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सुख-दुख

‘स्कूप’ सीरीज़ में आपको पुलिस, कानून और पत्रकारिता का जो घिनौना चेहरा दिखेगा वो सत्य है!

संजय सिन्हा-

समय मिले तो नेटफ्लिक्स पर ‘स्कूप’ देख लीजिएगा। इसलिए नहीं कि उसमें एक पत्रकार की कहानी है। इसलिए कि आपको ये जानना चाहिए कि क्या होता है, जब आप नौकरी में अति महत्वाकांक्षी हो जाते हैं, जब आप किसी को इस्तेमाल करने के चक्कर में खुद इस्तेमाल होने लगते हैं।

क्योंकि ये कहानी एक पत्रकार की है और जिन दिनों की कहानी है, उन दिनों संजय सिन्हा टीवी चैनल में वरिष्ठ पद पर कार्यरत थे और बहुत बारीक नज़र से इस खबर पर नज़र रख रहे थे। जब मुंबई की पत्रकार जिग्ना वोरा (कहानी में जागृति पाठक) पर अपने ही एक सीनियर साथी की हत्या के षड्यंत्र का आरोप लगा और उन्हें मकोका के तहत जेल भेजा गया तो मुंबई में पत्रकार जगत में हलचल मच गई थी। दिल्ली वालों की नज़र राजनैतिक खबरों पर रहती है, लेकिन मुंबई में पत्रकारिता का विषय है अपराध और अर्थ।

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जिग्ना वोरा का नाम मैंने पहले कभी नहीं सुना था। लेकिन जिस दिन उन पर मुंबई के एक वरिष्ठ पत्रकार की हत्या का आरोप लगा, मैं हतप्रभ रह गया था। ऐसा कैसे? पता चला था कि छोटा राजन नामक डॉन से उनके रिश्ते थे।

मैं हैरान था। छोटा राजन से किसी पत्रकार का रिश्ता किस तरह का हो सकता था? अधिक से अधिक फोन पर एक इंटरव्यू देने तक ही। मेरे ऑफिस में हमारे एक वरिष्ठ अपराध विशेषज्ञ रिपोर्टर आए दिन ये दावा करते थे कि कल अनीस का फोन उन्हें आया था। आज राजन का।

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मैंने एक दो बार स्पीकर पर उनकी बातचीत सुनी थी। दोनों लोग बे सिर पैर की बात करते थे। अनीस तो बात-बात में मां-बहन की गाली देता था। पूरी बातचीत में कभी कोई जानकारी या खबर नहीं होती थी, सिवाय इसके कि किसी अनीस या किसी राजन का फोन उस क्राइम रिपोर्टर के पास आया। क्राइम रिपोर्टर साथी अक्सर सुपर बॉस के कमरे में इन क्रिमिल्स के फोन सुना कर उन्हें अचंभित करते थे। सुपर बॉस खुश होकर कहते थे देखिए इस रिपोर्टर की कितनी पहुंच है। डॉन का फोन आता है।

मैंने एक बार सुपर बॉस से कहा था कि क्या प्रमाण है कि ये फोन उस डॉन ने ही किया है। मैं अपने किसी साथी को बोलता हूं कि जैसे ही मैं तुम्हें फोन लगाऊं, तुम उधर से गाली-गलौच शुरू कर देना। मैं साबित करूंगा कि फलां डॉन ने मुझे फोन किया है। जब डॉन का नंबर कनफर्म नहीं है, जब डॉन का चेहरा सामने नहीं है और फोन पर न कोई जानकारी है, न कोई खबर तो काहे का डॉन? हमारे सुपर बॉस मुझ पर भड़कते थे। संजय सिन्हा जी, आप तो बेवजह संदेह करते हैं।

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“सर, फोन आना पत्रकार के लिए खबर नहीं है। अगर फोन में कोई खबर है, जानकारी है तो ठीक है, नहीं तो ये सिर्फ इस्तेमाल होना है। इसमें पत्रकार को चाहे जितनी किक मिले, हकीकत में ये अज्ञात सूत्र खबर नहीं हो सकते हैं।” मुझे तो तब भी किसी घटना पर राजन या किसी और डॉन के चलने वाले फोनो झूठ लगते थे। ठीक वैसे ही, जैसे एलियन गाय उठा कर ले जाते थे।
खैर, आज कहानी जिग्ना की।

