Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

‘सम्मान’ से भरोसा उठ गया है पर ‘सम्मान वापसी’ की इच्छा मरी नहीं है :)

जब-जब ‘सम्‍मान वापसी’ की आंधियां चलती हैं, मेरे भीतर का असम्‍मानित व्‍यक्ति बेतरह तड़प उठता है. खून अइसे उबाल मारता है, जइसे जवाहिर टी स्‍टाल के चूल्‍हे पर रखा हुआ गरम चाय. हम भी सम्‍मान वापस करना चाहते हैं, हम भी सम्‍मान लौटाने वालों की श्रेणी में शामिल होकर अमरत्‍व को प्राप्‍त होना चाहते हैं, लेकिन विद्याकसम सारी उम्‍मीदें पीडब्‍ल्‍यूडी की बनाई सड़क की तरह घंटे दो घंटे में टूट जाती हैं. अपने जीवन में सम्‍मान की कमी वैसे ही महसूस होती है, जइसे पीडब्‍ल्‍यूडी की सड़क में कोलतार की. सपने जले डीजल की तरह मन की गिट्टियों में सनकर इधर-उधर बिखर जाते हैं.

ऐसा नहीं है कि मैंने कोई सामाजिक काम नहीं किये या कोई जिम्‍मेदारी नहीं निभाई! कई अच्‍छे सामाजिक काम किये, पड़़ोसी की रेशमा कुतिया जब मोहल्‍ले के चार आवारा कुत्‍तों के बीच अकेले फंसी, तब उसकी इज्‍जत बचाकर सुरक्षित घर ड्राप किया. मैंने कई लोगों को अपने पैसे से गुटखा खिलाया. पड़ोसियों को दारू पीने के लिए बर्फ उपलब्‍ध कराया. अइसे अनेकों सामाजिक काम मैंने किये. रही जिम्‍मेदारी की बात कि तो बचपन से इतना जिम्‍मेदार था कि घर में हुई किसी भी चोरी की जिम्‍मेदारी मेरी मानी जाती थी. मोहल्‍ले में किसी के दरवाजे पर लगा बल्‍व चोरी हो जाए तो जिम्‍मेदार मैं माना जाता था. अफसोस फिर भी कभी किसी सम्‍मान लायक नहीं समझा गया.

लौंडों को जिस उमिर में क्रिकेट, फुटबाल खेलने का शौक होता है, हम उस उमिर से सम्‍मान पाने की लालसा पाले हुए हैं. सम्‍मान पाने की खातिर क्‍या क्‍या नहीं किये! पान बहार खाये, पान विलास खाये, पान पराग खाये, कि दुनिया मुट्ठी कर लेंगे या दुनिया कदमों में होगी, होटल वोटल भी खरीदाइये जाएगा, लेकिन कदमों में कभी कुछ आया नहीं, मुये मुट्ठी ने दूसरे काम की जिम्‍मेदारी थाम ली. होटल तो सपने रह गया. कई बार कोशिश की कि कोई सम्‍मान दे दे, कहीं से सम्‍मान मिल जाए, लेकिन हर उसी तरह नाकाम रहा, जैसे कोई ठेकदार कमीशन के बगैर ठेका लेने में हो जाता है. हमारे सम्‍मान के टेंडर का टेक्निकल और इकनॉमिकल बिड कभी भी एक साथ नहीं खुल पाया.

Advertisement. Scroll to continue reading.

पर मेरी बेइज्‍जती तब ज्‍यादा खराब हो गई, जब दसवीं लुढ़क-घसीट कर तीन साल में पास करने वाले घसीटूराम ठेकेदारी सम्‍मान समारोह में सम्‍मानित हो गया. तब मेरा मन वइसे ही टूट गया, जइसे नगर निगम की बनाई नाली दस-बारह दिन में टूट जाती है. घसीटूराम देश का निर्भीक, ईमानदार, जुझारू, कर्मठ पत्रकार बन चुका है. चोरी का कोयला खरीदते-बिकवाते घसीटूराम पता नहीं कहां से निर्भीक, ईमानदार, जुझारू पत्रकार का फारम भरा और पास हो गया? हम भी निर्भीक, ईमानदार, जुझारू वाला फारम भरने का जतन किये, परीक्षा भी देना चाहते रहे, लेकिन आज तक इस स्‍कूल या संस्‍था का पते नहीं चल पाया, जो निर्भीकता और ईमानदारी की सर्टिफिकेट देती है.

