Rajesh Mittal-
बॉस नहीं, यार थे वो… शायद 1990 की बात है। तब राजेंद्र माथुर नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक थे और एसपी यानी सुरेंद्र प्रताप सिंह कार्यकारी संपादक। एसपी चाहते थे आठ पन्नों के रविवारी परिशिष्ट ‘रविवार्ता’ को रविवार पत्रिका जैसा कलेवर दिया जाए। नई टीम बनाई गई। परवेज़ अहमद इसके मुखिया। नीरेंद्र नागर, संजय अभिज्ञान और मैं थे बाकी सदस्य। यह टीम 2-3 साल चली। हमने मिलकर कश्मीर, राम जन्मभूमि, आरक्षण पर केंद्रित कई यादगार अंक निकाले।
एक बार मशहूर व्यंग्यकार शरद जोशी हमारे दफ्तर आए तो परवेज़ जी ने बातों-बातों में एक यादगार कवर स्टोरी लिखवा दी। शरद जी ने बताया कि पटना रेलवे स्टेशन पर उनसे कुली ने पूछा थाः ‘आप इतना नरभस क्यों हो रहे हैं।’ परवेज़ जी ने शरद जी से कहा, आप इस पर लिखिए, वहां के अपने अनुभवों पर। इसका शीर्षक दियाः बिहार पहुंच कर नरभसा गए शरद जोशी।
बॉस कैसा होना चाहिए, इसी दौरान परवेज़ जी से सीखा। यार-यार कहकर बात करना। हंसी-ठहाकों के बीच घंटों काम करना-कराना। बीच-बीच में पार्टीबाजी भी। हम लोग साथ मिलकर टॉपिक तय करते, क्रिएटिव हेडिंग निकालते, लेआउट में भी नए-नए प्रयोग करते। एक बार तो तस्वीर उलटी छाप दी थी।
उनमें एक शरारती बच्चा हमेशा मौजूद रहता था। खूब मस्ती करते थे। निर्दोष-सी शरारतें उनकी होती थीं। लालची प्रवृत्ति वाले पत्रकारों को वे बेवकूफ बनाते थे। उन्हें गिफ्ट के लिए ललचाकर फाइव स्टार होटल के चक्कर लगवा देते थे। शरारती बच्चों के गैंग में जाने-माने कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग भी थे। परवेज़ जी के साथ के कई मजेदार किस्से हैं। एक बार उनके घर गया। मुझे लेकर वह अट्टा मार्केट के लिए निकले। सूफिया भाभी से बोले, ‘राजेश आए हैं, इनके पीने का इंतजाम करना होगा।’ मैं तो पीता नहीं था। तमाम पतियों की तरह वह भी पत्नी से डरते थे। मेरे बहाने अपने पीने का इंतज़ाम कर लेना चाहते थे।
मेरे कई दिमागी जाले साफ करने का काम परवेज़ जी ने किया। हमारे बीच मुसलमानों, धर्मनिरपेक्षता आदि मसलों पर घंटों बहस होती थी।
हाल के बरसों में मिल पाना काफी कम हो गया था। वार-त्योहार पर ज़रूर हाय-हेलो हो जाती थी। फोन उठाते ही कहते थेः जी। मैं मज़ाक में कहता था, जी करते-करते आप ज़ी (न्यूज़) में ही पहुंच गए।पिछले महीने दिवाली के आसपास उनसे फोन पर बात हुई थी।
एक बहुत ही उम्दा इंसान और खुशमिज़ाज यार-बॉस का आज अचानक चले जाना मन को उदास कर गया।