संजय सिन्हा-
आप किसी से अपने बारे में कुछ कहने को कह दीजिए तो उन्हें सांप सूंघ जाएगा। लेकिन दूसरों के बारे में वो कुछ भी कह सकते हैं। दूसरों के बारे में वो अपने से अधिक जानते हैं। कमाल है।
कल पटना में मेरी मुलाकात रवीश से हो गई। रवीश कुमार पत्रकार हैं और उनसे मेरा मिलना कोई महान खगोलीय घटना नहीं है। हम दोनों एक ही धंधे के हैं। एक ही शहर में रहते हैं। एक ही संस्थान से पढ़ कर निकले हैं। हमारा मिलना और नहीं मिलना क्या बड़ी बात है? रवीश की अपनी पहचान है। मेरी अपनी। रवीश की पहचान मेरी तुलना में कई गुना अधिक है। मैंने तो जो थोड़ी बहुत पहचान बनाई, वो टीवी से अधिक फेसबुक से बनी। लेकिन रवीश को लोग हार्डकोर जर्नलिस्ट के रूप में जानते हैं। मैं हमेशा पर्दे के पीछे रहा, सिवाय तेज़ चैलन के अपने कार्यकाल में कहानी वाले संजय सिन्हा के रुप में जाने जाने के।
मैं हमेशा संपादकीय विभाग में रहा। जो लोग पत्रकारिता के भीतरी व्याकरण को नहीं समझते उनके लिए बता रहा हूं कि मैं अखबार में डेस्क पर रहा। टीवी में प्रोडक्शन में रहा। मुझे खुद सामने आने का कभी शौक नहीं रहा। मैं लोगों की रिपोर्ट ठीक करने में लगा रहा।
अगर असमय मेरे छोटे भाई का निधन न हो जाता और मैं खुद को व्यस्त करने के लिए फेसबुक पर लिखने न आता तो मैं रोज़ एक कहानी भी नहीं लिखता। मैंने दस साल पहले फेसबुक पर रोज़ एक कहानी लिखने का सिलसिला शुरू किया और मेरी कंपनी के प्रबंधकों को जब पता चला कि मैं रोज़ एक कहानी फेसबुक पर लिखता हूं तो उसे मेरे ही चैनल पर रोज़ सुनाने की मुझे अनुमति मिल गई। मेरी थोड़ी पहचान उसी माध्यम से बनी ‘रिश्ते- संजय सिन्हा की कहानी’। लेकिन रवीश अपनी जन रिपोर्ट के कारण जाने गए।
पत्रकारिता की दुनिया में मेरा कोई आदर्श नहीं। पर मुझे कभी-कभी लगता है कि अगर पत्रकारिता में मैं किसी को अपना आदर्श मान सकता हूं तो वो रवीश ही होंगे। रवीश के अलावा मुझे भड़ास वाले यशवंत सिंह की पत्रकारिता भी कमाल की लगती है। मेरे चाहने वाले हैरान हो सकते हैं कि संजय सिन्हा खुद को प्रभाष जोशी, बनवारी, राजेंद्र माथुर बनते नहीं देखना चाहते हैं और पता नहीं कहां से दो नाम ढूंढ कर ले आए – रवीश और यशवंत।
ये निजी पंसद का मसला है। मैंने अपने जीवन में इन दोनों को फक्कड़ पत्रकारिता करते देखा है। दोनों में तुलना नहीं, लेकिन दोनों मुझे भाते हैं।
इंदौर एयरपोर्ट पर एक बार मुझे यशवंत सिंह मिल गए तो मैंने उनके साथ तस्वीर खिंचवाई थी। कल पटना में मुझे होटल मौर्या में रवीश मिल गए तो मैंने उनके साथ तस्वीर खिंचवाई।
लेकिन कमाल हो गया। रवीश के साथ मेरी तस्वीर देख कर मेरे अपने परिजनों ने इतनी तीखी प्रतिक्रिया जताई है कि मैं हैरान रह गया हूं।
इससे पहले एक बार मैंने राजदीप सरदेसाई के साथ अपनी तस्वीर फेसबुक पर डाली थी तो लोग मेरे पीछे पड़ गए थे। राजदीप हमारे साथ काम करते थे। उनके साथ रोज मेरी तस्वीर हो सकती थी। लेकिन लोगों ने मुझे ट्रोल किया था। क्यों? राजदीप ने ऐसा क्या किया है? आप उन्हें कितना जानते हैं?
यशवंत को भी आप बहुत नहीं जानते। उन्हें मीडिया के लोग अधिक जानते हैं। उनके साथ तसवीर खिंचवाने पर मीडिया के लोगों ने मुझे टोका था कि आप यशवंत के साथ? क्यों? क्या परेशानी है जो संजय सिन्हा किसी के साथ तस्वीर खिंचवाएं?
