: ( गतांक के आगे ) : सुशील झालानी ने मुझे अरुणप्रभा के भरतपुर संस्करण का संपादक बना दिया पर अखबार निकालने का पहला पाठ सिखाया बलवंत तक्षक ने। बलवंत उस समय अलवर संस्करण के संपादक थे। एक दिन के लिए भरतपुर आकर उन्होंने मुझे अखबार निकालने की ए, बी, सी, डी सिखाई। इस तरह पत्रकारिता में बलवंत तक्षक मेरे पहले गुरु बने। अखबार शुरू होने के कुछ समय बाद ही लोकसभा के चुनावों की घोषणा हो गई।
कांग्रेस ने कुंवर नटवरसिंह को उम्मीदवार के रूप में उतारा और वहां के सांसद राजेश पायलट को दौसा भेज दिया। मेरे लिए वह सीखने का कौतूहल भरा समय था। एक नई तरह की दिनचर्या शुरू हो चुकी थी। सुबह आंख खुलते ही सबसे पहले अपना ही अखबार देखना, कि कहीं कोई गलती तो नहीं रह गई। उसके बाद चाय के साथ एक दर्जन अखबार पढ़कर यह ढूंढ़ना कि कौन-कौन सी खबरें छूट गईं हैं। फिर खबरों की तलाश में निकल पड़ना। पीआरओ, अस्पताल, कचहरी और थाने के चक्कर लगाते हुए प्रेस पहुंच कर खबरें लिखना, उनके प्रूफ पढ़ना और फिर पेज बनवाना।
तीन महीने बाद विधानसभा चुनाव आ गए और इन्ही चुनावों के दौरान मानसिंह हत्याकांड के कारण भरतपुर सुलग उठा। राजा के भाई और डीग के लोकप्रिय विधायक की हत्या से आक्रोशित भीड़ ने थाने में आग लगा दी और शहर में कर्फ्यू लगाना पड़ा। यह काफी सक्रियता का समय था और मुझे काम करने का मजा आ रहा था। प्रिंटिंग प्रेस के मालिक प्रहलाद सिंह, पत्रकार मिश्रीलाल गुप्ता और महेन्द्र चीमा सहित बहुत लोगों का सहयोग भी मिला। पर उसके बाद वही नीरस दौर शुरू हो गया। एक जैसी मशीनी जिंदगी से ऊब भी होने लगी थी। इस बीच मैंने पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के लिए राजस्थान विश्वविद्यालय में एडमीशन ले लिया था। सो अरुणप्रभा से विदा लेकर 1 जून 1986 भरतपुर छोड़कर जयपुर आ गया।
राजस्थान पत्रिका के मालिक गुलाब कोठारी से मिला और पत्रिका से जुड़ गया। मैंने पत्रकारिता का असली पाठ राजस्थान पत्रिका में ही सीखा। पत्रकारिता के लिहाज से भी वो बेहतर दिन थे। जयपुर से नवभारत टाइम्स का संस्करण निकलने लगा था। अखबार पत्रकारों को पूरा वेतन दे रहे थे। मार्केटिंग हावी नहीं हुई थी। बेहतर अखबार निकालने की स्वस्थ स्पर्धा थी। पत्रकारिता के स्थापित मूल्य सुरक्षित थे। पत्रिका तब कर्पूरचन्द्र कुलिश की पत्रिका थी। मोतीचन्द कोचर संपादक और कैलाश मिश्रा समाचार संपादक थे।
पत्रिका की परंपरा के अनुसार मुझे ट्रायल पर रखा गया। ट्रायल वालों के लिये एक ही काम तय था….अंग्रेजी के एजेंसी टेक का हिंदी में अनुवाद….. सबसे गैर जरूरी खबरों के एजेंसी टेक ट्रायल वालों को पकड़ा दिए जाते थे जिन पर संस्करण संपादक निगाह मारना भी जरूरी नहीं समझते थे। ट्रायल पर आने वाले अधिकतर सिफारिशी दो चार दिन में भाग छूटते थे… पर मैं डटा रहा… चारा भी नहीं था… मेरे पास घर वापसी का विकल्प नहीं था.. अंग्रेजी ठीकठाक थी… बस खुद पर विश्वास नहीं था… पर मैं शायद खुशकिस्मत था… अगले ही महीने टाइमकीपर ने आते समय हस्ताक्षर करके ऑफिस में घुसने की सूचना दी….
नए शिड्यूल में रिपोर्टिंग में तीसरे पेज पर ड्यूटी लगी… अखबार में यह लोकल एक्टिविटी का पेज था… मेरे लिए रिपोर्टिंग करने के साथ पेज बनाने की भी ड्यूटी थी… इस टास्क में राजेन्द्र राज मेरे सहयोगी थे… वे भी भरतपुर के थे… बहुत ही मृदुभाषी और सहयोगी… उनसे खूब पटी… ये दोस्ती आजतक चल रही है… रिपोर्टिंग में उस समय बहुत कम और चुने हुए लोग होते थे….. विश्वास कुमार, जगदीश शर्मा, अजय ढड्डा और भुवनेश जैन… इनके अलावा सांस्कृतिक रिपोर्टर इकबाल खान, कॉमर्शियल रिपोर्टर हरिसिंह सोलंकी और खेल रिपोर्टर अब्दुल गनी तथा रमेश आचार्य…. अखबार में ट्रेनिंग ग्रेड मिलने के बावजूद यह सबसे चुनौती भरे दिन थे… दिन में नौकरी और शाम को पेट भरने की चुनौती……. पैसे बहुत कम थे और कमरे का किराया भी देना पड़ता था….. सबसे अच्छी बात यह थी कि आपस में कोई राजनीति नहीं थी… मैंने पत्रिका ऑफिस के नजदीकतम गंगवाल कॉलोनी में कमरा किराए पर ले लिया था… इसके कारण अखबार के लिए मेरी अटेंटिवनेंस थोड़ी बैटर थी… रात को नींद नहीं आए तो अखबार के बाहर की चाय की थड़ी जिंदाबाद। कार्टूनिस्ट आलोक अवस्थी मेरे रूम पार्टनर थे… हम दोनों घंटों गप्पें लगाते हुए समय गुजारते थे…
….जारी….
लेखक धीरज कुलश्रेष्ठ राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार हैं. धीरज से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
इसके पहले का पार्ट यहां पढ़ें…
Ashok
January 14, 2015 at 5:48 pm
आप का कहना है कि सब आपने पत्रिका मैं सीखा है तु सोसड़ कितना हुआ ये तो आपने बताया नही