अमरीक-
किसी फूल को सूखते हुए नहीं देख सकते थे संपादक रामेश्वर पांडे…
श्री रामेश्वर पांडे से एक बार मैंने चार दिन की छुट्टी मांगी और उन्होंने बगैर एक भी शब्द कहे आवेदन मंजूर कर दिया। मैं बहुत कम छुट्टी लेता था। ‘गायब’ जरूर हो जाता था। सिरसा से लौटा तो उन्होंने वैसे ही पूछ लिया कि छुट्टी की क्या जरूरत आन पड़ी थी। मेरी आंखें कुछ पनीली थीं। मुझसे कहा कि दो कप चाय कैंटीन में बोल कर आओ। कह आया तो सामने की कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। फिर वही सवाल दोहराया।
मैंने कहा कि तलाक की प्रक्रिया पूरी करने गया था। उनकी आंखें मेरे चेहरे पर टिक गईं। बोले, इस प्रसंग पर तो हमारी कभी भी कोई चर्चा नहीं हुई। पांडे जी का स्वभाव था कि वह एक सीमा तक ही किसी की निजी ज़िंदगी तक जाते थे और दूसरे से भी यही अपेक्षा रखते थे। मैंने कहा सर मौका ही नहीं लगा कि कभी आपको कुछ बताता। हमारा तलाक बगैर किसी कलह के आपसी समझौते के साथ हुआ था। हमारी ज्ञात पीढ़ियों में यह पहला तलाक था। मेरे पिता ने मेरी पत्नी को बेटी बनाकर विदा किया था। तलाक के वक्त हमारा वकील भी एक था। शहीद छत्रपति। गुरमीत राम रहीम सिंह ने उन्हें कत्ल करवा दिया था। बाहर के लोग उन्हें बतौर निर्भीक पत्रकार जानते थे लेकिन वह एडवोकेट भी थे। हम पति-पत्नी और परिवार के लोग जज के सामने गए तो न्यायाधीश ने छत्रपति जी से पूछा कि क्या दोनों के वकील आप हैं? छत्रपति ने कहा कि तलाक महज औपचारिकता है।
फिर जज ने मेरी पत्नी से कुछ पूछा और मुझसे यह कि मैं क्या करता हूं। मेरा प्रोफेशन सुनकर वह हैरान रह गया और कहा कि आप तो ‘जनसत्ता’ और ‘चौथी दुनिया’ में भी छपते थे। शायद जज साहब का नाम ओमप्रकाश गोयल था। उन्होंने बाकियों को दोपहर बाद आने को कहा और मुझे वहीं रोक लिया। छत्रपतिजी, जज और मैं उनके पिछले कमरे में बैठ गए। चाय- पान हुआ।
पांडे जी यह कहानी सुन रहे थे कि कैंटीन वाला लड़का चाय और मट्ठी रख गया। जज ने कहा कि आप जैसे लोग ही तलाक लेंगे तो समाज को क्या संदेश जाएगा। मेरी ओर से छत्रपति ने कहा कि कोई चारा ही नहीं। इन दोनों पति-पत्नी के बीच कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ। बस प्रवृत्तियां नहीं मिलीं। पत्नी की इस मासूम शिकायत को यह दूर नहीं कर पाया जी बेड तक किताबें रखी हुई हैं और पूरा कमरा किताबों तथा पत्र-पत्रिकाओं से भरा हुआ है। पांडे जी ने मुझसे पूछा क्या ऐसा था। मैंने कहा जी सर। ऊपर एक कमरा बना रहे थे लेकिन पत्नी को ज्यादा दिन मेरे साथ रहना नामंजूर था। (वैसे भी मैं नौकरी के सिलसिले में चंडीगढ़ रहता था)। उसने सीधा कहा अलग होना चाहती हूं। मैंने कहा ठीक।
