Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

विदेश गए रवीश तक जब माँ के निधन की खबर पहुँची…

रवीश कुमार-

माँ…. सोचा था ब्रसल्स को अपने लिए नहीं, अपने दर्शकों के लिए देखूंगा। यहां आते ही सब कुछ कैमरे के पीछे से देखने लगा। ज़हन में मां बनी रही कि वेंटिलेटर पर नहीं होती तो वही ज़्यादा खुश रहती, भले ही ब्रसल्स बोलना उसके लिए भारी हो जाता। इस सूचना को लेकर अपने साथ जीना पहाड़ ढोने के समान लग रहा है। यहां की इमारतों से न तो इतिहास का रिश्ता बना पा रहा हूं, न वर्तमान का। देख रहा हूं मगर कुछ नहीं दिख रहा है। चल रहा हूं लेकिन पता नहीं कितनी दूर चल गया और लौट कर आ गया। इस वक्त लिख रहा हूं ताकि खुद के साथ रह सकूं। मेरे लिए जीना लिखना है और लिखते-लिखते उसकी हंसी बार-बार लौट कर आ रही है। उसके लिए यहां की तस्वीर कितनी ख़ास होती, मगर अब उसी के कारण सब कुछ उजाड़ लग रहा है।
दिन के वक्त यहां पांव रखने की जगह नहीं होती है। सुबह-सुबह इसके खाली अहाते को देखना उस रिक्तता में प्रवेश करने जैसा था, जिसे कोई मेरे जीवन में बना गया है। पंद्रहवीं सदी की इस इमारत के चौकोरपन में उसकी ममता का गोलपन खोज रहा था। ख़बरें कितनी जल्दी दूरी तय कर लेती हैं। बिना तार और इंटरनेट के उसकी पूरी दुनिया मुझमें सिमट आई। मैं इस इमारत को अपनी शून्यता से देख रहा था। कुछ लोग इस इमारत से जीवन भर का रिश्ता जोड़ने के लिए तरह-तरह की भंगिमा में तस्वीरें ले रहे थे। कैमरे और किरदार अदल-बदल हो रहे थे। हल्की ठंड से भरी हवा में वेंटिलेटर की आवाज़ सुनाई दे रही थी। इन इमारतों की दीवारों पर लग रहा था कि कोई आक्सीजन चढ़ा रहा है। किसी मूर्ति का ब्लड प्रेशर कम हो गया है। अचानक कोई दौड़ा आ रहा है और सब थाम ले रहा है। एक पल में यह इमारत ध्वस्त होती है मगर दूसरे पल में कोई बचा लेता है। फेफड़े के बिना इंसान कब तक सांस ले सकता है। बहुत सारी दवाइयां फेफड़े को साफ कर सकती हैं मगर दूसरा फेफड़ा नहीं बना सकती हैं। मैं किसी का कैमरा थाम लेता हूं, वह किसी और देश का मालूम होता है। मैं भी तो किसी और देश का हूं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

