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सुख-दुख

हमारे-आपके काल बेला को लिखा है समरेश दा ने!

भास्कर गुहा नियोगी-

কাল বেলা (काल बेला) यानी बुरा समय। बुरे समय में सपने मरते हैं,मरती है उम्मीदें। सपाट होकर जीना पड़ता है और चुप रहकर तमाशे का हिस्सा बनकर जीना पड़ता है। असहमति के लिए कोई जगह नहीं होती और सहमति सभ्य नागरिक होने का प्रतीक बन जाता है। ‌ समरेश मजूमदार काल बेला उपन्यास के लेखक है। बीते दिनों कोलकाता में 79 वर्ष की उम्र में समरेश दा का निधन हो गया। उन्होंने अपने दौर के काल बेला को शब्दों में चित्रित किया है और उसके विविध पहलुओं को सामने रखा है ।

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काल बेला किसी समय विशेष का दस्तावेज नहीं बल्कि अपने – अपने समय को जीते हुए अंधेरे से लड़कर उजाले के छोर को पकड़ने की एक छटपटाहट है और यही छटपटाहट हमारे जिंदा होने और जिंदगी को प्यार करने दस्तावेज है।

उपन्यास का नायक अनिमेष भीड़ का हिस्सा बनकर जीना और खुश होना नहीं चाहता। उसकी नाराजगी भीड़ से निर्मित समाज से है जहां लोग अपने आस-पास घट रही घटनाओं, हादसों से बेखबर है उनके सवाल खत्म हो चुके है और कुछ भी उन्हें नहीं छूता।

उपन्यास का नायक अनिमेष जब उत्तर बंगाल से पढ़ने के लिए कोलकाता पहुंचता है तो ट्राम जलते और गोली चलते देखता है उस दिन वो न चाहते हुए दुर्घटना का शिकार बन जाता है। यही से उसकी जिंदगी बदल जाती है। छात्र राजनीति उसे अनसुलझे सवालों की ओर ले जाती है और इस देश के साधरण मानुष के साथ खड़े होने की जिद अनिमेष को विभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के झंडे के नीचे ला खड़ा करती है। लेकिन मानविकता और मूल्यबोध अनिमेष को उग्र राजनीति (नक्सलवाद) से जोड़ती है। खुद को उस आग में झोंककर उसे महसूस होता है कि इस आग में कोई सृजनशीलता नहीं।

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पुलिस की अमानवीयता का शिकार होकर विकलांग हो चुके अनिमेष माधवी लता के निश्छल प्रेम और आत्मविश्वास को देखता है। विद्रोह के रास्ते देश गढ़ने चले अनिमेष पाता है विद्रोह का एक और नाम माधवी लता भी तो है। माधवी लता ने तो कभी राजनीति नहीं की केवल उसे चाहकर प्रकाश स्तंभ की तरह आज भी सिर उठा कर खड़ी है।

अनिमेष सोचता है गर्म हवा चाहे उसे जितना भी झुलसा दे पर सुबह की हवा की ठंडी तासीर उसका आलिंगन कर उसे जिदंगी देती है। वो सोचता है आजादी के बाद एक कोशिश थी। समग्रता में चीजों को बदलने की कुछ गलतियां हुई लेकिन आगे आने वाले दिनों में इस पथ के पथिक अब गलती नहीं करेंगे।

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अनिमेष और माधवी लता इस उपन्यास के दो छोड़ है जो सृजन करना चाहते हैं। उपन्यास में युवा मन के ढेरों सवाल है जो अनिमेष के जरिए जवाब खोजता है। शिल्प और कथानक में उपन्यास बेजोड़ है।

अनिमेष की स्मृति उसे बचपन में ले जाती है जहां मां है और उसकी यादें। आज भी अनिमेष आंखें बंद करता है तो उसे मां की जलती चिता याद आती है। उसे याद आता है मां ने जाने से पहले उसे कहा था जब मैं नहीं रहूंगी तब तू आसमान की तरफ ताक कर मुझसे बात करना मैं सब सुन पाऊंगी। अनि मैं तुझे छोड़कर कहीं नहीं रह पाऊंगी।

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समरेश दा के काल बेला उपन्यास पर चर्चित फिल्मकार गौतम घोष ने 2009 में फिल्म भी बनाई है।

10 मार्च 1942 में जलपाईगुड़ी में जन्मे समरेश मजूमदार का बचपन चाय बागानों में बीता।कोलकाता के काटिश चर्च कालेज से बांग्ला भाषा में स्नातक समरेश दा नाटकों से भी जुड़े रहे। नाटक लिखने की कोशिश में ही पहली कहानी लिखी। पहली कहानी देश बांग्ला के प्रतिष्ठित पत्रिका देश में छपी। उपन्यास काल बेला के लिए उन्हें 1984 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उन्होंने ढेरों कहानियां भी लिखी है। उनके। चर्चित उपन्यासों में काल बेला, काल पुरुष, उत्तर अधिकार है इसके अलावा उन्होंने फिल्मों के लिए भी लेखन किया।

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-भाष्कर गुहा नियोगी

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