यह ग्रेट ग्रेट मैन बंबई के अपने फ्लैट में कोविड की चपेट में आ कर 87 की उम्र में अकेला मरा!

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अशोक पांडे-

दीवान-कम-सोफे के पैताने धरी छोटी मेज पर और उसके आसपास रखी चीजों की लिस्ट बनाता हूँ –

  1. नारियल के तेल की शीशी
  2. सोडे की तकरीबन खाली बोतल
  3. एक कप जिसे ध्यान से देखने पर पता चलता है उसमें नकली दांतों का सेट रखा हुआ है
  4. दवाओं के दो पत्ते
  5. पारदर्शी प्लास्टिक का डिब्बा जिसके भीतर कुछ सफ़ेद कैप्सूलनुमा गोलियां हैं
  6. एक पुराना मोबाइल
  7. एक लेटर पैड
  8. लाल ढक्कन वाला एक मार्कर
  9. ग्लूकोज का खुला हुआ डिब्बा
  10. एयर फ्रेशनर
  11. कुछ मुची हुई रूमालें और पेपर नैपकिन
  12. वोलिनी स्प्रे
  13. पेन-स्टैंड की तरह इस्तेमाल किया जा रहा चाय का खाली पैकेट
  14. चश्मे का खोल
  15. एक लंबा कप जिसके भीतर एक कैंची और चाकू जैसी कोई एक चीज धरी गई है
  16. एक नीली बुकलेट जो संभवतः बैंक की पासबुक है

बार-बार खोपड़ी टिकाये जाने की वजह से दीवार पर बन गए तेल के बदनुमा धब्बे आपकी निगाह में आ ही गए होंगे. अब दीवान-कम-सोफे पर आते हैं –

  1. एक मैला तकिया
  2. दो सस्ती चादरें
  3. तकिये की तरह इस्तेमाल किया जा रहा एक कुशन
  4. एक तहमत
  5. बेसुध सोया हुआ एक बूढ़ा जो दरअसल मर चुका है

सन 1976 की फिल्म ‘कभी कभी’ के एक दृश्य में पूजा खन्ना बनी राखी कॉलेज के ज़माने के अपने आशिक और भूतपूर्व शायर अमित मल्होत्रा बने अमिताभ बच्चन से पूछती है, “अमित जी, अगर आप जिन्दगी से शायरी, कला संगीत निकाल दें तो ज़िन्दगी में जीने लायक रह क्या जाएगा? गुज़ार सकेंगे ऐसी बेमतलब, रूखी और वीरान जिन्दगी?”

जवाब मिलता है, “गुज़ार सकेंगे क्या मिसेज पूजा खन्ना, गुज़ार रहा हूँ और यकीन के साथ कह सकता हूँ इतनी बेमतलब की जिन्दगी नहीं”

राखी फिर पूछती है, “हमने सुना है कि हर शायर की ज़िंदगी में कोई न कोई लड़की होती है जिसके कारण वो शायरी शुरू करता है …”

सवाल को बीच में काटकर अमिताभ कहता है, “या छोड़ देता है.”

भावनात्मक मेलोड्रामा होने के बावजूद सुपरहिट रही इस फिल्म में अमिताभ बच्चन और राखी के अलावा शशि कपूर, वहीदा रहमान और बाकी कलाकार जिन शब्दों को बोलते हैं, वे सब इसी बूढ़े ने लिखे थे.

गंगा सागर तलवार उर्फ़ सागर सरहदी नाम के इस जीनियस ने ‘कभी कभी’ के अलावा ‘सिलसिला’ और ‘नूरी’ जैसी बेशुमार फिल्मों के डायलॉग भी लिखे थे.

उसके जन्म का स्थान बाफ़ा एबटाबाद जिले में है जो पार्टीशन के बाद पाकिस्तान का हिस्सा बन गया. विभाजन की त्रासदी ने उसका घर, व्यवसाय, जंगल, पेड़, खेत, हवा, दोस्त सब तबाह कर दिए. वह जीवन भर उन्हीं को याद करता रहा और हर किसी से पूछता रहा “वे कौन लोग थे जिन्होंने तय किया कि मेरा वतन अब मेरा नहीं है. कि मुझे मेरा घर छोड़ कर जाना होगा? कौन लोग थे वे!”

खुद को मूलतः एक उम्दा नाटककार समझने वाले (जो वह था भी) इस आदमी को जब सलीके की रोटी मयस्सर न हुई, उसे फिल्मों का रुख करना पड़ा.

