ऐसे सवाल पूछने से पहले कोई यह जहमत नहीं उठाता कि वह निर्मल के दो-चार निबंध ही पढ़ ले जिसमें लेखक की राजनीतिक प्रतिबद्धता पर उन्होंने बहुत साफ तौर पर बात रखी है. कम से कम उस संदर्भ के साथ बात की जाती तो बेहतर था.
इससे बहुत बेहतर योगेंद्र यादव का वह सवाल था जिसमें वो निर्मल के कथेतर लेखन को बाद में लिखी गई आसिष नंदी की एक किताब के बरअक्स रखते हुए यह जानना चाहते हैं कि क्या हिंदी में कोई सुनियोजित रूप से उनकी वैचारिकी पर काम कर रहा है?
जो निर्मल को समझ नहीं पाते वो उनकी भाषा की सुंदरता पर ही अटक जाते हैं. “अरे, निर्मल जी की भाषा कितनी सुंदर और भाव कितने कोमल होते थे…” यह वैसी ही सतही बात है जैसे कोई कहे, “रजा साहब के चित्रों में लाल-लाल रंग होते हैं…” या फिर “हुसैन की पेटिंग में घोड़े दिखते हैं, क्या वे घुड़दौड़ में पैसा लगाते थे?”
किसी को अगर निर्मल के पात्र आकर्षित करते हैं मगर वे उन किरदारों की आंतरिक बेचैनी तक नहीं पहुँच पाते हैं तो यह उनके ‘पाठ’ की समस्या है. मनुष्य के अंतर्मन को मथकर रख देने वाले दोस्तोएवस्की के उपन्यास ‘क्राइम एंड पनिश्मेंट’ को यूरोप-अमेरिका की दुनिया बरसों तक क्राइम फिक्शन की कैटेगरी में रखती रही. इसलिए कि उसमें नायक एक हत्या कर देता है? मगर हत्या तो पहले 100 पेज में हो जाती है, बाकी 400 पेज में क्या है?
कुपाठ पर को मानक बनाकर बात करने वाले न तो साहित्य में कुछ नया जोड़ रहे हैं और न ही पाठक को कोई दिशा दे रहे. पिछले दिनों मैंने सुना कि एक ओटीटी प्लेटफॉर्म की एमबीए प्रबंधक के पास एक लेखक वेब सिरीज़ का कांसेप्ट लेकर गया और बताया कि यह मुंशी प्रेमचंद की कहानियों पर आधारित है, तो उसने कहा फिर तो उनसे भी एक एग्रीमेंट पर साइन करा लो, नहीं तो रायल्टी और कॉपीराइट का बड़ा झंझट रहता है.
हँसें या रोएँ… हिंदी साहित्य के मंचाधीशों (मठ तो रहे नहीं) का भी कुछ ऐसा ही हाल है!
माणिका मोहिनी-
हाल ही में एक ईपत्रिका को दिए साक्षात्कार में कवि और चिंतक गगन गिल ने पहली बार अपने और अपने हमसफ़र श्री निर्मल वर्मा (जो अब इस दुनिया में नहीं हैं) के संबंधों के बारे कुछ कहा है जो किसी की साहित्य-पाठक के लिए जिज्ञासा का विषय हो सकता है। गगन निर्मल जी से पहली बार जब मिली, उस समय गगन की आयु 20 वर्ष की थी और निर्मल जी 50 वर्षीय युवा थे जो लगभग पूरी दुनिया देख चुके थे। यह बात मैं गगन के साथ बीते मेरे समय के अनुभव के आधार पर कह सकती हूं कि गगन ने निर्मल जी से सच्चे वाला प्रेम किया। उसने उनके परलोक गमन के बीस साल बाद अपने हृदय को खोला है, जगजाहिर किया है, जिसे मैं गगन के ही शब्दों में यहां कुछ किश्तों में कॉपी-पेस्ट करूंगी। अगले शब्द गगन के…
कभी निर्मल भी चौबीस-पच्चीस बरस के युवक रहे होंगे, मैंने रुक कर सोचा नहीं.
जुलाई 1979 में जब मेरी उनसे दिल्ली यूनिवर्सिटी में पहली मुलाक़ात हुई, उस वक्त भी उनमें किशोरों वाली नर्वसनेस थी. बल्कि उनसे कनेक्ट करने का शायद पहला कारण ही यही था, कि वह हम छात्र लोगों जैसे ही घबराये हुए थे. शर्मीले और संकोची भी.
वह भाषण देने आये थे और बकौल उनके, उन्हें अभी सार्वजनिक भाषण देना नहीं आया था. किसी गोष्ठी में बोलने के नाम पर उनकी घिग्घी बंध जाती थी. अज्ञेय जी से एक बार उन्हें झिड़की मिल चुकी थी, “आप इतना घबराते हैं. बोलने से पहले लिख लिया करिए.”
अपने से दुगनी उम्र के व्यक्ति से प्रेम, फिर विवाह… क्या गगन में पिता-ग्रंथि थी?