खैर, मेरी सारी तस्वीरें मेरी पिछली पोस्ट में होंगी। आप ढूंढ कर लोगों के कमेंट पढ़ लीजिएगा। लेकिन कल तो हद ही हो गई।
मैंने रवीश के साथ अपनी तस्वीर साझा की तो मेरे कई परिजन मुझे छोड़ देने की धमकी देने लगे। एक भाई (कोई प्रमोद मिश्रा हैं) ने तो कहा कि संजय सिन्हा जी, आज से आपकी वॉल पर आना बंद। आज से आपको पढ़ना बंद। एक भाई ने कहा कि संजय सिन्हा जी आप देशद्रोही के साथ? एक ने रवीश को पनौती कहा। कुछ लोगों ने मजे लिए और पूछा कि क्यों आपने उनसे उनकी जाति नहीं पूछी – कौन जात हो भाई?
और तो और कुछ लोगों ने बताया कि वो ब्राह्मण नहीं, भूमिहार ब्राह्मण हैं। लोगों ने बहुत कुछ कहा रवीश के साथ मेरी उस तस्वीर पर। कुछ ने खुल कर निंदा की तो कुछ लोगों ने सराहा भी। लेकिन सच्चाई यही है कि रवीश से नाराज़ लोगों ने कल मुझे घेरने की बहुत कोशिश की।
मेरे एक साथी उनके पूरे खानदान की कुंडली मेरे सामने लेकर चले आए। उनके पिता, उनके भाई सभी की कहानी। एक भाई ने दावा किया कि रवीश ने बहुत पैसे बनाए हैं। उनके पास मर्सडीज कार है। मैंने बताने वाले से पूछा कि क्या आपने उनकी कार देखी है?
वो चुप हो गए।
मैंने अपने परिचित से कहा कि मैंने दो बार मर्सडीज कार खरीदी है। दो बार बेच चुका हूं। दो बार बीएमडब्लू कार भी खरीद कर बेच चुका हूं तो क्या आप मुझे भी चोर समझते हैं? वो चुप हो गए।
असल में जब आप किसी के बारे में जाने बिना राय बनाते हैं तो आपको चुप हो जाना पड़ता है।
मैं दावे से कह सकता हूं कि मुझे मेरी वॉल पर घेरने वाले रवीश कुमार को नहीं जानते हैं। मैं रवीश को जानता हूं। इसलिए कि वो मेरे बाद के बैच में आईआईएमसी (भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली) के छात्र रहे हैं। उस संस्थान में दाखिला मिलना ही पत्रकारिता के छात्र के लिए सम्मान की बात है। रवीश मेरी जानकारी में इकलौते ऐसे छात्र हैं जिन्होंने पत्रकारिता की पढ़ाई छोड़ दी थी। छोड़ना आसान नहीं होता है। वही छोड़ सकता है, जिसे खुद पर भरोसा हो, जो डिग्री से ऊपर की सोच रखता हो।
संजय सिन्हा ने तो जनसत्ता में नौकरी मिलने के बाद आईआईएमसी की पढ़ाई शुरू की थी, जिसकी उन्हें कतई ज़रूरत नहीं थी, फिर भी डिग्री पाने का मोह मैं नहीं छोड़ पाया था। उनकी तरह ही यशवंत सिंह (भड़ास वाले) ने हम दोनों से पहले नौकरी छोड़ने का दम दिखलाया था।
रवीश चाहते तो उन्हें आराम से नौकरी मिल सकती थी और लाखों की मिल सकती थी। पर उन्होंने नौकरी से जब इस्तीफा दिया तो उस कहानी को सार्वजनिक किया था। क्यों छोड़नी पड़ी उन्हें नौकरी।
संजय सिन्हा आज तक ये दम नहीं दिखला पाए हैं। नौकरी मैंने भी छोड़ी। पर किसी से कह नहीं पाया कि क्यों? आसान नहीं होता है सारा सच उड़ेल देना।
मैं जानता हूं कि रवीश आज कहीं ज्वाइन करना चाहें तो लोग उन्हें हाथोंहाथ ले लेंगे। उनकी लोकप्रियता किसी कार्यक्रम को हिट कर देने के लिए काफी है। नौकरी की कमी मेरे पास भी नहीं थी, नहीं है। मेरे नौकरी छोड़ने के बाद कई ऑफर आए। लेकिन मेरा मन नहीं किया कहीं बंधने का।
आसान नहीं होता है लाखों की सैलरी का हर महीने का मोह छोड़ना। पर मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि जो उसे छोड़ने का दम दिखलाते हैं, उनकी आप सराहना मत कीजिए, पर झूठी कहानियां भी मन में मत पालिए। आप में अधिकतर लोग न रवीश को जानते हैं, न संजय सिन्हा को। आपके मन में जो भी राय है, वो सिर्फ आपकी सुनी सुनाई राय है।
आसान नहीं होता है इतने साल तक काजल की कोठरी में काम करते हुए बिना कालिख के बाहर निकल आना। आसान नहीं होता है लाइट, कैमरा और ऐक्शन की दुनिया को यूं मिनटों में छोड़ देना। आसान नहीं होता है अपने मीडिया के परिचय पत्र की उस हनक से बाहर हो जाना, जिसे दिखला कर आप देश के किसी विभाग में कहीं भी आसानी से प्रवेश पा लेते रहे हैं।
