अमरीक-
मानवीय सरोकारों से सराबोर थे रामेश्वर पांडे
श्री रामेश्वर पांडे जितने सरल थे उतने ही बाहर और भीतर से सजग भी। वह सफारी सूट डाल कर आराम कुर्सी पर बैठकर चमचों की महफिल जुटाने वाले संपादक/पत्रकार हरगिज़ नहीं थे। आंख-कान हमेशा खुले रखते थे। उनकी नाक षड्यंत्र की बू दूर से पहचान लेती थी। बेशक इसे तभी जाहिर करते थे जब जरूरत हो। उनका मानना था कि उनके रत्ती भर भ्रम से किसी के भी आत्मविश्वास अथवा सम्मान को चोट न लगे। ‘मुंह में राम-राम और बगल में छुरी’ वालों को भी वह बखूबी पहचान लेते थे। अचानक ऐसा होने लगा कि अमर उजाला का दैनिक चार्ट/डमी और फ्रंट पेज की खबरें दैनिक जागरण व पंजाब केसरी से मेल खाने लगीं।
पहले ही दिन वह ताड़ गए थे कि यह स्टाफ की किसी काली भीड़ की कारगुजारी है; जो अखबार की सारी प्लानिंग और फ्रंट से लेकर भीतर के विशेष पन्नों पर क्या छप रहा है–प्रतिद्वंदी अखबारों को बताता है। इत्तेफाक यह इसलिए नहीं था कि यह सब मुतवातर हो रहा था। स्थानीय संपादक की मेरठ-नोएडा तक से जवाबतलबी हुई। रिसेप्शन पर तीन लड़के काम करते थे। दिन में अलग से तीनों से विस्तृत पूछताछ की गई। कॉल डिटेल निकलवाई गई कि देर रात कौन कहां फोन करता है। मुनासिब सुराग नहीं मिला।
अचानक मेरे दिमाग में आया जी पांडे जी से एक बात शेयर करनी बनती है। संपादकीय विभाग नीचे था और वहां से कोई भी सीधे कहीं फोन नहीं कर सकता था। यानी रिसेप्शन पर नंबर बताना जरूरी था। ऊपर प्रबंधतंत्र का विशाल कार्यालय था-जहां कम से कम दो फोन नंबर ऐसे थे जिन्हें जीरो डायल करके सीधी कॉल कहीं भी की जा सकती थी। यह पहलू न पांडे जी के दिमाग में आया और न रिसेप्शन वालों के। उसी दिन से निगाह रखी जाने लगी और ठीक तीसरे दिन उस शख्स की पुख्ता शिनाख्त हो गई, जो किसी हित के चलते अखबार के साथ गद्दारी कर रहा था। प्रबंधन को कहकर तत्काल जीरो लाइन सुविधा बंद करवाई गई यानी ऊपर का ऑफिस बंद होते ही वहां के फोन लॉक कर दिए जाते थे।
जब रामेश्वर पांडे को पूरा विश्वास हो गया कि यही शख्स सब कुछ लीक करता है तो उन्होंने उसे दिन में आने को कहा और सीधा पूछा कि वह देर रात ऊपर क्यों जाता है। ढीठाई से उसने जवाब दिया कि नीचे के बाथरूम साफ नहीं हैं, इसलिए ऊपर जाना पड़ता है। साथ वाले केबिन में मैं सुन रहा था। पांडे जी ने उसे सीधा कहा कि जो कर रहे हो वह गद्दारी है और संस्थान के प्रति अपराध! जो हुआ सो हुआ, आगे से नहीं होना चाहिए। उसका विभाग भी बदल दिया गया।
चंद दिनों के बाद ही शर्मसार हुआ वह शख्स दैनिक जागरण का हिस्सा बन गया और अमर उजाला के लोगों को तोड़कर वहां नौकरियां लगवाने लगा। श्री रामेश्वर पांडे चाहते तो उसे ऐसी सजा दे या दिलवा सकते थे कि वह ताउम्र किसी भी अखबार में नौकरी के काबिल नहीं रहता लेकिन विनम्रता और मानवीयता ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया। चुपचाप जाने दिया और शेष स्टाफ को भनक तक नहीं लगी कि पकड़ा गया चोर वही व्यक्ति था। एक और शख्स थे जिन्होंने उनकी मृत्यु के बाद खूब कागजी आंसू बहाए लेकिन जब पांडे जी के मताहत काम करते थे तो दिवंगत अतुल महेश्वरी और श्री राजेश रपरिया को फर्जी नामों से चिट्ठियां लिखवा कर रामेश्वर पांडे के खिलाफ खूब उल्टे-सीधे आरोप लगाया करते थे। उनकी इस शरारत की बाबत भी रामेश्वर पांडे को खबर थी लेकिन कभी जाहिर नहीं होने दिया क्योंकि वह मानते थे कि सच पर तो झूठ को खड़ा किया जा सकता है लेकिन झूठ पर सच चंद पलों के लिए भी नहीं टिकता।
