अगर कोई खेमा था तो वह राजेंद्र माथुर का था और एसपी उसी के अंदर थे : कमर वहीद नकवी

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उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार और रंगकर्मी राजीव नयन बहुगुणा इन दिनों ‘मेरे संपादक – मेरे संतापक’ शीर्षक से एक सीरिज लिख रहे हैं, फेसबुक पर. इसमें अपने करियर के दौरान मिले संपादकों के बारे में अपनी समझ और अनुभव के हिसाब से रोचक तरीके से कथा लेखन कार्य करते हैं. इसी सीरिज के तहत वरिष्ठ पत्रकार कमर वहीद नकवी के बारे में वो आजकल लिख रहे हैं. राजीव ने अपनी ताजा पोस्ट में लिखा कि नकवी सुरेंद्र प्रताप सिंह खेमे के थे. इस बात पर खुद नकवी ने आपत्ति की और विस्तार से राजेंद्र माथुर व एसपी सिंह के बारे में लिखा. साथ ही खेमे को लेकर स्पष्ट किया कि कौन किस खेमे में था, अगर कोई खेमा था तो. राजीव नयन बहुगुणा और कमर वहीद नकवी के रोचक लेखन को आप यहां नीचे पढ़ सकते हैं. नकवी जी ने अपनी बात कई अलग-अलग टिप्पणियों के जरिए रखी है, जिसे एक साथ यहां जोड़कर दिया जा रहा है.

Rajiv Nayan Bahuguna :  कमर वहीद नकवी यद्यपि राजेंद्र माथुर की कल्पना के पुरुष थे बट वह विधि वश दूसरे खेमे में भर्ती हो गये। माथुर कहते थे कि मैं एक श्रेष्ठ पत्रकार में एक संत का दर्शन करता हूँ। वह संत नकवी थे पर माथुर और नकवी एक दूसरे को कभी ढंग से जान ही नहीं पाए। नकवी सुरेन्द्र प्रताप सिंह के खेमे के थे, और खुद को बहुत बड़ा तीसमार खान, रन नीतिकार और सूरमा समझते थे, लेकिन थे निरे पत्रकार। अगर बगैर हेलमेट कोई पुलिस वाला चालान काट दे, तो बगलें झांकने लगते थे। यानी की सिर्फ पत्रकार थे, बाकी खुद के बारे में डींग हांकते थे। अगर घर में गैस खत्म हो जाए तो थानेदार को फोन नही करते थे, चटक शर्ट पहन कर हमें लेक्चर देते थे।

टिहरी से देहरादून की धूल और थकान भरी यात्रा के उपरान्त Qamar Waheed Naqvi ने यकायक मेरी जंघा पर धौल जमाई। मैं विस्मित हो गया, क्योंकि अब तक मेरी जांघ पर हथेली रखने का अधिकार सिर्फ मेरे आत्मज और मेरे पिता को था। नकवी बोले- अगर बुरा न मानें तो आपसे एक निवेदन करूं। मैं सम्म्झ गया कि वह मेरी अत्यधिक मद्यपान की प्रवृत्ति पर कुछ कहने वाले हैं। मैंने अपना सर कार की अगली सीट के सोफे पर टिका दिया और अपनी दोनों भुजाएँ अपने सर के नीचे रख दीं। अब नक़वी सिर्फ इतना बोले- ”जब आप पहले पीते थे तो पता नहीं लगता था। अब जरा सा पीने के बाद भी आपकी आवाज़ लहरा जाती है।” मैं चुप रहा तो आधे मिनट के सुकूत के बाद बोले- ”क्या आपको एम्बेसेडर कार में ही यात्रा करना पसंद है?” यह एक शिक्षक का मनोवैज्ञानिक उपचार था, जो मुझ जैसे कितनों को ही ऊँगली पकड़ के चलना सिखा चुका था।