आप कुछ भी कह देते हैं। दलाल, चोर, भांड। जो मुंह में आता है लिख देते हैं। आप नहीं सोचते कि मीडिया को जिंदा रवीश जैसे पत्रकारों ने रखा है। उन लोगों ने नहीं, जो मुंह पर पाउडर लगा कर कैमरे के आगे चीख रहे हैं। हर विधा का एक काल होता है। मुझे नौकरी छोड़ने का अधिक अफसोस इसलिए नहीं हुआ क्योंकि मैं बचपन से नौकरी के बंधन में बंधना ही नहीं चाहता था। मैं बहुत देर तक किसी की धौंस सह ही नहीं सकता हूं। मेरा स्वभाव मुझे किसी सरकारी या वैसी प्राइवेट नौकरी से जुड़ने से रोकता रहा और इसीलिए मैं मीडिया में आया था कि वहां किसी की नहीं सहनी होगी।
जनसत्ता में नौकरी मिली, शुद्ध योग्यता की बदौलत। वहां नौकरी करते हुए साल भर में मैं ट्रे़ड यूनियन की हड़ताल में शामिल हो गया था। उसका नतीजा ये रहा कि मैं अपने प्रधान संपादक प्रभाष जोशी और जेनरल मैनेजर सुदर्शन कुमार कोहली की नज़र में आ गया और मेरा प्रमोशन दस साल नहीं हुआ। मुझ पर रत्ती भर फर्क नहीं पड़ा। जब प्रभाष जोशी हटे, राहुल देव संपादक बने तो जनसत्ता में मेरा पहला प्रमोशन हुआ था सब एडिटर से सीनियर सब एडिटर। पर मुझे न प्रमोशन नहीं होने का दुख था, न हो जाने की खुशी हुई थी। जो था, मेरा चुना रास्ता था।
उन दिनों मेरी दोस्ती ज़ी टीवी नेटवर्क के मैनेजिंग डाइरेक्टर विजय जिंदल जी से हो गई थी। उन्होंने मुझे प्रिंट से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आने के लिए प्रेरित किया। वही मुझे ज़ी न्यूज़ लेकर गए। वहां से मैं इसी विधा में आगे बढ़ता रहा, कछुआ चाल से। बीच में मेरी पत्नी का इंडिया से अमेरिका नौकरी में ट्रांसफर हो गया तो मैं अमेरिका चला गया, पत्नी भक्ति में ज़ी न्यूज़ की नौकरी छोड़ कर। मुझे बिना नौकरी के रहने का अभ्यास है। घर की साफ-सफाई करने, बर्तन धोने, खाना बनाने और कपड़े धोकर प्रेस करने का भी अभ्यास है। मेरे मन में इन बातों को लेकर कभी हीन भावना नहीं आती कि मैं नौकरी नहीं करता, घर के काम करता हूं। मेरी नज़र में नौकरी सिर्फ जीने का जरिया है। काम तो इतना ही है कि कुछ गलत न करूं। पैसे की सीमा नहीं होती। जितना हो अधिक है। जितना हो कम है।
बात रवीश की हो रही थी। रवीश से चाहे आप नफरत करें या प्यार पर सच्चाई यही है कि अभी वो सही मायने में पत्रकार हैं।
याद रखिएगा पत्रकार के तीन ही काम होते हैं और रवीश कुमार उन तीनों में अव्वल है। पत्रकार का काम होता है खबरें पहुंचाना। जन सरोकार के काम से जन को जोड़ना और सरकार की आखों मे आंख डाल कर प्रश्न पूछना। रवीश का इन तीनों कामों में किसी से मुकाबला नहीं। सही कहूं तो दूर-दूर तक उन जैसा कोई नहीं। मैं भी नहीं।
तो प्लीज़ आप रवीश को लाइक करें न करें फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन याद रखिएगा, जब आपका कोई साथ नहीं देता है तो आखिरी उम्मीद पत्रकार ही होते हैं। मेरी आपसे गुजारिश है कि आप कम से कम रवीश जैसे पत्रकारों का हौसला तोड़ने वाली बातें न कहें ( सच ये है कि आप उनके विषय में कुछ नहीं जानते)। आपकी राय किसी के लिए कुछ भी हो सकती है। पर ये मत भूलिए कि आपके पास अपने ही कहे को साबित करने का एक भी साधन उपलब्ध नहीं है।
फिर भी आप रवीश से नफरत करते हैं, उनके साथ मेरी तस्वीर पर मेरी खिंचाई करते हैं तो मैं कुछ अधिक नहीं कहूंगा। आप एक आजाद देश के आजाद नागरिक हैं। आपको हक है किसी के लिए कुछ भी कहने का। पर जैसे आप खुद को नहीं बदल सकते, संजय सिन्हा से आप क्यों उम्मीद करते हैं कि वो बदल जाएं? मेरा भी जो मन होगा, लिखूंगा। जिसके साथ मन होगा, तस्वीर खिंचवाऊंगा। पर इतने के लिए आप ये न कहें कि संजय सिन्हा अब आपको छोड़ कर चला जाऊंगा।
मत जाइए मुझे छोड़ कर। आप हैं तो मैं हूं। आपको तो पता ही है कि मैं भाव का भूखा हूं। आपसे जुड़ कर तो मैंने जीना सीखा, नहीं तो अपने छोटे भाई के निधन के बाद मेरी ज़िंदगी में क्या बचा था?