एक वरिष्ठ संवाददाता ने दिवाली के दिन पांडे जी को गिफ्ट दिया कि यह फलां हस्ती ने उनके लिए भेजा है। पांडे जी सब समझते थे कि एक गिफ्ट पैकेट के बदले उनकी बोली लगाई जा रही है। उन्होंने उस वरिष्ठ संवाददाता को सौ रुपए का एक नोट देते हुए कहा कि उनसे कहना यह रिटर्न गिफ्ट है और रामेश्वर पांडे सिर्फ अपनों से गिफ्ट लेते हैं। आप अपनों में नहीं हैं और न कभी होंगे। बाद में माफियानुमा उस ‘हस्ती’ के खिलाफ हर वह खबर छपी जो प्रकाशित होनी चाहिए थी। तैश में उसने रामेश्वर पांडे को फोन किया कि अपने रिपोर्टर को वहां से तब्दील कर दें। पांडे जी ने कहा कि लगता है अब आपकी उससे बनती नहीं लेकिन यह मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं है। इसके लिए आपको मेरठ जाना होगा। आगे से वह बोला कि अगर मैं मेरठ गया तो आपकी कुर्सी भी नहीं बचेगी। संपादक का जवाब था कि वह तो वैसे भी हमेशा खतरे में रहती है और मेरी जेब में हमेशा इस्तीफा! तल्खी बढ़ गई। उसने कहा कि वह इतने विज्ञापन देगा कि वह वही करेंगे जो मैं कहूंगा। पांडे जी ने कहा जी मैं मालिकों की नौकरी जरूर करता हूं लेकिन उनका ‘नौकर’ नहीं हूं। उनमें भी इतनी हिम्मत नहीं कि मुझे खरीद सकें। यह कहकर रामेश्वर पांडे ने फोन पटक दिया।
ऑफिस बॉय कहीं गया हुआ था। मुझे उन्होंने आवाज लगाई और पानी का गिलास लाने को कहा। उसमें डिस्प्रिन डाली और पी गए। मैंने कहा सर, ऐसे लोगों की बातों का क्यों तनाव लेते हैं तो जवाब था कि दरअसल गुस्सा इस आदमी पर नहीं अपने रिपोर्टर पर है जो लगातार षड्यंत्र बुन रहा है। एक और पत्रकार सज्जन थे जो लॉन्चिंग से बहुत पहले पंजाब आ गए थे। अमर उजाला शुरू होने से पहले उस सज्जन ने मालवा में सेटअप खड़ा करने में खूब मेहनत की लेकिन अखबार शुरू होने के बहुत बाद पांडे जी के हाथ उसके खिलाफ कुछ सुबूत लग गए। उसे उसके स्टेशन से जालंधर डेस्क पर बुला लिया गया।
कुंठित होकर उसने अमर उजाला छोड़कर दूसरा अखबार बतौर संपादकीय प्रभारी ज्वाइन कर लिया। पांडे जी चाहते तो उसके कैरियर पर भी सदा के लिए लाल निशान लग सकता था लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। जालंधर में जूनियर रिपोर्टर ने अपनी बीट से वाबस्ता किसी कनिष्ठ अधिकारी से दो हजार रुपए ले लिए। अगली डिमांड पर वह शख्स पांडे जी के पास आ गया। पांडे जी ने उससे लिखित में जानकारी देने को कहा। उसके बाद रिपोर्टर को बुलाया गया और उससे भी लिखित माफीनामा लिखवाया गया। वह मेरा अजीज था और अवसाद में चला गया। उसे हमेशा लगता था कि रामेश्वर पांडे उसके लिए माफीनामे को कभी न कभी उसे नौकरी से हटाने के लिए इस्तेमाल करेंगे।
पांडे जी हफ्ते में तीन दिन दोपहर को ऑफिस आते थे। मेरे अलावा तब स्टाफ का कोई व्यक्ति नहीं होता था। (फीचर डेस्क बाद में बारह बजे से लगने लगा)। मैंने उस जूनियर रिपोर्टर को बुलाया और पांडे जी से निवेदन किया कि उसके लिखे माफीनामे को फाड़ दें। वरना यह लड़का पागल हो जाएगा। पांडे जी ने दराज में से दोनों कागज निकाले, उसके आगे रखे और कहा कि इसे खुद अपने हाथों से फाड़ दो। आइंदा गलती न हो।
