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सुख-दुख

टेस्ट पर टेस्ट करते रहे पर रोग पहचान न पाए, ग़लत इलाज से गई जान, सहारा अस्पताल पर कुल एक करोड़ से ज्यादा का जुर्माना!

परिवादी के पिता स्व०अशरफ जमाल सिद्दीकी (पूर्व न्यायाधीश जिला उपभोक्ता आयोग प्रथम लखनऊ) को अप्रैल 2010 में अस्वस्थ होने और शरीर तापमान अत्यधिक होने के कारण 27.04.10 को सहारा हॉस्पिटल लखनऊ में भर्ती कराया गया। भर्ती के समय उनके शरीर के अंग भली भांति कार्य कर रहे थे। अचानक 05.05.2010 को उनको वेंटीलेटर पर रख दिया गया और दो दिन बाद ठीक होने के बाद भी उन्हें वेंटीलेटर से हटाया नहीं गया. अनावश्यक रूप से उन्हें खून चढ़ाया गया। होश में आने के बाद भी परिवारवालों से मिलने नहीं दिया गया। 17.05.2010 को डॉक्टर सुनील वर्मा ने डायलिसिस करने को कहा। सहारा हॉस्पिटल वाले एक के बाद एक टेस्ट करते रहे लेकिन रोग को पहचान नहीं पाए। उन्हें SGPGI नहीं भेजे। अंतिम दिन जब SGPGI के लिए संदर्भित किया गया तब उसी दिन उनकी मृत्यु हो गयी। परिवादी की ओर से सहारा हॉस्पिटल को विधिक नोटिस१३.११.१० को भेजी गयी लेकिन सहारा ने कोई उत्तर नहीं दिया। तब राज्य उपभोक्ता आयोग में सहारा के विरुद्ध एक परिवाद प्रस्तुत किया गया। राज्य आयोग के पीठासीन न्यायाधीश राजेंद्र सिंह और सदस्य विकास सक्सेना ने इस मामले की सुनवाई की। सहारा हॉस्पिटल की ओर से बताया गया कि उन्हें पर्किन्सोनिस्म , फिस्टुलाइन एनो यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन सेप्टिसीमिया था तथा उनकी हालत अत्यंत ख़राब थी। कई डॉक्टरों ने उनके स्वास्थ्य का परीक्षण किया। सहारा हॉस्पिटल से इलाज से सम्बंधित सारे प्रपत्र और हिस्ट्री शीट मँगाकर आयोग ने इनका अवलोकन किया। पेश है पूरी कहानी…

सहारा अस्‍पताल लखनऊ में दि0 27.04.2010 को अपराह्न 3:20 बजे मरीज को भर्ती किया गया था जहां पर यह कहा गया कि इसके पेट में दर्द है, शरीर का तापमान उच्‍च प्रकृति का है, सांस लेने में तकलीफ है और यूरिन होने में कठिनाई है। मरीज को पिछले 05 वर्षों से पार्किंसोनिडम की व्‍याधि है और वह पिछले 03 वर्षों से अपने फिजीशिएन से दवा ले रहा है। यह भी लिखा गया कि राइट लीवर जोन में निमोनिया है, लेकिन बांया फेफड़ा एकदम साफ है। राइट लीवर जोन मतलब दाहिने फेफड़े के तीन लोब में से नीचे वाला लोब संक्रमित है, लेकिन इस सम्‍बन्‍ध में कोई विश्लेषण रोगी की केस हिस्‍ट्री में नहीं लिखा है कि यह किस कारण से हुआ और इसकी हालत क्‍या है?

​​रोगी को फेलसिगो 120m.g. का इंजेक्‍शन आठ दिन देने की बात लिखी है। यह इंजेक्‍शन मलेरिया में दिया जाता है और वह भी जब मलेकिरया काफी तीव्र होता है। इस दवा के साइड इफेक्‍ट में शरीर दर्द, चक्‍कर आना, कमजोरी, खाने की शिकायत कम होना आदि हैं। विपक्षी सं0- 1 ने इसके बाद एक अन्‍य ड्रग लेरियागो दिन में दो बार भी लिखा और यह भी दवा मलेरिया के लिए होती है। इस दवा के साइड इफेक्‍ट में शरीर पर चकक्‍ते पड़ने, शरीर दर्द, उलटी का होना, दस्‍त होना, अपच की शिकायत आदि है। राज्‍य आयोग ने यह पाया कि ये दोनों दवायें मलेरिया की हैं, लेकिन मरीज के केस हिस्‍ट्री में मलेरिया से सम्‍बन्धित परीक्षण की कोई भी रिपोर्ट नहीं है जिससे यह स्‍पष्‍ट होता है कि रोगी को मलेरिया हुआ ही नहीं था और इसके बावजूद लापरवाही पूर्वक उसे मलेरिया की उच्‍च शक्ति वाली दवाइयां दी जा रही थीं। 

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बहस के दौरान जब विपक्षी के विद्वान अधिवक्‍ता से पूछा गया कि पार्किंसंस और पार्किंसोनिजम में क्‍या अन्‍तर है। उन्‍होंने बताया कि दोनों एक ही चीजे हैं और दोनों में कोई अन्‍तर नहीं है। चिकित्‍सीय साहित्‍य में इन दोनों में अन्‍तर बताया गया है।

पार्किंसोनिजम, पार्किंसंस बीमारी की तरह होता है, लेकिन इसमें कपकपाहट नहीं होती है और दोनों बराबर का प्रभाव छोड़ती हैं। इसके कारण चलने में धीमापन और कड़ापन आता है, थकान होती है और मस्तिष्‍क में डोपामीन की कमी से यह होती है।

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​​शरीर की उच्‍च तापक्रम के मामले में कई दवायें दी जाती है जिनसे ज्‍वर कम होता है। इसको कम करने के लिए मलेरिया सम्‍बन्‍धी ड्रग देने की आवश्‍कता नहीं होती है। परिवादी की ओर से कहा गया कि विपक्षी डॉक्‍टर ने उनके मरीज को प्रत्‍येक पल की विस्‍तृत जानकारी नहीं दी और अनावश्‍यक रूप से उनको वेंटिलेटर पर डाल दिया गया जब कि इसकी कोई आवश्‍यकता नहीं थी। इसके अतिरिक्‍त बिना आवश्‍यकता के मरीज को ब्रानकोस्‍कोपी की गई। 

चिकित्‍सीय साहित्‍य में ब्रानकोस्‍कोपी करने और वेंटिलेटर पर रखने के लिए जो मापदण्‍ड दिए गए हैं उनका अनुपालन नहीं किया गया। हर मामले में उपचार नहीं होते हैं। मरीज के केस हिस्‍ट्री में इसका कोई विस्‍तृत विवरण नहीं दिया गया है। राज्‍य आयोग ने इन सभी तथ्‍यों को अपने निर्णय में विस्‍तृत रूप से विचार किया है और पाया है कि इसकी कोईआवश्‍यकता नहीं है। केस हिस्‍ट्री से यह स्‍पष्‍ट नहीं होता है कि ब्रानकोस्‍कोपी करने और वेंटिलेटर पर रखने के सम्‍बन्‍ध में मरीज को या उसके परिवार को सहमति दी गई थी या नहीं।

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​​एनलफिस्‍टुला के सम्‍बन्‍ध में हिस्‍ट्रीसीट में विस्‍तृत विवरण नहीं दिया गया है कि इसकी पहचान और उपचार के लिए क्‍या-क्‍या कार्यवाही की गई। इस मामले में मरीज को दिए गए दवा में से दि0 10 और 11 मई 2010 को फारकाक्‍स-2 दवा दिन में एक बार दिए जाने का उल्‍लेख है और यह दवा टी0बी0 के उपचार में काम आती है, किन्‍तु मरीज को टी0बी0 होने सम्‍बन्‍धी कोई पैथालॉजी रिपोर्ट पत्रावली में नहीं है और न ही उसकी केस हिस्‍ट्री में ऐसा कुछ लिखा गया है। इस दवा के साइड इफेक्‍ट में पीलिया का होना, देखने में परेशानी होना, खून में यूरिक एसिड का बहना, लीवा इंजाइम का बढ़ना, उलटी होना, जी मितलाना,स्‍पूटम का अधिक उत्‍पन्‍न होना आदि शामिल हैं। इस दवा को क्‍यों दिया गया इसका कोई जवाब विपक्षी की ओर से नहीं दिया गया। 