आप मुझे कोसिए। आप मेरी सराहना मत कीजिए। ये सब चलता रहेगा। पर प्लीज़ मुझे छोड़ कर जाने की बात न कीजिए। मेरा दिल टूट जाएगा। बाकी पत्रकार खबरों को जीते होंगे, संजय सिन्हा तो रिश्तों को जीते हैं। मुझे रवीश मिलते रहेंगे, मैं उनके संग तस्वीर खिंचवाता रहूंगा। वो मेरी व्यक्तिगत पसंद हैं। इतनी आज़ादी तो आप मुझे देंगे न?
आप जिसे पसंद करते हैं, जिनकी स्तुति में फेसबुक रंगते हैं तो क्या मैं आपको कभी टोकता हूं? रिश्ते निभाने की पहली और आखिरी शर्त यही होती है कि एक-दूसरे की निजता की कद्र करें। आपकी पसंद आपको मुबारक। मेरी पसंद मुझे मुबारक। संपूर्ण सत्य कुछ नहीं होता है। सम्पूर्ण सत्य सिर्फ मृत्यु है। बाकी जो है, उसे धारणा कहते हैं। धारणा भ्रम है। भ्रम में रिश्ते न छोड़ें। न जाओ भईया, छुड़ा कर बईंया, कसम आपकी मैं रो पड़ूंगा।
फैसल खान
June 25, 2023 at 2:22 pm
आपकी लेखनी को सलाम,बाकी ये तो निर्विवाद रूप से सत्य है कि रवीश कुमार जहां करोड़ो अंडभक्तो के लिए रावण की तरह है वहीं उससे कहीं ज़्यादा लोगो के लिए बहुत ज़्यादा अहमियत रखते हैं,
मुकेश
June 25, 2023 at 8:07 pm
बहुत सुंदर भाई साहब, आपके विचार तारीफ-ए-काबिल।
Chhattisgarhiya Goth
June 25, 2023 at 8:53 pm
रवीश को चाहने वाले भी लम्बा लिख, बोल और पढ़ सकते हैं,
Shiv shankar sarthi
June 25, 2023 at 8:53 pm
रवीश को चाहने वाले भी लम्बा लिख, बोल और पढ़ सकते हैं,
Sanjay Tripathi
June 26, 2023 at 2:42 pm
अपने आपको महिमामंडन करने के लिए इतने बड़े आलेख की जरूरत नहीं थी। जानने वाले जानते है ! और सुनें को हार्डकोर जर्नलिस्ट as such कुछ होता है क्या ? मुझे नहीं पता ! पर हाँ सब #agendadhari ही होते हैं चाहे #इधर का हो या #उधर का। हाँ कहानी , कविता लिखना व्यक्ति की रूचि होती है नैसर्गिक भी , वही अलग बनती है। Thank you !!
shubham
June 27, 2023 at 3:42 pm
Aap to ravish ke chappal chaat mitra ho
aapke parijan aapse zyada samajh rakhte hain …unhi se kuch seekh lete
ravish khud ek khangressi chappal chaat 2 kodi ka pattalkar hai …jo siway ek ganwar aurat ke taaney maarne ke kuch aur nahi haasil kar sakta ….
chaiwaley ka mazak banata hai aur khud bhool gaya ki (RA)NDTV me post master ki job pe tha
bina topi ke is maulana deshdrohi gaddar ko aap ke parijan pehchaan gaye lekin aapki aankhon me doorthrashtra ki patni wali patti bandhi hai aur bandhi hi rahegi
chatiye chappal apne RUBBISH KUMAR ki
shubh kamnayen