मेरे और उसके अभिभावक बैठे और 10 मिनट में तलाक का फैसला हो गया। (मैं तो तलाक के कागज भी लेने नहीं गया। छत्रपति जी खुद छह महीने के बाद लेकर आए)।
पांडे जी ने खामोशी के साथ सब कुछ सुना। भावुकता और अतिरिक्त संवेदनशीलता उनके चेहरे से साफ झलक रही थी। उन्होंने मुझे जाने का इशारा किया और कहा कि दो दिन की छुट्टी और ले लो। मैंने ले ली और कपूरथला चला गया। अगले दिन पांडे जी वहां आए। तलाक वाली बात उन्होंने नहीं छेड़ी। दुनिया भर की अन्य बातें होती रहीं। चलते वक्त मेरे कंधे पर हाथ रखकर बस इतना कहा कि मुझे कुछ-कुछ एहसास जरूर था कि तुम्हारे भीतर कोई बहुत बड़ा तूफान है जो आना भी चाहता है और नहीं भी।
अमर उजाला में एक प्रशिक्षु पत्रकार थीं। दिवंगत संजय मिश्र से उसका कुछ झगड़ा हो गया तो मामला चीफ रिपोर्टर (शायद किशोर झा) पांडे जी तक ले आए। मुझे पता चला कि कल प्रबंधन के जरिए उस लड़की को चले जाने के लिए कह दिया जाएगा। सुबह कोई ग्यारह बजे मैंने उन्हें उनके घर की लैंडलाइन पर फोन किया। सोए से जगाया और कहा कि वह लड़की मेरी मुंह बोली बहन है। उसे कुछ दिन की मोहलत दे दी जाए। उसके लिए कहीं और बंदोबस्त कर दूंगा। श्री रामेश्वर पांडे का जवाब था कि बेटा कैसी बात करते हो, वह लड़की यहीं रहेगी। वह प्रेस कार्यालय में दिन में काम करे और शाम को चली जाए। मैं सब संभाल लूंगा।
एक और प्रशिक्षु लड़की थी। जिसक दैहिक शोषण पांडे जी के एक बेहद प्रिय संवाददाता ने किया था। उसने उस लड़की से शादी की शर्त पर संबंध बनाए थे। रिपोर्टर महोदय कुछ महीनों के बाद उसकी उपेक्षा करने लगे। अचानक एक दिन वह उस रिपोर्टर के घर पहुंच गई तो पाया कि इस धोखेबाज शख्स ने किसी ओर से शादी कर ली है। उस मासूम लड़की ने खुलकर सारी बात मुझे बताई। मैंने पांडे जी को। पांडे जी सन्न रह गए और कहा कि मैं उस धूर्त का तबादला कर सकता हूं। बात आगे बढ़ेगी तो इस लड़की की बदनामी होगी। खैर, उस लड़की ने अमर उजाला छोड़ दिया। पांडे जी गाहे-बगाहे उस लड़की की बाबत मुझसे पूछते रहते थे और व्यथित होते थे कि उन्होंने किसी ऐसे शख्स को अपना करीबी बनाया जो इतना बड़ा धोखेबाज निकला। उस शख्स कि खासियत यह थी कि वह अपना सारा मीठा जहर बड़ी चालाकी के साथ सामने वाले में घोल देता था। आज भी घोलता है!