​​विपक्षी अस्‍पताल में भर्ती होने के पश्‍चात मरीज के शरीर में बेडसोर उत्‍पन्‍न हुआ जो दूसरे ग्रेड का था। इसके उपचार के लिए क्‍या किया गया, स्‍पष्‍ट नहीं है और जब मरीज विपक्षी के अस्‍पताल में रहा तब उसे दूसरे ग्रेड का बेडसोर किन परिस्थितियों में हुआ इसका कोई विवरण नहीं दिया गया है। राज्‍य आयोग ने लिखा कि बेडसोर से बचने के लिए वाटर मेट्रस या हवा के उन गद्दों का प्रयोग किया जाता है जिनमें हर 6-6 मिनट पर एक वाह्य मशीन द्वारा हवा के गद्दों के कालम परिवर्तित होते रहते हैं जिससे मरीज के एक स्‍थान पर लगातार दवाब नहीं पड़ता जिससे बेडसोर होने की सम्‍भावना शून्‍य हो जाती है, किन्‍तु इस बारे में केस हिस्‍ट्री में कोई विवरण मौजूद नहीं है। 

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​​राज्‍य आयोग ने यह पाया कि इस मामले में परिस्थितियां स्‍वयं बोलती हैं का सिद्धांत लागू होता है और सारी परिस्थितियां यही बताती हैं कि विपक्षी द्वारा मामले में अत्‍यधिक लापरवाही बरती गई है। रोग का शिनाख्‍त करने में विलम्‍ब किया गया, दवायें गलत दी गईं तथा जो रोग नहीं था उसकी भी दवा लगातार दी गई जिससे मरीज को इन दवाओं के प्रयोग से उत्‍पन्‍न होने वाली बीमारी या शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव से बचाया नहीं जा सका। 

मरीज को लगातार आई0सी0यू0 में रखा गया,लेकिन यह स्‍पष्‍ट नहीं है कि क्‍या वायरस, बैक्‍टीरिया जर्म से शून्‍य था अथवा नहीं या वहां पर रोग रहित करने के लिए क्‍या कार्यवाही की गई?

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जब मरीज की हालत विपक्षी से संभालते नहीं बनी तब उसने एस0जी0पी0जी0आई0 में ले जाने की सलाह दी, किन्‍तु मरीज की मृत्‍यु हो गई। राज्‍य आयोग ने कहा कि जब विपक्षी अस्‍पताल के पास मरीज के इलाज से सम्‍बन्धित पूर्ण विकसित चिकित्‍सीय सेवायें नहीं थीं तब मरीज को पहले ही एस0जी0पी0जी0आई0 को क्‍यों नहीं संदर्भित किया गया और उसे अनावश्‍यक रूप से विपक्षी ने अपने अस्‍पताल में क्‍यों रखा, इसका कोई उत्‍तर विपक्षी की ओर से नहीं दिया गया?

विभिन्‍न चिकित्‍सीय लेखों के न्‍यायिक दृष्‍टांतों और वर्तमान मामले में तथ्‍यों को देखते हुए राज्‍य आयोग इस निष्‍कर्ष पर पहुंचा कि इस मामले में विपक्षी द्वारा परिवादी के इलाज में अत्‍यधिक लापरवाही बरती गई और सेवा में कमी भी स्‍पष्‍ट है। राज्‍य आयोग ने इस मामले में विपक्षी सं0- 1 को आदेश दिया कि परिवादी को 70,00,000/-रू0 और इस प‍र दि0 27.04.2010 से 12 प्रतिशत वार्षिक ब्‍याज इस परिवाद के निर्णय तिथि से 60 दिन के अन्‍दर अदा करें, अन्‍यथा ब्‍याज की दर 15 प्रतिशत होगी जो दि0 27.04.2010 से अन्तिम भुगतान की तिथि तक देय होगी।

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​​इसके अतिरिक्‍त विपक्षी सं0- 1 को आदेश दिया गया कि वह वाद व्‍यय के रूप में परिवादी को 50,000/-रू0 और इस पर दि0 27.04.2010 से 12 प्रतिशत वार्षिक ब्‍याज भी अदा करे। 

​​राज्‍य आयोग ने विपक्षी सं0- 1 को आदेश दिया कि वह सेवा में कमी, चिकित्‍सीय लापरवाही, उपेक्षा, गलत चिकित्‍सा, अवसाद आदि के मद में परिवादी को 30,00,000/-रू0 अदा करें, जिस पर दि0 27.04.2010 से 12 प्रतिशत वार्षिक ब्‍याज भी देना होगा।

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राज्‍य आयोग ने यह भी आदेश दिया कि विपक्षी सं0- 1, बीमा कम्‍पनी से जहां तक वह बीमित है उस धनराशि की प्रतिपूर्ति का अधिकारी होगा।

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