एक जूनियर सब एडिटर लड़की ने ऑफिस बॉय से बदतमीजी की और मैंने पांडे जी के आगे सख्त एतराज जताया। दोनों पक्षों को सुनने के बाद पांडे जी ने जूनियर सब एडिटर लड़की को ऑफिस बॉय से माफी मांगने को कहा। उसने मांगी। फिर किसी ने किसी भी ऑफिस बॉय के साथ किसी किस्म की बदतमीजी नहीं थी। मानवीय मूल्य और संस्कार रामेश्वर पांडे की मूल पूंजी थे। अपनी विचारधारा पर चले लेकिन उसे किसी पर थोपा नहीं।
कुछ साल पहले की बात है, मेरे एक दोस्त ने मेरे सामने उन्हें फोन किया कि लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी (एलपीयू) वाले एक अखबार निकालने की तैयारी कर रहे हैं और आप जैसे संपादक की उन्हें जरूरत है। पांडे जी का कहना था कि आवारा पूंजी वालों के साथ काम करना उनकी फितरत में नहीं। चाहे वे लाखों में पैकेज दें उनके लिए कुछ करना नामुमकिन है।
रामेश्वर पांडे, श्रीनिशिकांत ठाकुर के एक प्रोजेक्ट से भी जुड़े और मैं भी पंजाब से जुड़ा था। वह रिश्तों की बेहद कद्र करते थे। न जाने मुझे क्यों लगता है कि मैंने श्री रामेश्वर पांडे की पीठ में छुरा घोंपा। निशिकांत ठाकुर जी से विश्वासघात किया। बीस सालों से मेरी दोस्ती का दंभ भरने वाले मेरे यार जब मुझे मेरी गैरहाजिर में सब्जेक्ट बनाते थे तब इतना जरूर कहा जाता था कि पांडे जी और ठाकुर साहब कभी मेरा नाम तक सुनना पसंद नहीं करेंगे। मुझ तक ये बातें आती थीं। अपनी कमअक्ली पर घमंड करने वालों को मालूम नहीं था कि दो दशक से आए हफ्ते मैं पांडे जी और ठाकुर साहब से फोन पर नियमित बात करता हूं। दोनों ने कभी नहीं कहा कि मैंने उन्हें धोखा दिया है बल्कि यही कहा कि जो हुआ परिस्थितिव हुआ; तुम्हारा इसमें कोई कसूर नहीं। तुमने खुद को बहुत ज्यादा सजा दी है बेवजह यह सब सोच कर-ऐसा पांडे जी ने लगभग आठ महीने पहले भी मुझसे कहा था, जब मैं लिवर सिरोसिस के चलते अस्पताल में दाखिल था और उनका फोन आया।
दोनों महानुभावों ने मेरे बगैर मांगे मुझे आर्थिक सहायता दी और यह कहकर कि यह किसी भी कीमत पर वापिस नहीं ली जाएगी। जबकि दोनों उस वक्त नौकरी से रिटायर हो चुके थे। सत्कार की कद्र तब होती है जब वह सच्चा होता है। जब श्री रामेश्वर पांडे और श्री निशिकांत ठाकुर अपने- अपने संस्थानों में (सेवानिवृत्त होने से पहले) अच्छे पदों पर थे तो मैंने कई जरूरतमंद साथियों की नियमित नौकरी के लिए उनसे गुजारिश की। एक बार भी ‘न’ नहीं सुना। सुना तो बस इतना ही कि वह व्यक्ति हमसे मिले और तुम्हारा नाम ले दे; काफी है। इससे ज्यादा क्या हो सकता है? जो शख्स खुद को उनका ‘गुनाहगार’ मानता हो, क्या छोटी बात है कि उसकी सिफारिश सदा मानी गई? बेशक सिफारिश अपने आप में किसी भी सही प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है लेकिन अब इसके बगैर लोगों का गुजारा भी नहीं! कह देने से किसी की रोजी-रोटी का जुगाड़ हो जाए तो हर्ज क्या? बाकी जलवा तो प्रतिभा तथा मेहनत को दिखाना होता है।
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