डायलॉग लेखन में अपनी महारत का झंडा गाड़ देने के बाद जब उसे अहसास हुआ कि फिल्म दरअसल निर्देशक का माध्यम है, उसने फिल्म बनाने की ठानी. न पैसा पास था न पिक्चर बनाने का अनुभव. तो भी दोस्तों और अपनी साख के बूते सागर सरहदी ने ‘बाज़ार’ जैसा क्लासिक खड़ा कर दिखाया. बाज़ार का सिनेमा बनाने वाली इंडस्ट्री में यह आदमी मीर तकी मीर, मिर्ज़ा शौक लखनवी और मख़दूम मोहिउद्दीन की शायरी को अपनी फिल्म का हिस्सा बनाने का माद्दा रखता था.

फिल्म के हिट हो जाने के बावजूद वह हर अपने-पराये से पूछता, “मेरा काम तो नाटक लिखना था, मुझे फिल्मों में काम क्यों करना पड़ता है?”

जरूरी सवाल पूछने वाले की इस मुल्क में जो गत होती है, वही उसकी भी हुई. ज़रा सोचिये ‘बाज़ार’ 1982 में बनी थी. उसके बाद वह आदमी 39 साल और ज़िंदा रहा. उसे एक भी फिल्म और बनाने का मौक़ा नहीं दिया गया. टनों के हिसाब के कूड़ा बनाने-परोसने वाली बंबई फिल्म इंडस्ट्री को इस आदमी की बेबाकी और ईमानदारी से कितना डर लगता होगा?

2018 में मेरे अज़ीज़ दोस्त इरफ़ान (गुफ़्तगू वाले) जब सागर सरहदी से बातचीत करने गए तो उनके फ्लैट की छत तक पहुँचती अलमारियों में धरे किताबों के जखीरे की विविधता से भौंचक्के रह गए कि वह आदमी क्लासिकल शेक्सपीयराना साहित्य से लेकर खांटी प्रोग्रेसिव लेखन और मीर-ग़ालिब की शायरी से लेकर फ्रेंच नियो-रियलिज्म के उस्तादों के बीच कैसी आसानी से आवाजाही कर लिया करता था.

सागर सरहदी की सनक, उनके गुस्से और उनके हठी जीनियस के पीछे मौजूद एक बेहद प्यारे इंसान से मेरे एक और शानदार दोस्त हरीश नाम्बियार की गहरी दोस्ती थी जिसका ज़िक्र भर आने से वह कह उठता है, “ही वॉज़ अ ग्रेट ग्रेट मैन!”

यह ग्रेट ग्रेट मैन बंबई से सायन के प्रतीक्षा नगर के अपने फ्लैट में 22 मार्च 2021 को कोविड की चपेट में आ कर, 87 की उम्र में अकेला मरा. पोस्ट की शुरुआत में बनाई गई चीज़ों की लिस्ट बताती है कि चार दशकों से वह हम सब से वही बात कहना चाहता था जो संसार को विदा कहने से पहले ‘बाज़ार’ फिल्म में कमसिन शबनम बनी सुप्रिया पाठक अपने प्रेमी बने फारूख शेख़ से कहती है –

देख लो आज हम को जी भर के
कोई आता नहीं है फिर मर के

ज़माने का चलन ऐसा हुआ है किसी अपने तक को जी भर देख लेने की फुरसत नहीं बची. और यह तो सागर सरहदी था जो आपका-मेरा ही नहीं, खुद अपना भी पराया था.

यूं उसे मरे हुए पूरा एक साल हुआ. अब तो माफी भी नहीं माँगी जा सकती उससे.

(यह पोस्ट पिछले साल आज के दिन की है. खुद को बहुत सारी चीजें याद दिलाने के लिए इसे आज फिर लगाया जा रहा है. आगे भी लगाया जाता रहेगा.)

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Comments on “यह ग्रेट ग्रेट मैन बंबई के अपने फ्लैट में कोविड की चपेट में आ कर 87 की उम्र में अकेला मरा!

  • Jeelani khan Alig says:

    Heart touching… have no words to express my feeling further… May God give rest to his soul in peace…

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  • Jeelani khan Alig says:

    Very Heart touching… have no words to express my feeling further… May God give rest to his soul in peace…

    Reply
  • विजय सिंह says:

    ऐसे लोगों की जानकारी पूर्व में मिले तो उनसे मिलने की कोशिश की जा सकती है.

    Reply
  • Harish chandra IAS r says:

    How cruel is the society particularly film industry which doesn’t bother to know whereabout what to say taking care of such greatman. My heart felt condolences.

    Reply

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