Qamar Waheed Naqvi : राजीव नयन बहुगुणा जी, मैं कभी चाहता नहीं था कि अपने बारे में कुछ लिखूँ. मैंने कभी चाहा नहीं कि मेरे जीवन में कब, क्या और कैसे बीता, यह किसी को बताऊँ या लिखूँ. दुनिया को क्या लेना-देना एक अदना-से आदमी के जीवन से? लेकिन आप कुछ ऐसा लिख रहे हैं, जो हो सकता है कि आपका सत्य हो, जैसा आपने देखा हो या जैसा आपको दिखा हो या जैसा आपने समझा हो. पर ज़रूरी नहीं कि सत्य वैसा ही हो. मैं कभी किसी ख़ेमे में रहा नहीं और कभी मैंने अपना कोई ख़ेमा बनाया नहीं. कुछ लोगों के प्रति ज़्यादा श्रद्धा हो सकती है, कुछ लोग किन्हीं मामलों में ज़्यादा प्रभावित कर सकते हैं, कुछ लोगों से स्वभावतः ज़्यादा निकटता हो सकती है, कुछ लोगों से मित्रता और कुछ से अति मित्रता हो सकती है. इसका मतलब यह नहीं कि मैं या कोई उनके ख़ेमों में गिना जाय!

हो सकता है कि आप ख़ेमे की परिभाषा के बिना किसी को देख पाने में दिक़्क़त महसूस करते हों, लेकिन कुछ लोग किसी खाँचे में फ़िट नहीं किये जा सकते! मैं भी ज़रा बेतुका हूँ और दुनिया की सामान्य परिभाषाओं, पैमानों और दृष्टि में कभी फ़िट नहीं होता. वैसे आप अपनी कोई भी राय बनाने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन तथ्य सही होने चाहिए. मेरा जीवन केवल उतना ही नहीं, जितना आपने मुझे जयपुर में देखा है. मैं जयपुर के बहुत पहले भी था और उसके बहुत बाद भी हूँ. एसपी मेरे बहुत पसन्दीदा थे, लेकिन राजेन्द्र माथुर और एसपी की तुलना नहीं की जा सकती. माथुर जी जैसा व्यक्ति करोड़ों में कोई एक होता है. वह मेरे परम-परम श्रद्धेय हैं और सदा रहेंगे. उनके जैसा पत्रकार और इनसान मैंने उनके अलावा अपने साठ सालों के जीवन में कोई दूसरा नहीं देखा.

दूसरी बात यह कि मेरा करियर बनाने में दो सम्पादकों का सबसे बड़ा योगदान है, उनमें से एक हैं आनन्द जैन, जो 1980 में नवभारत टाइम्स के सम्पादक थे और ट्रेनी जर्नलिस्ट की भर्ती के लिए जिन्होंने मेरा पहला इंटरव्यू किया था और मुझे चुन कर फाइनल इंटरव्यू के लिए मुम्बई भेजा था. और फाइनल इंटरव्यू के बाद हिन्दी में मैं अकेले चुना गया था. दूसरे सम्पादक हैं राजेन्द्र माथुर, जो 1982 के अन्त होने के कुछ पहले नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक बने थे. उनसे मेरा परिचय संयोगवश ही हुआ था. 30 या 31 दिसम्बर 1982 को वह पहली बार नभाटा सम्पादक के तौर पर मुम्बई आये थे. 1 जनवरी 1983 को जब मैं दफ़्तर पहुँचा, तब पता चला कि माथुर जी मेरे बारे में कई बार पूछ चुके थे. कारण यह कि उन्हें मेरी लिखी यह ख़बर बहुत पसन्द आ गयी थी कि मुम्बई ने पिछली रात नया साल कैसे मनाया. उस परिचय के कुछ महीनों बाद जब पता चला कि लखनऊ से नवभारत टाइम्स शुरू होनेवाला है, तो मैंने इच्छा जतायी कि मैं नये अख़बार में काम करके सीखना चाहता हूँ और उन्होंने बड़ी जद्दोजहद कर मुझे लखनऊ भिजवा दिया….