देखने में सर्कस के जोकरों का मास्टर लगने वाला वह पत्रकार अब एक बड़े समूह में है–इसी इलाके में। (हालांकि जोकर बेहद संवेदनशील और मानवीय होते हैं)। हर तरह के आंसू बहाने की कला में सिद्धहस्त है। मेरी जानकारी में पांडे जी पर उसने एक लाइन की श्रद्धांजलि भी नहीं लिखी जबकि वह उन्हें अपना पिता कहता था। एक और पत्रकार महोदय थे जिन्होंने किसी सज्जन के 2700 रुपए देने थे। आखिरकार वे सज्जन कुछ लोगों को लेकर पांडे जी के पास आ गए और पांडे जी ने साफ कहा कि वह व्यक्ति आपसे जूते खा लेगा लेकिन एक पैसा भी नहीं देगा। आप मेरे पास आए हैं। फलां दिन आधे पैसे मुझसे ले जाइए और हिसाब पर काटा फेर दीजिए। रामेश्वर पांडे ने उस उधारबाज संवाददाता से कुछ नहीं कहा गोया कुछ हुआ ही न हो।
रामेश्वर पांडे का यह रूप बहुत लोगों ने देखा होगा। नौकरी के लिए एक बार एक नौजवान का टेस्ट हुआ। उसने लिखा था , ‘शिमला की राजधानी हिमाचल प्रदेश में बर्फबारी हो रही है’। उससे पूछा गया की हिमाचल प्रदेश की राजधानी का क्या नाम है तो जवाब मिला शिमला! दिन का वक्त था। मैं पांडे जी के पास बैठा था। मैंने कहा सर इसने बाकी सब कुछ ठीक लिखा है, बस यही एक गलती है। थोड़ा समझा दीजिए और मौका दीजिए। फिर भी सही नहीं लगा तो वापसी का टिकट तो है ही। आज वह शख्स अमर उजाला में ही वरिष्ठ पद पर है।
इसी तरह एक उम्मीदवार ने पंजाब के मुख्यमंत्री का नाम प्रताप सिंह कैरों लिख दिया। पांडे जी ने पूछा कि क्या ,कैरों साहब पंजाब के मुख्यमंत्री हैं? जवाब मिला कि हां! और प्रकाश सिंह बादल? जवाब मिला कि उन्होंने तो कब से राजनीति से संन्यास ले लिया है। उसका बाकी सब ठीक था। मेरे आग्रह पर उसे भी मौका दिया गया और वह भी अब (अमर उजाला में कई साल बिताने के बाद) दैनिक हिंदुस्तान में है।
अज्ञानता को रामेश्वर पांडे ने कभी मूर्खता नहीं माना। अपने ड्राइवर के दसवीं पास बेटे को पहले प्रशिक्षु उपसंपादक बनाया और फिर उपसंपादक। आज वह जालंधर के एक बड़े अखबार में अच्छी नौकरी कर रहा है। मेरे अमर उजाला छोड़ने के बाद की बात है। तय हुआ कि साथियों को गुरमुखी सिखाई जाए। इसके लिए भाई रमन मीर को चुना गया। रमन मीर आए तो थे गुरमुखी सिखाने लेकिन अमर उजाला में ही उपसंपादक हो गए। बाद में दैनिक भास्कर के संपादक भी बने। खूब नाम कमाया।
चतुर्थ श्रेणी के दो लड़के थे जिनकी दिलचस्पी पत्रकारिता में थी। पांडे जी की प्रेरणा से उन्होंने इस फील्ड में कदम रखा और आज जालंधर के ही एक अखबार में काम कर रहे हैं। एक सुरक्षाकर्मी था जिसे लिखने का शौक था। लेकिन लेखन में कच्चापन बहुत ज्यादा था। पांडे जी ने उसे मेरे पास भेजा और उसने दो आलेख थमाए। मैंने ऊपर से नीचे तक सब कुछ बदल दिया और उसका नाम रहने दिया। अखबार में छपा देखकर वह लड्डुओं का डिब्बा लेकर आया। मैंने कहा कि सबसे पहले गुरुवर श्री रामेश्वर पांडे का मुंह मीठा करवाओ। फिर स्टाफ का और खाली डिब्बे को मैं उंगली से चाटूंगा। लड्डू उस दिन खाऊंगा जिस दिन लेखनी को पूरी तरह परिपक्व करके कुछ और लिख कर लाओगे। वर्तनी की गलती की परवाह मत करना। उसे ठीक करने के लिए ही हम बैठे हैं।
