धीरेंद्र अस्थाना-
मैं अगस्त 1978 की एक सुबह पांच बजे दिल्ली के अंतर्राज्यीय बस अड्डे पर उतरा था, किसी परम अज्ञानी की तरह, राजधानी में पहली बार,वह भी एकदम अकेले,बाइस साल की उम्र में। मुझे उसी दिन हिंदी के सबसे बड़े प्रकाशन संस्थान राजकमल में नौकरी ज्वाइन करनी थी।
साढ़े आठ बजे तक का समय इधर उधर भटक कर मैं अपने भारी बैग के साथ पौने नौ बजे राजकमल पहुंच गया। लंबी प्रक्रिया में नहीं जाते हैं।उसी दिन से मेरी नौकरी शुरू हो गई और रहने के लिए राजकमल का गेस्ट हाउस मिल गया, जहां आज राजकमल का दफ्तर है। दोपहर के समय बीच बीच में मैं दस, दरियागंज जाया करता था, अपने इकलौते परिचित, सुरेश उनियाल से मिलने के लिए,जो सारिका जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में काम करते थे।
एक दिन मुझे सुरेश ने चित्रकार कवि हरिप्रकाश त्यागी से मिलवाया, मुझे त्यागी का साथ इतना भाया कि हम बार बार मिलने लगे। एक दिन त्यागी राजकमल आया तो उसके हाथ में एक किताब झूल रही थी– शीर्षक पढ़ते ही मेरी हंसी छूट गई। क्या हुआ,त्यागी ने पूछा। मैंने कहा,जिस दिन मैं दिल्ली आया, मेरी हालत इस किताब के शीर्षक जैसी थी। त्यागी भी हंसने लगा। फिर त्यागी वह किताब मेरी मेज पर यह कहते छोड़ गया- रख ले।यह दिल्ली में मेरे अपनी मिल्कियत वाली पहली किताब थी।
दोस्तों, इतनी लंबी भूमिका इसलिए कि उस किताब का नाम था- राजधानी में गंवार। लेखक थे प्रेम जनमेजय। यह जानकारी यकीनन प्रेम जनमेजय को भी नहीं होगी। बाद में त्यागी ने या शायद सुरेश ने ही मुझे प्रेम जनमेजय से मिलवाया और हम दोस्त बन गए।तब तक साहित्य में व्यंग्य का महत्व मैं समझ चुका था। राजकमल में रहते हुए हरिशंकर परसाई,शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल को न सिर्फ पढ़ चुका था बल्कि बेच भी रहा था।
उसके बाद 1982 में बेशर्म मेव जयते और 1986 में पुलिस पुलिस नामक किताबें मैंने पढ़ीं।1990 में मैंने दिल्ली छोड़ दिया और मुंबई आ गया। लेकिन दिल्ली छोड़ने से पहले मैं यह धारणा बना चुका था की परसाई जी और शरद जी के बाद व्यंग्य की दुनिया में प्रेम जनमेजय का सिक्का चलने वाला है। और कालांतर में यह धारणा पुष्ट भी हुई।
आज अपने उन आरंभिक दिनों के दोस्त की शिनाख्त जैसी भारी भरकम किताब मेरी गवाही में खड़ी है और मैं गर्व से हंस रहा हूं और भावुकता में बह कर रो भी रहा हूं। बहुत खुश हूं मैं।
प्रकाशकीय सीमा है वरना तो इस दोस्त की शख्सियत के आकलन के लिए ऐसे चार खंड भी कम हैं।अब आते हैं इस महत्वपूर्ण किताब पर जो शोधकर्ताओं के लिए किसी लाटरी लगने से कम नहीं है।किस किस दिग्गज ने नहीं लिखा है इसमें?
यह किताब खुलती है वरिष्ठ आलोचक और लेखक तरसेम गुजराल के संपादकीय से- प्रेम जनमेजय को क्यों पढ़ा जाए।
इस महत्वपूर्ण और विचारवान संपादकीय में तरसेम जी ने प्रेम के विविधरंगी रचना संसार की विस्तृत जानकारी देने के साथ ही यह भी सिद्ध किया है कि प्रेम जनमेजय होने का क्या मतलब है? इसके बाद करीब 75 वरिष्ठ, कनिष्ठ, समकालीन लेखकों ने प्रेम जनमेजय की रचनात्मक यात्रा और योगदान का विश्लेषण किया है। कुछ खास लेखकों में शामिल हैं– नरेंद्र कोहली,रामदरश मिश्र, निर्मला जैन, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल,सूर्यबाला,कमल किशोर गोयनका,शंकर पुणतांबेकर, कन्हैयालाल नंदन,नासिरा शर्मा, ज्ञान चतुर्वेदी, जगदीश चतुर्वेदी,हरीश नवल,सुधीश पचौरी,रमेश उपाध्याय,अजय नावरिया,अशोक चक्रधर,दिविक रमेश,सूरज प्रकाश,महेश दर्पण और अनंत विजय।
सब लेखकों का नाम लेना संभव नहीं लेकिन जो भी हैं महत्वपूर्ण हैं। प्रेम के बारह बहुचर्चित व्यंग्य किताब को रचनात्मक चेहरा भी प्रदान करते हैं।प्रेम द्वारा संपादित पत्रिका व्यंग्य यात्रा पर कमलेश्वर, विष्णु प्रभाकर, श्रीलाल शुक्ल, डाक्टर कमला प्रसाद, डाक्टर विजय बहादुर सिंह जैसे दिग्गजों की टिप्पणी किताब को नये मायने देती हैं।
दोस्तों,यह समीक्षा नहीं है।यह एक महत्वपूर्ण ग्रंथ का परिचय भर है। अब किताब मंगाना पढ़ना शुरू होता है आपके पाले में।