एसपी से मेरी पहली मुलाक़ात मुम्बई में हुई, जब मैं ट्रेनी ही था और वह रविवार के सम्पादक. बाद में नभाटा, लखनऊ में काम करने के दौरान भी एकाध बार उनसे मुलाक़ात हुई, लेकिन यह मुलाक़ात बढ़ी 1986 के बाद, जब मैं चौथी दुनिया में काम करने दिल्ली आया, उन दिनों माथुर जी नभाटा के प्रधान सम्पादक और एसपी कार्यकारी सम्पादक थे. बाद में 1989 में माथुर जी और एसपी ने तय किया कि मुझे और रामकृपाल जी को फिर नभाटा लखनऊ जा कर उस अख़बार को सम्भालना चाहिए और इस तरह हम दोनों (मैं और रामकृपाल) एक बार फिर लखनऊ काम करने पहुँचे. यह वह दौर था, जब मैंने पहली बार एसपी के निर्देशन में काम किया.

तो अगर कोई खेमा था तो वह राजेन्द्र माथुर का खेमा था और सच यह है कि एसपी उसी खेमे के अन्दर थे, वह कभी उसके बाहर नहीं रहे. हालाँकि बहुत-से लोग एसपी-राजेन्द्र माथुर को अलग करके देखते रहे, लेकिन जहाँ तक मेरी समझ है राजेन्द्र माथुर और एसपी दोनों एक-दूसरे के पूरक थे और एक-दूसरे में बहुत-सी चीज़ें जोड़ते थे और अगर वे दोनों कुछ और दिन एक साथ काम कर पाते को बहुत कुछ उन्होंने कर दिखाया होता. माथुर जी के असामयिक निधन के कारण यह जोड़ी टूट गयी. एसपी का जो योगदान हिन्दी के उस समय के पत्रकारों को है, वह भी अप्रतिम है और हमारे जैसे लोग एसपी के तेवर, ख़बरों पर उनकी ज़बर्दस्त पकड़, निर्भीकता, बेबाकी के क़ायल थे और वह हमारे लिए प्रेरणा के बहुत बड़े स्रोत थे. राजीव नयन बहुगुणा जी, आप लिखें जो लिखना चाहें, लेकिन राजेन्द्र माथुर और एसपी इतने बड़े हैं कि ये किसी ख़ेमेबाज़ी के मुहताज नहीं है.

रहस्य मेरे कोई नहीं हैं. और किसी के ‘रहस्यों’ की ओर ध्यान देने का न कभी स्वभाव रहा, न फ़ुर्सत. केवल इतना कहना चाह रहा हूँ कि जो लिखें, वह सुनी-सुनाई थ्योरी न हो. जो अवधारणा आपने बनायी हो, उसे लिखने के पहले कुछ जानकार लोगों से भी बात कर लेते तो बात साफ़ होती. एसपी और माथुर जी के साथ काम करने वाले और उन्हें निकट से जानने वाले तमाम लोग अभी जीवित हैं. उनमें से बहुत-से लोग बहुत कुछ बता सकते हैं. दूसरे यह कि आपने मेरे साथ काम किया है. एक पत्रकार के तौर पर मैं आपकी संवेदनशील रिपोर्टिंग का बड़ा क़ायल रहा और आपको पसन्द भी बहुत करता था. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप मेरे खेमे में थे! हो सकता है कि बहुत-से लोग ऐसा समझते हों, हो सकता है कि आपको भी ऐसा ही लगा हो, लेकिन मेरा तो कोई खेमा था नहीं. न तब था, न कभी रहा. कथा तत्व रखिए, लेकिन वह सत्य के निकट हो. इसके लिए रिसर्च करनी होती है, यही आग्रह है. जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, स्कूटर मैंने कभी बिना हेलमेट के चलायी नहीं. इस मामले में बड़ा डरपोक हूँ. जान से खेलने लायक़ दुस्साहस नहीं है मुझमें!

इसके पहले का पार्ट पढ़ें…

Qamar Waheed Naqvi अंध विश्वासी भी थे… तंत्र तो नहीं, पर मन्त्र पर विश्वास करते थे….



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