साथ वाले केबिन में पांडे जी मेरा यह ‘प्रवचन’ सुन रहे थे। वहीं आ गए और उससे बोले कि जो इन्होंने कहा है उस पर गौर करना और अगले हफ्ते की पहली तारीख को अपने दो प्रकाशित लेखों का पारिश्रमिक ले जाना। मैंने जानबूझकर उसका पारिश्रमिक कुछ ज्यादा लगवाया। अमर उजाला वैसे भी बहुत अच्छा पारिश्रमिक देता था। यह श्री रामेश्वर पांडे के भीतर के वामपंथ की बदौलत था। सचमुच वह लड़का पहला पारिश्रमिक पाते ही अभिभूत हो गया और कुछ दिन के बाद एक लेख लेकर आया। मामूली गलती के साथ वह बहुत अच्छा लेख था। लगता था कि खूब मेहनत के साथ और बार-बार री राइट करके लिखा गया है। उसकी बाबत मैंने कुछ सवाल किए और उसे छाप दिया।
उसके बाद यह सिलसिला जारी रहा। वह एमए पास था। पुलिस में सीधा सब इंस्पेक्टर भर्ती हो गया। मैं जागरण जा चुका था। अभी कोई तीन साल पहले आरके कारंजिया पर ‘पंजाबी ट्रिब्यून’ में प्रकाशित हुआ। ऊपर मेरी छोटी सी फोटो थी और नीचे फोन नंबर भी लिखा हुआ था। सुबह सात बजे फोन आया कि मैं वह शख्स बोल रहा हूं जिसे आपने लिखना और जीने का सलीका सिखाया। अब डीएसपी हूं। पीएपी में। उसने मुझसे पांडे जी का नंबर भी मांगा और बात करने के बाद बताया कि वह बहुत खुश हुए। मैंने तो खुश होना ही था। सब रामेश्वर पांडे का सौजन्य था। वह सचमुच अपने तईं किसी फूल को सूखते हुए नहीं देखना चाहते थे।
एक महिला लेखक ने कई बार डाक के जरिए फीचर विभाग को अपने लेख भेजे। व्यंग्य। जो दरअसल सुने-सुनाए लतीफे होते थे। मैं संपादन के अभिवादन में खेद सहित लिखकर लौटा देता था। एक दिन मेरी शिकायत लेकर वह पांडे जी के पास आ गईं। पांडे जी ने पूछा कि इनका लिखा हुआ क्या सुधार कर भी नहीं छापा जा सकता? मैंने कहा कि अभी कुछ लाईं हैं तो आपको दिखाएं। सामग्री को देखकर पांडे जी को मानो गुस्सा आ गया। बोले कुछ नहीं। कहा कि हमारे यहां ऐसा कुछ नहीं छपता और न छपेगा।
अखबार में उसने श्री अतुल महेश्वरी का नाम प्रिंट लाइन में पढ़ा हुआ था। बोलीं, अब मैं सारा मैटर आप दोनों की शिकायत के साथ उन्हीं को भेजूंगी। श्री रामेश्वर पांडे का सारा गुस्सा–जिसे सिर्फ मैं भांप रहा था, काफूर हो गया। वह बोले, मोहतरमा यही सही रहेगा क्योंकि हमारा संस्करण छोटा है। वहां भेजेंगीं एक तो तमाम संस्करणों में आपका यह सब कुछ छप जाएगा और दूसरे वहां हमसे कहीं ज्यादा काबिल लोग बैठे हैं। हम नाकाबिल हैं, इसीलिए इतनी दूर भेजे गए हैं। फिर वह बोलीं, ‘असल में मेरा सपना है कि मैं अमर उजाला में एक बार जरूर छपूं।’ पांडे जी ने न जाने क्या सोच कर कहा कि अमरीक, लिक्खाड़ हो। इनके नाम से तुम ही कुछ लिख दो। फिर उस महिला से बोले कि आपको उसका पारिश्रमिक नहीं मिलेगा और उसके बाद आप यहां कुछ नहीं भेजेंगीं। मेरठ वालों की डांट से डरते हुए हम यह कर रहे हैं। आज के बाद आप अपना सारा मैटर मेरठ भेजने का कष्ट करेंगीं।
मेरी हंसी छूटते-छूटते बची। पांडे जी हंसे या नहीं, यह तत्काल इसलिए मालूम नहीं हो पाया कि उनके मुंह में पान था। बाद में उन्होंने बताया कि वह हंसते तो शर्ट पीक से दागदार हो जाती। रामेश्वर पांडे का ‘विट’ भी कमाल का था। भावुकता और संवेदनशीलता की अति का इशारा तो ऊपर कर ही चुका हूं। इस वक्त लग रहा है कि एकदम सामने पांडे जी खड़े हैं। मानों कह रहे हों बाबू मैं तो कभी कभार तुम्हें डॉल्फिन ले जाता था लेकिन तुमने तो लाल परी से निकाह ही कर लिया और अब तलाक तब दिया है जब जिगर थक-हार गया है!
इन्हें भी पढ़ें-