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सुख-दुख

हमारा समाज इतना मेच्योर नहीं हुआ है कि वह प्रेम को समझ सके!

पुष्यमित्र-

1990 में यह फिल्म आयी थी, मगर बहुत चली नहीं. आज भी इस फिल्म की कहीं चर्चा नहीं होती. हालांकि समीक्षकों ने इस फिल्म की कहानी, उसकी प्रस्तुति, निर्देशक महेश भट्ट के निर्देशन और इसके कलाकारों के अभिनय की काफी तारीफ की. खास तौर पर यह भी कहा गया कि यह अनिल कपूर और मीनाक्षी शेषाद्री का अब तक का सबसे बेहतर अभिनय प्रदर्शन है. मुझे यह फिल्म बेहतरीन कहानी और बेहतरीन अभिनय के अलावा गुलाम अली के गाये गीत चमकते चांद को टूटा हुआ तारा बना डाला के लिए भी खास तौर पर हमेशा याद रहती है.

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एक दो दिन से इस फिल्म की याद इसलिए भी है, क्योंकि इन दिनों सोशल मीडिया पर यूपी की एक महिला पीसीएस अधिकारी की खूब चर्चा है. बताया जा रहा है कि उसके चपरासी पति ने उसे पीसीएस बनाया, मगर पीसीएस बनने के बाद वह अपने पति से अलग होना चाहती है. वह किसी और के साथ प्रेम करने लगी है.

इस फिल्म में अनिल कपूर एक अपराधी की किरदार में हैं. वह अपराधी एक वेश्यालय से मीनाक्षी शेषाद्री के किरदार को छुड़ाकर बाहर निकालता है और उसे एक सिंगर बनने में मदद करता है. वह मन ही मन मीनाक्षी शेषाद्री के किरदार से प्रेम करता है. मीनाक्षी शेषाद्री का किरदार अनिल कपूर के किरदार के एहसान के तले तो दबा रहता है, मगर वह उसे प्रेम नहीं करता.

उसे प्रेम अपने सहगायक गोविंदा के किरदार से होता है. इस बीच अनिल कपूर भी अपना प्रेम जाहिर करता है. इसके बाद शुरू होता है उस जुनूनी कशमकश का दौर. पहले तो मीनाक्षी शेषाद्री को लगता है कि अनिल कपूर के उस पर इतने एहसान हैं कि उसका किसी और से प्रेम करना गलत है. वह गोविंदा से दूर होने की कोशिश करती है. मगर यह हो नहीं पाता.

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अनिल कपूर किसी भी सूरत में मीनाक्षी शेषाद्री को पाना चाहता है. कभी उसके साथ हिंसा करता है, तो कभी उसे दुलारता पुचकारता है. मगर मीनाक्षी के मन में अनिल कपूर एक प्रेमी के तौर पर है ही नहीं और कभी नहीं आता है. वह उसके एहसान के तले जरूर दबी है. अपने जीवन में उसके किये का महत्व भी समझती है, मगर वह एहसान प्रेम में नहीं बदलता.

इस कहानी के जरिये निर्देशक महेश भट्ट बताना चाहते हैं कि एहसान, मदद और उपकार अलग बात है और प्रेम अलग. अगर किसी के मन में किसी के प्रति प्रेम नहीं है तो वह नहीं है. प्रेम मन की चीज है. वह मन में स्वाभाविक तौर पर उपजती है. उसे जोर जबरदस्ती पैदा नहीं किया जा सकता.

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हम अक्सर प्रेम को समझने में गलती करते हैं. हमारा समाज हमेशा प्रेम को रेगुलेट करने की कोशिश करता है. मगर प्रेम एक वैयक्तिक चीज है.