आप जिग्ना का उपन्यास पढ़ लीजिए या फिर टीवी पर स्क्रीन प्ले देख लीजिए। उसमें कई ऐसी सच्चाई सामने आती है, जो किसी भी कामकाजी आदमी के लिए ज्ञान है। बताने के लिए बता दूं कि इस सीरीज़ में आपको पुलिस, कानून और पत्रकारिता का जो घिनौना चेहरा दिखेगा वो सत्य है। जिग्ना वोरा पर डे नामक क्राइम रिपोर्टर की हत्या राजन से कराने का आरोप लगा था। कैसे सारा ताना बाना बुना गया, कैसे एक पत्रकार की ज़िंदगी बर्बाद हुई और क्या हुआ षड्यंत्र का फल? ये सब कहानी में पिरोया गया है। सीरीज़ देख कर ज्ञान लीजिए।

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  1. महत्वाकांक्षा अच्छी बात है। अति महत्वाकांक्षा बीमारी है।
  2. नौकरी और धंधे में कोई दोस्त नहीं होता है। सभी साथी होते हैं। साथी अच्छे और बुरे हो सकते हैं, मौका पर साथ छोड़ सकते हैं।
  3. ऑफिस में कौन जूनियर आपके खिलाफ षडयंत्र रच रहा है, कौन सीनियर के कान भर रहा है, आपको जब तक पता चलता है, बहुत देर हो चुकी होती है।
  4. नौकरी को नौकरी की तरह कीजिए। उसे न अपना पैशन मानिए, न ज़िंदगी का लक्ष्य। यहां तेज भागने से अंत में जो मिलेगा, वो दुखदायी ही होगा।
  5. अपने किसी सोर्स को अपने हित में मत देखिए, हमेशा ये देखिए कि उसका उसमें क्या हित सध रहा है।
  6. नौकरी में कोई किसी का दोस्त नहीं होता है। सब करीबी होने का दंभ भरते हैं, असल में हर कोई मौकापस्त होता है। जिस दिन आपको उनके साथ की सबसे अधिक ज़रूरत होगी, सब मुंह मोड़ लेंगे।
  7. कभी आसानी से हासिल उपलब्धि को तुरंत गले मत लगाइए। अक्सर वो शिकार के लिए फेंका गया दाना होता है।
  8. नौकरी में अति उम्मीद से होना उतना ही घातक होता है, जितना नाउम्मीद होना।
  9. कोई भी नौकरी अंत में मालिक के लिए एक व्यापार है।
  10. अपने दिमाग से कभी समझौता मत कीजिए। नौकरी में दिल घर में छोड़ कर घर से निकलिए।
  11. आप नौकरी सैलरी के लिए करते हैं। अपना काम ईमानदारी से कीजिए। मन लगा कर कीजिए। बस। दूसरों की थाली में मत झांकिए। मुमकिन है उसने कुछ पाने के लिए जो कीमत दी हो, आप वो देने के नाम पर सिहर उठें या आपके पास हो ही न देने के लिए।
  12. आपका परिवार ही आपका है। दोस्त भी आपके हैं। पर नौकरी में न कोई दोस्त है न कोई परिजन। ये एक सामान्य नियम है, इसमें घालमेल करेंगे तो दुख मिलेगा।
  13. सच अंत में जीतता है। सच को ही जीतना होता है। पर बहुत बार ये जीत हार जितनी ही बुरी होती है।
  14. कभी भूल से भी किसी का बुरा न सोचें, न करें। ‘स्कूप’ में कहानी भले जिग्ना वोरा की है, पर असल में उस पुलिस अधिकारी का हश्र भी सामने आता है, जिसने अपने लाभ के लिए जिग्ना को फंसाया था। उसे अंत में कैंसर होता है। जिग्ना वोरा की लिखी सच्ची कहानी में में तो श्रॉफ नामक वो पुलिस अधिकारी खुद को अंत में गोली मारता है।
    संजय सिन्हा का फ़ाइनल ज्ञान-
    ज़िंदगी एक नाटक है। हम सब नाटक में काम करते हैं। अपने-अपने हिस्से की पटकथा जी कर हमें मंच से उतर जाना होता है। कभी किसी दूसरे की कहानी में सिर मत घुसेड़िए। जितना ज़रूरी सुखद रूप से जीना है, उतना ही ज़रूरी सुखद मौत भी है। अगर मौत दुखद मिली तो बात सोचने की होगी की चूक कहां हुई?
    संदर्भ मुंबई का वो पुलिस अधिकारी है जिसने एक बेकसूर पत्रकार को अपने फायदे के लिए फंसा कर नौ महीने जेल में सड़ने पर मजबूर किया, जिसने उसकी ज़िंदगी के बारह साल (असल में पूरा जीवन) खराब कर दिए। ये एक सच्ची कहानी है और न्यूज़ चैनल में बतौर संपादक रहते हुए मैंने बहुत करीब से पूरी खबर को समझा था। देखा था।
    मैं रंगभेदी नहीं हूं। पर ये सच है कि बुरे का मुंह काला होता है। जब बुराई दिख जाए तो दूरी बेहतर।
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