बिपेंद्र कुमार-
पटना वाला हिंदुस्तान आज 37 साल का हो गया। हमलोग अखबार की पहली टीम में थे। हिंदुस्तान शुरू हुआ था 4 सितंबर 1986 को। हमलोगों की बहाली और जॉइनिंग दो महीने पहले 6 जुलाई को हुई थी।मेरी अखबारी नौकरी का सबसे बड़ा हिस्सा (16 साल) इस अखबार के साथ गुजरा। इन सोलह सालों में कई तरह के उतार-चढ़ाव आये। उठापटक की नौबत भी कई बार आयी। इंटरव्यू के दिन से लेकर नौकरी के आखिरी दिनतक की रोचक कहानी रही।
अखबार शुरू होने के पहले दिन से सप्ताह के सातों दिन अलग-अलग विषय पर छपने वाले फीचर पेज के प्रभारी से लेकर जनरल डेस्क इंचार्ज के तौर पर काम करने का सुखद अनुभव जुड़ा रहा है इस अखबार के साथ। पहले स्थानीय संपादक हरिनारायण निगम ने संपादकीय गरिमा की जो नींव रखी थी वो कमोबेश मेरे जुड़ाव के समय तक बनी रही।
मुझे संतोष है की जिस तेवर के साथ मैंने जॉइन किया था उसी तेवर के साथ अखबार छोड़ा भी। इंटरव्यू में ही हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप के कार्यकारी निदेशक नरेश मोहन ने मेरी जाति पूछी तो मेरा जवाब था, ” सॉरी सर। जाति नहीं बता सकता क्योंकि मैं जाति मानता ही नहीं।” अंत मे उन्होंने हंसते हुए पूछा, ” मन लगाकर काम कीजिएगा न।” मैंने कहा, ” जिस दिन आपसब को लगे काम ठीक नहीं है बता दीजिएगा। उसी दिन चला जाऊंगा।” और हुआ भी ऐसा ही।
2002 में हिंदुस्तान टाइम्स में वीआरएस लाया गया। प्रगतिशील वामी साहित्यकार हमारे स्थानीय संपादक नवीन जोशी ने अपने कमरे में बुलाया और वीआरएस के फायदे बताने लगे। उन्होंने ज्योंही अपनी बात शुरू की मैंने कहा, ” वीआरएस वाला फॉर्म दीजिए। पहले दस्तखत कर दूं। नफा-नुकसान बाद में समझ लूंगा।”
सच कहूं तो हिंदुस्तान के साथ काम करने की यादें आज भी रोमांचित करती हैं। सोचने को मजबूर करती हैं वो भी क्या दिन थे।
Hemant Kumar- नरेश मोहन ने आपकी जाति पूछ ली। आपने बस इतना कहा, सॉरी सर! जाति नहीं बताउंगा! आपको कहना चाहिए था, आपकी नौकरी को लात मारता हूं! जिस संस्थान का निदेशक जाति पूछकर नौकरी देता है,उसकी नौकरी नहीं करनी मुझे! लेकिन आप यह नहीं कह पाये! क्योंकि उनने जब आपकी जाति पूछी तो बस आपका आदर्श आहत हुआ! आपके आत्मसम्मान पर कहीं कोई चोट नहीं लगी। आत्मसम्मान पर उसके चोट लगती है जिसने जाति का दंश झेला है या उसकी पीड़ा को नीचे उतरकर महसूस किया है। अपर कास्ट हिंदू जन को यह सुविधा प्राप्त है कि उसे जाति बताने और न बताने दोनों में नुकसान नहीं होता है। वह जाति न बताकर प्रगतिशील माना जा सकता है। और जाति बताकर घनघोर प्रगतिशील कहा जाता है।
लेकिन पिछड़ी और दलित बिरादरी का व्यक्ति जब अपनी जाति नहीं बताना चाहता है तब जातिवादियों की कौन कहे प्रगतिशील जमात भी कहता है, हीन भावना का शिकार है! कुंठाग्रस्त है! और जब जाति बताता है तो सामने वाला कहता है,…लग तो नहीं रहे हो! एक प्रसंग सुनाता हूं, एक सीनियर पत्रकार एक आइपीएस अफसर के यहां से खा-पीकर लौटे। दूसरे दिन प्रेस रूम में यों चर्चा चल निकली तो बोले, अरे यार ! कल रात में एस एस पी के घर पर सिलेक्टेड मित्रों का भोज था। लगा ही नहीं कि चमार के घर में खा रहा हूं। उन प्रगतिशील पत्रकार महोदय की बात पर बाकी पत्रकारों (जो ज़ाहिर तौर पर अपर कास्ट हिंदू थे) की प्रतिक्रिया थी, अरे यार उसका परिवार पहुंचा हुआ है उसके पिता एमपी हुआ करते थे! लेकिन मैं मन ही मन आहत हो रहा था। सोच रहा था ,यह पत्रकार जो देश की प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी का पढ़ा है। एक आइपीएस अफसर के घर से खा पीकर लौटा तो उसकी सारी दिलचस्पी उस आइपीएस अफसर की जाति में ही सिमट कर रह गयी! एक बात और नवीन जोशी के बारे में आपने लिखा है, प्रगतिशील वामी संपादक! लेकिन नरेश मोहन जी की तारीफ में कुछ नहीं कहा है। संघी/सोशलिस्ट/कांग्रेसी थे।