अनिल कपूर ने इस तरह की दो फिल्में की हैं. एक वो सात दिन, जिसके आधार पर बाद में हम दिल दे चुके सनम बनी. दूसरी यह आवारगी. वो सात दिन जिस एंड पर कहानी को ले जाती है, वह समाज को पसंद आने वाला है. वह प्रेम के आगे शादी के रिश्ते को प्रधानता देता है. उसमें एक भावुक रिजल्ट दिया जाता है, जो सबको पसंद आ जाये. मगर आवारगी फिल्म हकीकत के करीब है और वह सच्चाई को बहुत नजदीक से छूती है. उसके नतीजे समाज को पसंद नहीं आ सकते. इसलिए वो सात दिन और हम दिल दे चुके सनम फिल्म सुपर हिट हो जाती है औऱ आवारगी फ्लाप होकर कहीं गुम हो जाती है.

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मगर प्रेम की हकीकत को आवारगी फिल्म ही बयां करती है. प्रेम आप उसी से कर सकते हैं, जिसके लिए आपके मन में प्रेम उमड़ता है. आप नैतिकता के नाम पर अपने प्रेम को दबा तो सकते हैं, मगर किसी ऐसे व्यक्ति के लिए आप अपने मन में प्रेम पैदा नहीं कर सकते, जिससे आपको प्रेम नहीं है. समाज समझौते करना सिखाता है, मगर प्रेम सिर्फ मन से होता है.

अभी हमारा समाज इतना मेच्योर नहीं हुआ है कि वह प्रेम को समझ सके, उसे स्वीकार कर सके. दो प्रेम करने वालों को एक दूसरे के साथ खुश रहने दे. और यह समझे कि अरे प्रेम तो प्रेम है, यह उसी से होता है, जिससे होता है. यह न शादी करने से होता है, न एहसान करने से, न किसी और बाहरी वजह से.

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नोट-यूपी वाली कहानी में सच्चाई क्या है, यह मैं नहीं जानता. क्योंकि यह तीन किरदारों के बीच घटी घटना है. उसकी तफ्तीश मैंने नहीं की है. मगर उस मामले को लेकर सोशल मीडिया पर जिस तरह के बेवकूफाना चुटकुले शेयर हो रहे हैं. मीम बन रहे हैं और फालतू तर्क दिये जा रहे हैं. इसी वजह से मुझे यह लिखना जरूरी लगा. मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि कोई किसी को पीसीएस बनाये या सिंगर बनाये या ओलिंपिक चैंपियन, मगर इस वजह से किसी को किसी से प्रेम नहीं हो सकता. न किसी को इस वजह से प्रेम का दावा करना चाहिए. प्रेम होने की अपनी ही अलग वजहें हैं.


Anu Shakti Singh-

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मैं यह देखती हूँ, किसी मज़बूत स्त्री को किसी विवाहित पुरुष से प्रेम हुआ नहीं कि टिड्डियों का पूरा दल उस मज़बूत स्त्री के अस्तित्व पर हमला बोलने कूद पड़ता है।
ग़लती से उस स्त्री ने पहली से तलाक़ की माँग कर दी तो कथित पढ़े-लिखे लोगों को भी उसमें शोषक नज़र आने लगती है।

पहली स्त्री चूँकि बेवफ़ाई की शिकार है इसलिए दूसरी स्त्री को क़ुर्बानी देनी चाहिए। उसे प्रेमी मिल रहा है ना, अधिकार क्यों चाहिए?

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उफ़्फ़! भारत के लोग और इनकी मानसिक दयनीयता। अपने लालचों का मारा पुरुष बिचारा रहा, मज़बूत स्त्री शोषक हुई और दूसरी शोषित।

भले मानुषों, इससे निकलो। शोषक-शोषित से अलग भी दुनिया है।
किसी स्त्री का अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना उसे शोषक नहीं बनाता है। प्रेम करने का अर्थ अपने अधिकारों की तिलांजलि नहीं है।

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फिर से कह रही हूँ, विवाहित रहते हुए किसी अन्य स्त्री या पुरुष से प्रेम हो जाना गुनाह नहीं है पर इसमें सामाजिक, क़ानूनी और मानसिक रूप से ऐसी व्यवस्था बननी चाहिए कि पति-पत्नी और तीसरे पार्ट्नर, तीनों के अधिकार सह मनोदशा सुरक्षित रहें।

एक बात और, किसी को भी प्रेम करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। यह स्वतः स्फूर्त होता है, वैसा ही रहता है।

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