ब्रसल्स से कभी नाता नहीं रहा। अपने जीवन में जिन देशों को जाना, उनमें बेल्जियम कभी था ही नहीं और जिस घर से मेरा जीवन भर का नाता रहा है, वहां आज मां नहीं है। लग रहा है कि ग्रैंड पैलेस की इस इमारत के एक हिस्से से निकल पारस के डॉ प्रकाश दौड़े जा रहे हैं। उनकी टीम एक पांव पर खड़ी हो गई है। एम्स के डॉ अजीत अपने अस्पताल के चौड़े गलियारे में भागे आ रहे हैं। इन दोनों डॉक्टरों और उनकी टीम ने कोशिश में कोई कमी नहीं की। इनकी कोशिश से ही उम्मीद का आधार चौड़ा होता जा रहा था। डॉ अजय का खांटीपन हौसला दे रहा था कि एकदम घर जाएंगी। आप सभी ने मुझे उस अपराध बोध में डूबने से बचा लिया कि हम कुछ नहीं कर सके। लेकिन चारों तरफ से टूटी हुई उम्मीदों के बीच भी कोई न कोई बांस की दो फट्टियों को जोड़ रहा होता है। जोड़ कर छत बना लेने के लिए या नाव बना लेने के लिए। डॉ प्रकाश और डॉ अजीत अभी भी दो फट्टियों को जोड़ते नज़र आ रहे हैं। मैं सोच रहा हूं। डॉक्टर की भी तो हताशा होती है। वह भी तो किसी मरीज़ के जीवन का हिस्सा हो जाता है। मरीज़ को खोने के बाद डॉक्टर कितना ख़ाली हो जाता होगा। उसे तो फिर से किसी और मरीज़ को इसी हालत से निकाल लाने में जुटना होता है। क्या वह हार जाता होगा? फिर वह अगला संघर्ष कैसे करता होगा? उन्हें मरीज़ों के परिजनों से नज़र मिलाने में कितनी मुश्किल होती होगी। आज हम इन दोनों डॉक्टर को श्रद्धा से याद कर रहे हैं। ब्रसल्स में कहीं से एंबुलेंस की आवाज़ आ रही है। लग रहा है सभी मां को लेकर एक बार फिर से अस्पताल जा रहे हैं। यहीं आ गए हैं। लेकिन इस जगह का ख़ालीपन मुझे अपनी बांहों में समेट रहा है। बिहार दूर है। ब्रसल्स और भी दूर है। सब कुछ ठहर गया है।

ग्रैंड पैलेस का अहाता मेरे घर के पीछे का आंगन लग रहा है। उसके भगवान जी आज वीरान हो गए हैं। जिनके चऱणों में फूल चढ़ाना उसके लिए पहला काम होता था। बहुत दिनों से किसी ने फूल भी नहीं तोड़े हैं। उस पूजा में मैं हमेशा होता था। कहती थी कि तुम्हारे लिए कवच तैयार कर रही हूं। रक्षा होगी। मुझे कभी पीछे हटने को नहीं कहा। हर पुरस्कार उसका होता था। हर पुरस्कार के साथ वह अपने दिनों को याद करने लग जाती।इन पुरस्कारों के नाम भले न बोल पाती हो, मगर उसकी मुस्कुराहट मुझमें जान डाल देती थी। उसी के लिए ब्रसल्स चला आया। वही चली गई। कई दिनों से इस भंवर में था कि जाता हूं, नहीं जाता हूं। फिर चला गया कि अभी आता हूं। वह मुझे भेजना चाहती थी, इसलिए सब कुछ कंट्रोल में होने का भ्रम बनाए रखी।उसके साथ मेरे जीवन में सब्र का ख़ज़ाना चला गया। हर मुसीबत में उसका सब्र ही था जो काम आता था। सर्दी के देश में आया था, तुम्हारे लिए गर्म मोज़े, टोपी, जाने क्या क्या देखता, खरीदता, अगली सर्दी के लिए। इस बार की गर्मी बहुत लंबी हो गई मां। आज का पुरस्कार तुम्हारी ही है, पर तुम नहीं हो। वो गांव भी अब गांव नहीं रहा, जिसे हम तुम्हारी वजह से जीते थे। वहां जाते थे। यशोदा का नंदलाला…बृज का उजाला है…मेरे लाल से सारा जग….कहो तो गाऊं….


2 Comments

2 Comments

  1. Babul Banarsi

    May 3, 2023 at 2:14 am

    मां तो बस मां होती है ! किसी भी मां से मिलिए उसके सानिध्य में ममता की खुशबू और बातों में मिश्री की मिठास मिलती है।
    दुःख हुआ जानकर कि रवीश जी की मां नहीं रहीं। बहुत खुशनसीब हैं वो लोग जिनकी मां और उसकी ममता उन्हें मिल रही है। मैंने अपनी मां को 1986 मे खो दिया था और आज तक मुझे ममता की छांव नसीब नहीं हो सकी। खुद दो रोटियां खा कर मेरे लिए चार रोटियाँ रखने वाली और कभी कभी भूखे रहकर भी मेरे लिए खाना परोसने वाली बस सिर्फ एक मां ही हो सकती है। विनम्र श्रद्धांजलि

  2. Harendra shukla

    May 4, 2023 at 2:39 pm

    माता जी को विनम्र श्रद्धांजलि

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement