
अभिषेक श्रीवास्तव-
इस बार का प्रेस क्लब ऑफ इंडिया का चुनाव जितना उदासीन जान पड़ता है, उतना ही दिलचस्प है। प्रेस क्लब के छोटे मोदी दादा गौतम लाहिड़ी फिर से मैदान में हैं। पैनल में कुछ चेहरों को बदल के वापस वही सत्ताधारी पार्टी जोर आजमा रही है, जो बदलाव के नाम पर 2011 में आई थी और खसरा खतौनी लिखवा के तब से 1, रायसीना रोड में जम गई है।
दिलचस्प है कि अबकी विरोधी संघी पैनल अस्तित्व में नहीं है। सूत्रों की मानें, तो संघी पैनल पर पिछले कुछ वर्षों में खूब खर्च कर के हर बार निराशा हाथ लगने पर उनके आकाओं ने कहा कि जाने दो, कोई लाभ नहीं, इसी सत्ताधारी पैनल को अपना बना लेना बेहतर रणनीति है, बजाय किसी को खड़ा करने के। इसलिए जबरदस्त कयास हैं कि सेकुलरिज्म, अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतंत्र के नाम पर लगातार बारह साल से सत्ता में रहते आया यह पैनल अब संघियों के लिए सेफ हेवेन हो चुका है।
उसके दूसरी तरफ प्रशांत टंडन की टीम है, जो बिना टांग के मुर्गे जैसी है। कुल 21 में ऊपर के केवल चार पद हैं, नीचे सन्नाटा है। जो दो लोग खुद को इनका बता रहे हैं, वे स्वतंत्र प्रचार कर रहे हैं, पैनल का नहीं। चूंकि ये भी सेकुलर, लोकतांत्रिक पैनल है, इसलिए इनके खिलाफ सिटिंग पैनल के पास कोई मुद्दा नहीं है। यही प्रशांत टंडन की ताकत है।
संदीप दीक्षित के आशीर्वाद से बारह साल से जीतता आया सिटिंग पैनल हर साल संधियों का डर दिखा कर जीतता था। अबकी पोलराइजेशन नहीं है, तो दुश्मन भी नहीं है। इसलिए इस पैनल को लग रहा है कि यह निर्विरोध जीत जाएगा। यही इसका खतरा है। कश्ती वहां डूबती है जहां पानी कम हो।
अव्वल तो, वोट कम पड़ने वाले हैं। दूसरे, सेकुलर वोट बंटने जा रहे हैं। तीसरे, दोनों को जीत के मार्जिन के लिए संघी वोटों का सहारा है। इसलिए पहली बार प्रेस क्लब का चुनाव संघियाें के भरोसे हो गया है।
सवाल है कि संघी, भाजपाई, कम्यूनल पत्रकार किसे वोट देंगे? अब या तो वे वोट नहीं देंगे, या फिर बारह साल से बनी यथास्थिति को हटाने के लिए वोट देंगे ताकि पहले गठबंधन सरकार आवे, फिर वे खुल कर अगली बार मैदान में उतरें। यानी, स्वाभाविक रूप से संघियों का वोट प्रशांत टंडन को जाएगा।
अगर ये बात दादा गौतम लाहिड़ी के पैनल को समझ आ रही है, तो उन्हें संघी वोटों को मोबिलाइज करने में जुट जाना चाहिए क्योंकि अकेले सेकुलर वोटों के भरोसे उनकी जीत फंस सकती है। दिक्कत ये है कि ऐसा वे खुलेआम नहीं कर सकते।
इसका मतलब ये है कि सिटिंग पैनल के ऊपर के चार लोग जीतें या हारें, दोनों स्थिति में उन्हें गाली खानी है। जीते, तो आरोप लगेगा कि संघियों के वोट से जीते। हारे तो उसके पीछे उनके कुकर्म गिनाए जाएंगे।
अगर प्रशांत टंडन एंड कंपनी जीतती है तो उन पर संघी वोटों के भरोसे जीतने का आरोप लगाना आसान नहीं होगा क्योंकि प्रशांत जी की राजनीतिक लाइन बहुत स्पष्ट है।
कुल मिलाकर, ये चुनाव बरसों में पहली बार सबसे दिलचस्प होने जा रहा है क्योंकि दोनों लड़ने वाले समूह राजनीति और वैचारिकी में एक ही पाले के हैं, कोई ज्यादा वाम तो कोई कम।
चूंकि कम वाम को संघी ठहराना हमेशा आसान होता है, इसलिए ज्यादा वाम हमेशा फायदे में रहता है।।
यही इस चुनाव का सबक है। जिताइये किसी को भी, आप संघ से नहीं बच सकते।
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