सम्‍मान पाने के लिए हम भी घसीटूराम की तरह पत्रकार बनने का प्रयास किए, कइसे भी सम्‍मान मिल जाए इसका भी प्रयास किये, लेकिन अपने शर्माजी की तरह कभी अपनी खबर से दुनिया हिलाने में सफल नहीं हो पाये. शर्माजी तो अपने अखबार में खबर छापकर चीन-पाकिस्‍तान तक को हिला देते हैं. एक बार तो मंगल ग्रह को भी हिला दिया था. शर्माजी ने एक बार छापा ‘सूरज की गरमी बढ़ी, अब बर्दाश्‍त के बाहर’ दो दिन बाद बारिश हो गई तो शर्माजी ने इसे अपनी खबर का असर बताते हुए लिखा ‘हमारी खबर से हिला इंद्र का सिंहासन, बारिश करने को हुए मजबूर’. इसके बाद शर्माजी जी का जलवा ऐसा बढ़ा कि तमाम लोग जगह-जगह सम्‍म‍ानित करने लगे. एक जगह मुख्‍य अतिथि नहीं आये तो मुख्‍य अतिथि के घर ले जाकर बिहाने शर्माजी को सम्‍मानित कराया गया.

Advertisement. Scroll to continue reading.

जब सारे जतन और उपाय करने के बाद भी किसी संस्‍था, व्‍यक्ति, संगठन, मोर्चा, पार्टी, दुकान, दुकानदार, व्‍यापारी, भिखारी, सरकार, सरकारी, विधायक, सांसद, पार्षद, स्‍कूल, कालेज, आवारा संघ, जाति संघ, चोट्टा संघ ने मुझे सम्‍मान देने लायक नहीं समझा तब मैंने खुद ही सम्‍मान प्राप्‍त करने की दिशा में प्रयास करना शुरू कर दिया. एक नई खोज के तहत मैं सायरन बजाती पुलिस की जीप के पीछे बाइक भगाकर खुद को सम्‍मानित महसूस करने लगा. ऐसा लगने लगा कि मैं बड़ा अधिकारी, नेता या इसी टाइप का हूं, पुलिस मेरी पेट्रोलिंग कर रही है. इस तरह से मैंने पुलिस जीप के पीछे बाइक भगाकर बहुत सम्‍मान अर्जित किया. एक रोज बहुत सम्‍मानित तरीके से सम्‍मान के बोझ तले दबा बाइक दौड़ा रहा था कि पुलिस जीप ने अचानक ब्रेक मार दिया और हम मय बाइक जीप में भिड़ नाए. फिर पुलिस वाले उतर कर इतनी तबियत से हमारा सारा सम्‍मान वापस लिया कि हमारी तशरीफ रंगीन हो गई. इसके बाद सम्‍मान पर से हमारा भरोसा भी उठ गया है. फिर भी ‘सम्‍मान वापसी’ की इच्‍छा मरी नहीं है.

इस व्यंग्य के लेखक अनिल सिंह दिल्ली में लंबे समय तक टीवी और वेब पत्रकारिता करने के बाद इन दिनों लखनऊ में ‘दृष्टांत’ मैग्जीन में वरिष्ठ पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं. उनसे संपर्क 09451587800 या [email protected] के जरिए कर सकते हैं.

Advertisement. Scroll to continue reading.

इस व्यंग्य को भी पढ़ सकते हैं….

ये कहने में भी डर लगता है कि डर लगता है!

अनिल का लिखा ये भी पढ़ सकते हैं….

Advertisement. Scroll to continue reading.

भारत के मीडिया घराने अब पत्रकारों की बजाय मैनेजरों के हाथों में हैं!

Advertisement. Scroll to continue reading.
2 Comments

2 Comments

  1. Vijay Kumar Pandey

    December 25, 2018 at 11:38 am

    अद्भूत है ये लेख ,व्यंग्य ही व्यंग्य
    मेरी असीम शुभकामनाएं ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement